स्त्रियों के संसार में ही घिरती है रात
सोनू यशराज
12 फरवरी 2025
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ये उसकी सुबह थी
पीठ पर धक्का मारते पुलकित के नन्हें पैर सुबह की अलसाई नींद के गवाह थे। इससे पहले वह इस आनंद में डूबती, भागते समय की हक़ीक़त एक कुशल ग़ोताख़ोर की तरह उसे अप्रतिम सुख की नदी से बाहर खींच लाई। उनींदे कमरे के पलंग पर बालक पुलकित की अंगड़ाई देखती, बालों का ऊँचा जूड़ा बनाती सुरभि प्रतीक की ओर देखकर मुस्करा दी। फ़ोन पर लिंकडिन देखते प्रतीक ने परदे हटाकर दिन को घर बुला ही लिया। अब डूंगरी से सलामी लेकर सूरज बायपास रोड के किनारे खड़ी इमारत के उस छोटे से फ़्लैट को देर तक घूरेगा।
प्रतीक सुरभि दिन सँभालने में जुट गए। दिन और शाम उनके गोद लिए लाडले बच्चे थे जो बात-बात में बिफर पड़ते। रात के साथ वे सौतेला व्यवहार रखते थे। तब तक उनमें जान भी कहाँ होती थी, उसके नख़रे उठाने की। घर के सारे उपद्रव शांत होकर रात 11 से सुबह 6 तक अपना कोना, अपना तकिया सँभालते थे। रात की राहत पर अगला दिन निर्भर था। दिन के दानव का मुक़ाबला आसान न था।
घर और उसमें रहने वाले छह लोगों की देखभाल, सफ़ाई, चाय-नाश्ता, स्कूल यूनिफ़ॉर्म, बैग, होमवर्क, प्रोजेक्ट, टिफ़िन, सलाद, सूप, दोपहर-रात के खाने की तैयारी सब मिलकर करते। घर की धुरी सुरभि, दो बच्चों की माँ, उम्र छत्तीस। हाई बीपी और थायराइड से हलकान शरीर, पर उम्र दिखती न थी। ख़ुद को तैयार करने से ज़्यादा ऑफ़िस में पैर जमाने पर ध्यान केंद्रित था। दिन का दानव अपना असली रंग वहीं दिखाता था। दस साल बाद पुराने ऑफ़िस में फिर से नौकरी करना शौक़ नहीं ज़रूरत थी। कोरोना के समय आर्थिक, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहा था पूरा परिवार। मम्मी और पापाजी का गिरता स्वास्थ्य, प्रतीक की नौकरी का अचानक हाथ से निकल जाना। सुरभि का साहस और तनाव प्रबंधन कई बार सूखे पत्ते जैसा काँपा, डगमगाया। खान-पान पर पूरा नियंत्रण और ख़ुश रहना अब जीने की अनिवार्य शर्त थी।
ऐसे कितने घर होंगे जयपुर में और दुनिया भर में भी। जहाँ जीवन की धुरी हर दिन और रात की चुभती, लहूलुहान करती कील पर टिकी है। ध्यान रखा जाता है कि कील के ज़ख्म इतने गहरे न हों कि छह दिन न निकल पाएँ। फिर रविवार तो है ही मरहम-पट्टी के लिए।
चल धन्नो
सुरभि की धन्नो—यानी स्कूटी—से दिन अपनी रफ़्तार पकड़ता है। ज़िंदगी की मिठास घर-परिवार, तो उसका नमक अपनी सवारी। यत्र-तत्र-सर्वत्र ले जाने वाला वाहन तो देवी-देवताओं तक को प्रिय है।
पुनर्नवा करते वह बीस मिनट। अपनी धन्नो पर बेफ़िक़्र वर्तमान की सजगता में जीती, रास्ते का आनंद लेती सुरभि।
ऑफ़िस की पुरानी साथी नेहा हँसती—“माइंडफ़ुलनेस का तुम्हारा ये फ़ंडा सारे रिट्रीट बाज़ार को धराशायी कर देगा”
“हफ़्ते में छह दिन सुबह 6 से रात 10 तक चकरघिन्नी-सी घूमती हूँ यार, पर ये मेरी धन्नो और घर तक मक्खन सड़क, ये चार किलोमीटर कितना बड़ा सुकून है, बयाँ नहीं कर सकती! सुबह की सारी भाग-दौड़ के बाद इसी स्कूटी से आते हुए अपने समूचे अस्तित्व को बटोर लेती हूँ।”
नेहा चहकती है—“पता है ये मैंने तुमसे सीखा है, अपने आस-पास की जड़ता में चेतना भरना, उनमें प्राण देखना, उनकी क़द्र करना और उन्हें नाम देकर ज़िंदगी में दिलचस्पी पैदा करना। कितनी ज़िंदादिल हो दोस्त तुम! जियो सुरभि, अपनी धन्नो से घर लौटते हुए ऑफ़िस की सारी मुसीबतें उड़न छू कर दो!”
झालाना मोड़ के ठीक सामने था जवाहर नगर बाईपास। कभी-कभार झालाना के बेतरतीब ख़ुश्क जंगलों से तेंदुआ सड़क फाँदता घरों में घुस जाता पर शोर मचाने पर डरकर या तो कहीं दुबकता या पलक झपकते जंगलों में ग़ायब हो जाता। वन विभाग वालों की क़वायद से दो-चार दिन ख़बरें बनती फिर सब जस का तस। डूंगरी से दायीं ओर कच्ची बस्ती और सामने चलो तो शांतिपथ। एक तरफ़ फ़्लैट तो दूसरी ओर वन विभाग की दीवार साथ-साथ चलती। फिर यूनिवर्सिटी का बास्केटबॉल ग्राउंड दिखता। छोटे गेट के बाद ऊँची दीवार सड़क के साथ-साथ चलती जो मोड़ के ठीक सामने सूने दिखते संस्कृत विभाग पर ख़त्म होती। असीम शांति की रही-सही कसर पूरी करते दोनों ओर दीवार के भीतर चुप्पे से खड़े पेड़। सड़क के दूसरी ओर स्कूल, जिम, आँखों का अस्पताल, आयुर्वेदिक पंचकर्म सेंटर की इमारतें नज़र आती। फिर आता आचार्य तुलसी सर्किल का तिराहा। तिराहे से ढलान ख़त्म होते-होते दिख जाता बिड़ला मंदिर का मोड़। सर्किल से इस मोड़ तक दिखती दोनों ओर ऊँची दीवारें और दीवारों के भीतर फूटती हरियाली। उधर से झाँकता विराट नभ छूता श्वेत बिड़ला मंदिर। सड़क का यह टुकड़ा अप्रतिम, मनोहारी रूप धर लेता। सुरभि यहाँ जीवन पाती।
सुबह से दुपहर यह जगह पानी वाले हरे, गिरी वाले भूरे नारियल, लाल अमरूद, भुट्टे, फालसी आलूबुखारे, बैंगनी जामुन, लाल सेब के फलों से गुलज़ार रहती। शाम को पूरा दृश्य बदल जाता। फल वाले डूंगरी चले जाते, यहाँ इक्का-दुक्का ठेले दिखते। गोलगप्पे वाला बे नागा आता। वहाँ ऊँचा-लंबा जिम ट्रेनर और दुबला-पतला पंचकर्म असिस्टेंट हमेशा बतियाते मिलते। यह बेमेल जोड़ी सबका ध्यान खींचती। उनके ठीक सामने एक हेलमेट वाला अपनी दुकान जमाता। आगे बड़ी सड़क जेएलएन मार्ग पर ट्रैफ़िक पुलिस खड़ी मिलती। अगला चौराहा पुलिस मेमोरियल था। उसके दाईं तरफ़ ही राजापार्क में सुरभि का ऑफ़िस था। दिल्ली जाने वाली बसें नारायण सिंह सर्किल से होते हुए राजापार्क रोड से निकलती थी।
दिन का दानव
ऑफ़िस में स्टॉफ़ की कमी थी, काम की नहीं। टिकने के लिए ख़ूब काम करके दिखाना पड़ता था।
कल दुपहर बाद तीज माता की सवारी थी। पुराने जयपुर में धज के साथ शोभायात्रा, दंड, ताज़िये, बैंड, कालबेलिया, घूमर नृत्य, ऊँट, हाथी, घोड़े, पालकी पर तीज माता की सवारी देखने सभी चल दिए ऑफ़िस से। लौटते हुए ट्रैफ़िक जाम, घर पहुँचते साढ़े आठ बज गए थे।
कल का बचा काम आज पूरा करना था। छुट्टियों के कारण स्टॉफ़ और भी कम था।
आज शाम हुई ही नहीं
दिन छुपा और झमाझम बारिश लगातार होती रही। काम में शाम का पता ही नहीं चला। कप में चाय ठंडी होती रही। लंच भी आधा खाया। जयेश का जन्मदिन था। रावत की कचौरी और बर्फ़ी आई। तेज भूख लगी थी, तेल-नमक-मसाला सब तेज़ था, फिर भी मना नहीं कर पाई सुरभि। ऑफ़िस पार्टी में ना-नुकुर नख़रे लगते, ख़ामख़ाँ सबके लिए चर्चा का विषय होता।
सुरभि सोच में मगन हुई—“ये सब खा लिया, तबियत सही रखनी है, आज रात कुछ नहीं खाऊँगी”
फिर प्रतीक को मैसेज किया—“आपको खिचड़ी चढ़ानी पड़ेगी आज रात के लिए, मुझे देर हो जाएगी आते-आते।”
रात
पार्किंग तक पहुँचते घड़ी आठ बजा रही थी। उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए नेहा बोली—“शुक्र है बारिश रुक गई यार”
“हाँ, पर पीछे देख”
बसों की लाइन से पूरा ट्रैफ़िक अस्त-व्यस्त था। राजापार्क से नारायणसिंह सर्किल तक तक़रीबन दो किलोमीटर जाम लगा था, उधर रामनिवास बाग़ की तरफ़ भी यही हाल था। हर तरफ़ गाड़ियों के हॉर्न और बेसब्र लोगों का शोर।
नेहा को सांगानेरीगेट की तरफ़ जाना था, वह रुआँसी हो उठी। हेलमेट पहनते हुए दोनों ने विदा ली।
जेएलएन मार्ग की चौड़ी सड़क पर वाहनों के क़ाफ़िले सरक रहे थे। गणेश मंदिर की बुधवार वाली अनियंत्रित भीड़ इस जाम में पूरा सहयोग दे रही थी।
सुरभि ने प्रतीक को मैसेज भेजा फिर बैग टिफ़िन के साथ लटका दिया—“यहाँ ट्रैफ़िक जाम है, एक घंटा तो निकलने में लगेगा। चिंता मत करना” पुराने मैसेज पर ब्लू टिक नहीं था… यह कहाँ देखा सुरभि ने!
मन हिसाब लगा रहा था। रोज़ 7:20 पर घर होती थी। कल साढ़े आठ, आज तो साढ़े नौ बज जाएँगे।
किसी जादू की तरह आधे घंटे में सड़कें ख़ाली हो गईं, पौने नौ हुए होंगे। रेंगती धन्नो की स्पीड बढ़ाकर सुरभि घर की ओर चली। बिड़ला मंदिर के मोड़ पर अचानक स्कूटी रुक गई। स्टैंड पर खड़ी कर छह-सात किक मारी पर धन्नो अड़ियल घोड़े की तरह खड़ी रही। स्कूटी में पानी भर गया था। हार कर सुरभि उसे घसीटने लगी। सामने गीली-खाली सड़क थी। तीन गाड़ियाँ तेज़ी से छपाके मारते अँधेरे में गुम हो गई। स्कूटी स्टार्ट नहीं होने की वजह से उसकी लाईट बंद थी। तुलसी सर्किल से पहले पूरी सड़क अँधेरे से भरी थी, ढलान से ऊपर चढ़ते हुए स्कूटी धकेलना मुश्किल था। अचानक गीली सड़क पर तेज़ रोशनी चमकी। न जाने किधर से दो मोटरसाइकिलों पर छह लड़के उसके बिलकुल पास आ गए।
क़रीब आता लड़का बोला—“हम कुछ मदद करें मैडम।” उसे एक अजीब-सी गंध महसूस हुई। शायद पी रखी हो।
ज़ोर से बोली—“नहीं।”
लड़का थोड़ा पीछे हुआ।
अब उसके दोनों ओर मोटरसाइकिलें धीरे-धीरे चल रही थी। उनके इरादे भाँपना मुश्किल था, बैग खींचना होता तो वह स्कूटी के आगे ही लटका था। सुरभि घबरा गई, मन जाने कौन-सी प्रार्थनाओं में जुटा। रुक कर स्कूटी वापस स्टार्ट करने की हिम्मत नहीं थी। अपने दिल की तेज़ धड़कनें सुनती, स्कूटी घसीटती हुई चलती रही।
मोटरसाइकिल की हेडलाईट से सड़क साफ़ दिख रही थी। जिस रास्ते पर सुकून लिखा था, आज वहीं कितना अशांत था मन।
दो क़दम की दूरी पर गोलगप्पे वाले ठेले की हल्की पीली रोशनी दिखी। वहाँ कोई और भी खड़ा था। थके क़दमों और हाथों से स्कूटी को ठेले के बिलकुल क़रीब खड़ी करते-करते सुरभि ने कहा—“एक़ प्लेट।”
ठेले पर लगी रोशनी में गोलगप्पे वाला उसे पहचानने की कोशिश में था। वह रोज़ सामने से गुज़रती थी, पर रुकती कभी नहीं।
“मीठा या तीखा”
“दोनों”—सुरभि को अपनी झल्लाहट, तल्ख़ आवाज़ सुनाई दे रही थी। हेलमेट सिर पर ही था। सिर में तेज़ झनझनाहट हो रही थी। बीपी बढ़ गया था शायद। थाइराइड के कारण खटाई बंद थी, पर न चाहते हुए भी एक के बाद एक तेज़ नमक और खटाई वाले गोलगप्पे ठूँस रही थी। परिणाम जानती थी इसका।
जानबूझकर ज़िंदा मछली कौन निगलता है, पर आज निगलना पड़ा उसे—औरत होने का दंश। तीन मिनट में आठ गोलगप्पे खा गई। आँख और नाक से पानी बहने लगा। लड़के उसकी स्कूटी पर हाथ रख कर खड़े थे। उनकी ओर पीठ थी, पर वे क़रीब आते महसूस हो रहे थे।
तीसरी प्लेट का पहला गोलगप्पा दोने में ही था कि तेज़ हिचकी आई उसे। तभी जिम ट्रेनर ठेले पर आ गया। दोना फेंक सुरभि ने उसे देखा। गोलगप्पे वाला अब स्थिति भाँपा, उसका हाथ पतीले में रुक गया।
ट्रेनर स्कूटी की ओर बढ़ा, लड़के उसका डील-डौल देख औचक पीछे हट गए।
तीन किक में स्कूटी स्टार्ट हुई। सुरभि पैसे दिए बिना तुरंत सवार हो गई अपनी धन्नो पर। पीछे टार्च से आती लाईट, डंडे की आवाज़ सुनाई दी उसे।
बिना हेलमेट के थे वे सब, ट्रैफ़िक सिपाही आ रहा होगा, बस इतना ही सोच पाई। दिल-दिमाग़ भन्ना रहे थे।
घर पहुँचते ही गेट को स्कूटी के धक्के से खोलते हुए अंदर आई। हेलमेट समेत ऊपर भागी। फ़्लैट में ताला लगा था। फोन देखा तो प्रतीक का मैसेज था—“पापा को लेकर डॉक्टर के पास आया हूँ, साँस ठीक नहीं आ रही थी। अब ठीक हैं। बच्चे, मम्मी साथ हैं। चाबी नए गमले में है।”
सुरभि ने चाबी टटोली, ताला खोला, वॉश बेसिन की ओर दौड़ी। जितना ज़हर भीतर था, बाहर उड़ेल दिया। पर अभी भी डर का ज़हर उसकी धड़कन बढ़ा रहा था। क्या बिगाड़ा था उसने उन अनजान लड़कों का? वे उसे दस मिनट में दस दिन का तनाव दे गए।
बारिश फिर शुरू हुई, आसमान और घरों की छत ही नहीं, सुरभि की मधुर स्मृतियाँ तक धूल गई। क्या स्मृतियों के कोठर में ज़बरदस्ती पैर फैलाती, ऐसी डर भरती रात को खींचकर बाहर निकाल सकेगी सुरभि?
एक स्त्री जो परिवार और समाज की धुरी है, उसे यह समाज दिन-रात सड़क पर चलने की बेफ़िक़्री तक नहीं देता। पुरुष-स्त्री से मिलकर बना यह समाज लैंगिक भेदभाव की दीवार कब तोड़ेगा? कब तक परायापन स्त्री की परिभाषा में कील-सा गड़ा रहेगा? ये यक्ष प्रश्न जाने कबसे अनुत्तरित हैं।
जिस रात स्त्री बेख़ौफ़ घर लौटेगी, प्रतीक्षा है उस रात की।
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