रूमानियत पर एक रूमानी बातचीत
उज्ज्वल शुक्ल 02 दिसम्बर 2024
एक रोज़ जब लगभग सन्नाटा पसरने को था, मैंने अपने साथ खड़े लेखक से पूछा, “आप इतनी रूमानियत अपनी रचनाओं में क्यों भरते हैं? क्या आपको लगता है कि इंसान अपने अकेलेपन में ऐसे सोचता होगा?”
हम रास्ते पर चल रहे थे, ठंड और सप्तपर्णी की महक का मिश्रण अजीब नशा उत्पन्न कर रहा था; मानो कस्तूरी की तलाश में मैं ख़ुद को खोज रहा होऊँ। वह अपने गिरेबान में झाँककर मुस्कुराते हुए कहते हैं, “बिल्कुल, आप पर जब अकेलापन हावी होता है, तभी आप झड़ते हुए पत्ते देखते हैं और उदासी आपके सीने पर चढ़ आती है।”
रास्ते पर एक आई.टी सेक्टर में काम करने वाले व्यक्ति को देखकर कहा, “लेकिन जिस व्यक्ति का सौंदर्यबोध अस्ल में इस ढंग का न हो तो? क्या पता उसने साहित्य न पढ़ा हो? या सिनेमा और कला से वैसा रागात्मक संबंध न हो?”
“पहली बात कला सिर्फ़ साहित्य और सिनेमा तक सीमित नहीं है। इंसान बचपन से ही जाने अनजाने में, अनेक तरीक़ों से कला से रूबरू होता है। तुम्हें रूमानियत से क्या दिक़्क़त है?”
“कि यह हमें यथार्थ से दूर करता है। इसके कारण व्यक्ति अस्ल संघर्षों से पलायन के रास्ते खोजता है।”
“दुख में पलायन क्या जीने की इच्छा को जीवित नहीं रखती? क्या वह व्यक्ति के पीछे की जिजीविषा को नहीं दिखाती? मैं सोचता हूँ—हर वह चीज़ जो व्यक्ति को आशा दे, भरपूर दुख में जिसके बदौलत वह थोड़े दिन और जिए वह दुनिया में रहनी चाहिए। और बहुत पुराने समय से यह है। दुखों के ऊहात्मक वर्णन में यह अक्सर मिल जाता है। आज इंसान पहले से अधिक अकेला और दुखी है। ऐसे में इसकी ज़रूरत और बढ़ जाती है।”
हम अब एक बेंच पर बैठे थे और आते-जाते लोगों को देख रहे थे। वे भी हमें देख रहे थे, शायद नहीं भी। मैं अभी पुरानी बात पर विचार कर रहा था और ई-रिक्शे पर दो प्रेमी जोड़े को जाते हुए देखता हूँ। उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी।
“लेकिन क्या इस रोमानियत के कारण वह ठहर नहीं जाता और अकर्मण्य नहीं हो जाता है? वह अपने ही सुख-दुख तक सीमित नहीं रह जाता है।” मैंने कहा।
“किसी के यहाँ कोई मरता है तो उसे शोक मनाने का अधिकार है। दूसरी बात इंसान की संवेदना का विस्तार उसके ज्ञान और विवेक के विस्तार से जुड़ा है। उसके लिए ज़रूरी है कि वह जीवित रहे और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की कोशिश करे। भूखे पेट जन कल्याण नहीं हो सकता।”
“और ख़ुशी में यह भाव क्यों रहता है?”
“तब हर्षित होने का अधिकार है।”
“और सामान्य स्थिति में?”
“तभी इंसान कार्यरत होता है। अति सबकी ख़राब ही है लेकिन रुमानियत जीवन का सुगंध है, उसे रहना चाहिए।”
“मैं इसे इतना आवश्यक नहीं मानता।”
“क्योंकि तुम दुख, क्रोध और चिढ़ से भरे हो। और इस चीज़ की ज़रूरत तुम्हें भी है। तुम कुछ खोज रहे हो।”
मैं चुप हो गया था। एक ठंड की परत मुझे जमा देने को आतुर थी। पास के नाले से जो कभी नदी थी, एक दुर्गंध उस बेंच को घेर चुकी थी।
उन्होंने मुझसे पूछा—“क्या खोज रहे हो?”
मैंने कुछ नहीं कहा और एक नाम मेरे मन के तट पर बार-बार आता—‘मुक्तिबोध’। लेकिन इसे भी रूमानियत के डर से नहीं कह पाया। मेरे लिए वह मात्र कवि नहीं बल्कि जीवन प्रक्रिया हैं। सोचने लगा कि अगर मैं कह दूँ तो क्या मेरे ऊपर भी रूमानियत चस्पा हो जाए?
“ख़ैर मुझे यह सब समझ नहीं आता कि यह है क्या।” मैंने अपना आख़िरी वाक्य कहा।
वह मुझे मुस्कुराकर देखते रहे। मुझे अब वह रक्तालोक-स्नात पुरुष दिखने लगे। मुझे डर लगने लगता है और मैं आगे बढ़ जाता हूँ।
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