शारदा सिन्हा स्मृति शेष नहीं, स्मृति अशेष हैं
संतोष सिंह
28 अक्तूबर 2025
सो रहो मौत के पहलू में ‘फ़राज़’
नींद किस वक़्त न जाने आए
और फिर वह सो गईं—चिर निद्रा में।
यह 5 नवंबर 2024 की रात थी। बस एक दिन पहले ही वेंटिलेटर पर आई थीं। पर अब सबको लग ही रहा था कि अब नहीं लौटेंगी।
जैसे ही एम्स (दिल्ली) के डॉक्टर्स ने घोषित किया कि प्रख्यात लोक गायिका शारदा सिन्हा नहीं रहीं, अपने आँसुओं को रोक पुत्री वंदना पूछ बैठी, “अब माँ को लिपस्टिक लगा सकते हैं न!” कला और संगीत की तरह, शारदा सिन्हा के शृंगार का भी अनुशासन था। उन्हें सब पूरी तरह सजा देखना चाहते थे। वह भावुक पलों में अक्सर कहती थीं—“मेरी मृत्यु में भी शृंगार कम नहीं होना चाहिए।” अब वह देह से आज़ाद थीं, दर्द से मुक्त थीं। वंदना ने जैसे उनके होंठों की लाली लौटाई होगी, ऐसा लगा होगा पान का बीड़ा लगाकर अब ‘कहे तोसे सजना’ गायेगीं या फिर ‘कोयल बिन बगिया न शोभे राजा’।
लोक संगीत की नायाब कोयल के बिना बग़िया बिल्कुल नहीं शोभ रही है। अपने जीवन के 72 बसंत पूरा करने के बाद जब जा रही थी, पर उनके मन में गहरी कसक थी। अभी 22 सितंबर को अपने पति ब्रज किशोर सिन्हा को खोया था। उनके मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले जब पटना से दिल्ली जा रही थी, सिन्हा साहब (जैसा शारदा सिन्हा उन्हें संबोधित करती थीं) ने डबडबाई आखों से उन्हें विदा किया था। अपना ख़याल रखने की तसल्ली दी थी अपनी शारदा को। पर सिन्हा साहब—जो पति, प्रेमी, मित्र और एक शाश्वत हमदम थे—ही चले गए। शारदा अपना इलाज बीच में ही छोड़कर आ गईं। अब उनके माथे का लाल सूर्य, वह बड़ी वाली लाल बिंदी, ग़ायब थी। यह किसी सांगीतिक अनहोनी से कम नहीं थी। पिछले 53 वर्षों में शारदा और लाल बिंदी एक दूसरे के प्रतीक थे। लाल सूर्य भगवान आदित्य का भाल था। उस छठ पर्व का प्रतीक चिह्न जिसने शारदा को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी थी।
सिन्हा साहब के जाने के कुछ दिन बाद मनुहार के बाद किसी दूसरे रंग की बिंदी लगाने को तैयार हुईं, अनमने। वह अपना संस्कार नहीं भूली थीं। बरबस पूछ बैठती थीं, क्यों सिन्हा साहब, मेरी ही बलइया लेकर ख़ुद निकल लिए! और जब ऑक्सीजन मास्क पहने गा रही थीं—‘सैया निकस गए, मैं न लड़ी थी’, तब भी इस स्वर सरस्वती के सुर नहीं हिले थे। यह स्वर साधिका का अंतिम रियाज़ था। इसमें गहन दर्द तो था ही, संगीत के प्रति भी उतनी ही निष्ठा थी। हॉस्पिटल के बेड की इस तस्वीर में शारदा शृंगार मुक्त थीं, आँखों के नीचे की काली धारियाँ अशुभ संकेत दे रही थी। पर अब भी हार नहीं मान रही थीं। दुर्वार जिजीविषा थी यह।
डॉक्टर के कहने पर अक्सर कुर्सी पर भी थोड़ी देर बैठती थीं, दृढ़ निश्चय के साथ, मानों कुछ न हुआ हो। उन्हें देर रात भूख लग जाती थी, पुरानी आदत थी। कहती थीं थोड़ा दलिया या सेब काटकर रख दिया करो। एक दिन नातिन सिरहाने बैठी तो नानी का मन बहलाने के लिए उनका सुप्रसिद्ध छठ गीत ‘दीनानाथ’ गाने लगी। फिर क्या, दर्द को भूल शारदा भी गुनगुनाने लगीं। आख़िर, दर्द और संगीत का तो सदा से तादात्म्य रहा है।
और जब उन्हें आभास होने लगा कि अब उनके पास ज़्यादा समय नहीं है तो पुत्र अंशुमन से ज़िद करने लगीं कि उनका आख़िरी गाया गीत, ‘दुखवा मिटाई छठी मईया’, अब रिलीज़ कर दो। साल 2017 में उन्हें मायलोमा डिटेक्ट हुआ था। फिर भी अनवरत लड़ती रहीं। कई समारोह में भी गईं। चेहरे पर रही मुस्कान। परिवार वाले चेहरे थे कि उनकी जीवन की गुणवत्ता में कमी न आए। आने वाले वर्षों में कई बार उनकी मृत्यु की अफ़वाह उड़ी। खिन्न हो जाती थीं। पर 2023 तक जीवन ठीक ही बीता, दवा और दुआ के बीच। इसी बीच में अपना आख़िरी गीत रिकॉर्ड किया था।
हॉस्पिटल से आख़िरी गीत रिलीज़ हुआ। दुआओं की बरसात होने लगी, मंदिरों में पूजा अर्चना, हवन होने लगे। एक दिन अंशुमन (शारदा सिन्हा के पुत्र) जब कुछ काम के लिए नीचे गए, एक ऑटो वाले ने कहा, पता है—“एक शारदा सिन्हा गायिका हैं, यहीं एडमिट हैं।” ऑटो यात्रा के अंतिम सोपान पर जब अंशुमन ने कहा, “मैं शारदा सिन्हा जी का बेटा हूँ”, अवाक्, आश्चर्यचकित, ऑटोवाला अंशुमन के पैरों को छुने लगा। यही शारदा सिन्हा होने की पूँजी थी और रहेगी।
इसी बीच शारदा सिन्हा का हाल जानने एक सज्जन एम्स पहुँचे। उन्हें पता चला कि डॉक्टर ने उन्हें घर से बना हुआ शुद्ध दलिया या खिचड़ी खाने की सलाह दी है। वह बिना कुछ बोले वहाँ से निकले। अगले दिन से आने वाले कई दिन सिर्फ़ एक कटोरी दलिया लेकर एक घंटे ड्राइव करके हॉस्पिटल आते थे और डबडबाई आँखों से शारदा सिन्हा को दूर से देख लौट जाते थे। यह भारतीय लोक संगीत का दलिया था जो संगीत के प्रति अगाध सम्मान की धीमी आँच में पका था।
मृत्यु के ठीक 54 घंटे पहले मानो एक दैवीय संवाद हुआ जब हॉस्पिटल के खिड़की के बाहर एक मैना बैठी और शारदा को देख चहचहा उठी। ऐसा लग रहा था कि अंतिम संदेश लेकर आती है। फिर शारदा ने मैथिली में कहा, “निकालो न हमरा।” बेटे अंशुमन ने कहा, “तुमसे बात करने आई है।” फिर शारदा सिन्हा ने अपनी एक साल की पोती, शिवांगी की मिमिक्री करते हुए कहा, चिया, चिया। यह बिल्कुल अद्भुत संवाद था, मनुष्य और पक्षी के बीच। लग रहा था कि वह मैना ईश्वर का कोई दूत है जो शारदा के लिए अंतिम आदेश लेकर आ गया है। शारदा और मैना संवाद पुराना है। वह बचपन में मैना से कहा करती थीं, कच्चा जामुन गिराओगी तो मार खाओगी, दो पका जामुन गिराओ। वह उसे गाना चाहती थी। पर ऐसा हो नहीं पाया। हो सकता है वह उस शिकायत से भी हॉस्पिटल की मैना आई थी, एक अंतिम बार।
शारदा सिन्हा अब एक मर्त्य शरीर से निकलने के लिए सज्ज थीं। उनकी बिंदी अब किसी काजल के टीके समान लग रही थी। चेहरा बिल्कुल शांत लग रहा था। जब कभी अंशुमन बेड से उन्हें उठाता था, शारदा अपना सर अंशुमन के सीने पर रख देती थीं और कहती थीं, “अब नहीं हो पाएगा।” एक पुत्र उस भार से मुक्त हो नहीं हो सकता।
अहमद फ़राज़ की सुप्रसिद्ध ग़ज़ल, ‘तेरी बातें ही सुनाने आए…’, शारदा सिन्हा ने कभी गाई थी। उसकी अंतिम दो पंक्तियाँ, ‘सो रहो मौत के पहलू में फ़राज़, नींद किस वक़्त न जाने आए’, ख़ुद जी गईं।
उनकी मृत्यु की कुछ घंटे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंशुमन को फ़ोन किया था। भावुक पुत्र ने अपना चरण स्पर्श निवेदित किया। इन नाज़ुक क्षणों में शारदा सिन्हा का पूरा जीवन चक्र घूम गया होगा पूरे परिवार के सामने। पुत्री वंदना की आँखों के काजल का कोर आँसू से गहरा हो चला था। 5 नवंबर की रात 9:40 बजे, शारदा सिन्हा चली गईं, सदा के लिए। अंशुमन ने फ़ेसबुक पर लिखा कि छठी मैया ने शारदा जी तो बुला लिया है।
विधि का क्या संयोग था या शायद शारदा सिन्हा ने पहले ही अपने हश्र की रात चुन रखी थी। वह छठ व्रत के प्रथम दिन ब्रह्मलीन हो गईं। बिहार सरकार ने पद्म भूषण शारदा सिन्हा के लिए राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि घोषित की। खरना के दिन उनका पार्थिव शरीर पटना लाया गया। पटना के राजेंद्र नगर के रोड नंबर 6 में एक घर पर एक शिलापट पर ‘नारायणी’ लिखा है। नारायणी उनके बचपन का नाम था। उनके पति ब्रज किशोर सिन्हा ने अपना नाम शारदा सिन्हा के नाम के नीचे लिखा था अपने घर में नाम पट पर। यह महज़ सांकेतिक सम्मान नहीं था, बल्कि पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ स्वर साधिका शारदा सिन्हा को प्रथम स्थान दिया गया था। वह शिला पर तो उत्कीर्ण थीं ही, शायद सिन्हा साहब के हृदय की शिला पर उससे कही ज़्यादा उत्कीर्ण थीं।
7 नवंबर की सुबह। छठ अर्घ्य का पहला दिन। पटना का गुलबी घाट आज पार्थिव भव्यता में भी अलौकिक लग रहा था। बिहार पुलिस की महिला टुकड़ी को राजकीय सम्मान की ज़िम्मेवारी दी गई थी। यह नारी सशक्तिकरण के किसी काव्यात्मक न्याय से कम न था। यह कितना समीचीन था कि शारदा सिन्हा की विदाई की कमान नारी शक्ति के हाथों था। माहौल में अनायास ‘दुखवा मिटाई छठी मैया’ बज उठा। शारदा अपने गीतों के बीच ही जा रही थी, अस्ताचल गामी सूर्य के साथ, भगवान अंशुमाली के प्रथम अर्घ्य के साथ। वह छठ व्रत के प्रसाद में विलीन हो रही थी। और जब पुत्र अंशुमन ने उनके मुख में घी डाला और मुखाग्नि दी जो फिर वातावरण अचानक गूँज उठा, ‘पटना के घाट पर, अब न जाईब दुसर घाट।’ यह गीत कभी उन्होंने ही लिखा था और बड़े प्रेम से गाती थी। आख़िर, पटना से जुड़ी सारी बातें उन्हें पसंद थी। शायद ही कोई समारोह ही जिसमें में वह ‘पटना से वैद्य बुलाए दे’, न गाती हों।
परिजन लौटकर नारायणी आते हैं। इस घर की नारायणी अब सशरीर यहाँ नहीं है, पर लगता है शारदा तत्व सब जगह बिखरा हुआ है। उनके चाहने वाले उनकी कोई पेंटिंग, कोई पेंसिल स्केच दे गए हैं। घर के दरों-दीवार पर शारदा ही शारदा है। शायद लोक संगीत की दरों-दीवार पर भी साधिका शारदा वैसे ही विराजमान हैं।
पर अंशुमन ने एक बात बहुत अच्छी कही कि किसी कलाकार को मंदिर में नहीं रखना चाहिए, क्योंकि वह फिर पूजित होकर रह जाती है। यह अलग बात है कि एक पुत्र बहुत व्यथित है : “सारे जीवन माँ आप मंदिर से बाहर आकर हम सब के साथ सशरीर रहीं, फिर आप वापिस अपने मंदिर चली गईं। कभी जवाब नहीं देने वाले देवी-देवताओं की उस मंडली में शामिल हो गईं, जहाँ पर हम भक्त अपने सवाल स्वयं करते हैं और जवाब भी ख़ुद ही ढूँढ़ते हैं? जब भी तस्वीर के पास जाओ तो लगेगा मुस्कुरा रही हों, आशीर्वाद दे रही हों। जब ख़ुद मैं क्रोध में होता हूँ, तब लगता है तुम उदास हो, ठीक जैसे मैंने आज तक हनुमान जी से वार्ता की वैसे ही तुम भी अब बर्ताव करने लगी हो। कौतूहल मेरा बच्चों जैसा आज भी है, बताओ न माँ कैसे हैं भगवान लोग? क्या तुम्हें खाने को पूछा, सोने को ठीक से इंतिज़ाम किया? क्या कोई तुम्हारा पैर दबाता है वहाँ? बताओ न माँ। आपने गाया था कभी—“डूबा सूर्य निकल आया तो, मरने वाला कौन है, रंग-बिरंगे परिवर्तन से डरने वाला कौन है, नाचूँ जैसे मुझे नचाते मेरे वेणु बजैया रे, लहर-लहर हर नैया नाचे, नैया में खेवैया रे” (गोपाल सिंह नेपाली)। डूबते सूर्य के साथ आप भी डूब गईं, पर हमें पहले बता गईं थी कि सत्य क्या है। निराकार शून्य से गूँजते हैं अब भी जिनके करुण स्वर, मैं साथ नहीं हूँ उसके इसलिए, माँ का ध्यान रखना हे ईश्वर।”
एक कलाकार की सही जगह संगीत प्रेमियों का मन मंदिर है। शारदा सिन्हा की सही जगह उनके अक्षुण्ण संगीत का दर है, जहाँ कनक भूधर शिखर वासिनि अपने जाज्वलय से प्रदीप्त हैं।
और देखिए, एक कलाकार का जाना क्या होता है! लेखक, कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल यह क्या कह गए, “...लेकिन नहीं। यह बार-बार होने वाला था, क्योंकि माँ एक शरीर में नहीं रहती—एक भूगोल और जीवन के इकहरे इतिहास में नहीं रहती। हाथ धो लेने के बाद उँगलियों में बची रह गई। एक घर पटना में भी था, बनारस से चार घंटे की दूरी पर। कभी भी पहुँचकर दरवाज़ा खटखटा लेंगे—के भरोसे का घर। पनडब्बे, हारमोनियम और तबले का घर। लोकमंगल की आकांक्षा को लोक के संगीत में बदलकर रख देने का घर। हिंदी, भोजपुरी और मैथिली का घर। बनारस के पूरब का घर। पाँच दशकों तक बिलाशर्त संगीत की सेवा का घर। शास्त्र और लोक के खरे संश्लेषण का घर। मेरी पीढ़ी के लोगों ने विदुषी शारदा सिन्हा में कभी-न-कभी माँ की छवि ज़रूर देखी होगी। एक कलाकार के तौर पर उनकी गरिमा, अवदान और प्रभाव का इससे उजला बिंब और क्या हो सकता है? वह ऐसी माँ हैं, जिन्हें हम सुनते ही रहे। जिनसे कहा कुछ भी नहीं। एक बार प्रणाम तक नहीं कर पाए। शरीर मिट्टी का बर्तन है। बार-बार टूटता है। हमलोग जैसे बेटे बार-बार अनाथ होते हैं। लेकिन शोक के उस पार आवाज़ की लौ बहँगी के लचकने की अटूट लय में अमर है। माँ का घर अब छठी मैया के पड़ोस में है। शोक के इस क्षण में भोजपुरी का शील सुरुज देव के ताप में तप रहा है।”
पर शारदा कहाँ गई हैं! शारदा तत्व लोक-संगीत में वैसे ही समाहित है जैसे इस शरीर में पंचतत्व। सोने और जागने का खेल चलता रहेगा। अली सरदार जाफ़री कह ही गए हैं : “मैं सोता और जागता हूँ, और जाग के फिर सो जाता हूँ। सदियों का पुराना खेल हूँ मैं, मर के अमर हो जाता हूँ"। शारदा तब तक बनी रहेंगी जब-जब कोई ‘सांवर गोरिया अपना बलमा’ को चूड़ियों से मार-मार जगाती रहेगी। ‘जगदंबा घर में दियरा’ जब-जब जलेगा, शारदा जागती मिलेंगी।
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