प्रेम और विवाह में प्रेम नहीं है!
मनोहर श्याम जोशी
09 अगस्त 2024

कैसी विडंबना है कि हर समाज में प्रेम-विवाह और तलाक़ दोनों का प्रचलन एक साथ और एक-सी तेज़ी से बढ़ता रहा है। रूमानी साहित्य और सिनेमा में यह आभास दिया जाता रहा कि प्रेमी-प्रेमिका विवाह-सूत्र में बँधकर अब आजीवन सुखपूर्वक साथ-साथ रहेंगे, किंतु अनुभव यह दर्शाता रहा कि ऐसे जोड़े तभी तक साथ रहते हैं; जब तक उनमें से किसी एक को कोई बेहतर प्रेमी अथवा प्रेमिका मिल नहीं जाता या जाती।
अमेरिका में पिछली जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि आधे से कुछ ज़्यादा विवाह आठ साल भी नहीं चल पा रहे हैं, और सो भी तब जब युवक-युवतियाँ गठबंधन करने से पहले कुछ वर्ष साथ रहकर एक-दूसरे को पहले आज़मा ले रहे हैं। बीस वर्ष तक चलने वाली शादियों का प्रतिशत 81 से घटकर 56 रह गया है। ज़ाहिर है, तलाक़ के बढ़ते चलन से बच्चों के लालन-पालन पर बुरा असर पड़ रहा है और इसके चलते दक्षिणपंथियों को ‘पारिवारिक जीवन-मूल्यों की रक्षा’ का एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा मिल गया है।
अमेरिका में बुश-समर्थक कहने लगे हैं कि वामपंथियों ने धर्म का आधार हटाकर विवाह और पारिवारिकता को ध्वस्त कर डाला है। इसलिए वे ‘कान्वेनेंट मैरिज’ का आंदोलन चला रहे हैं, जो पति-पत्नी को याद दिला रहा है कि आपने ख़ुदा के सामने क़सम खाई थी कि हर हाल में मरते दम तक साथ निभाएँगे। कुछ राज्यों में बुश समर्थकों ने क़ानून में यह भी व्यवस्था करा दी है कि पति-पत्नी इस क़सम को निभाने के लिए अनुबंध कर सकें।
गत वर्ष एक ऐसे ही राज्य अर्कन्सॉस के गवर्नर ने वेलेंटाइंस डे पर विवाह-वंदना का उत्सव आयोजित किया, और उसमें विवाह को धार्मिक अनुबंध मानने की वकालत करते हुए उन उदारपंथियों को जमकर कोसा, जिन्होंने ‘विवाह-बंधन तोड़ना सेकेंड हैंड गाड़ी ख़रीदने का क़रार तोड़ने से भी ज़्यादा आसान बना डाला है।’ उधर फ़ैशनपरस्त वामपंथियों के लिए व्यक्ति के अधिकार इतनी बड़ी चीज़ हो चले हैं कि उन्हें उसके सामाजिक दायित्वों की बात उठाना ही प्रतिक्रियावाद से जुड़ जाना लगता है।
ऐसे में घोषित वामपंथी विदुषी प्रोफ़ेसर स्टेफ़नी कूंट्ज ने अपनी पुस्तक ‘मैरिज अ हिस्ट्री’ में दक्षिणपंथियों के आक्षेप का सटीक और संतुलित उत्तर देकर बहुत बड़ी कमी पूरी कर दी है। उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाया है कि अमेरिका के जिन राज्यों में कट्टरपंथी ईसाइयत का सबसे अधिक ज़ोर है उनमें ही तलाक़ की दर सबसे अधिक है और जो मैशेशुशैट्स राज्य समलैंगिक विवाह को स्वीकृति देकर कट्टरपंथियों के अनुसार शैतान का गढ़ बन गया है, उसमें सबसे कम। इसलिए परिवारों के टूटने का सारा दोष धार्मिकता के अभाव और उदारता के प्रभाव के माथे मढ़ना ग़लत है। फिर पाषाण युग से लेकर आज तक विवाह के विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए, वह कुछ तथ्य उजागर करती हैं—पहला यह कि संसार में सैकड़ों तरह की विवाह पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं, और समलौंगिक विवाह समेत कोई ऐसी बात नहीं है जो कहीं-न-कहीं; कभी-न-कभी अपनाई न गई हों। जैसे इसी नई अवधारणा को लें कि माँ बनने के लिए विवाह की क्या आवश्यकता है, तो दक्षिण पूर्वी चीन की ‘ना’ जनजाति में स्त्रियाँ किसी भी ग़ैररिश्तेदार से बच्चे पैदा कर लेने के लिए स्वतंत्र रही हैं। वे उन्हें अपने भाइयों की मदद से पालती आई हैं।
दूसरा तथ्य यह है कि माँ द्वारा बच्चों के पाले जाने की बात आधुनिक प्रोटेस्टेंट समाज की चलाई हुई है। कैथलिक और अन्य धर्म समुदायों के बच्चों के लालन-पालन का ज़िम्मा संयुक्त और विस्तृत परिवार का हुआ करता था।
तीसरा तथ्य यह कि इनसान भले ही प्रेम की बात हज़ारों साल से करता आया था, उसने विवाह-जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था को दिमाग़ की जगह दिल के भरोसे छोड़ना ख़तरनाक ही समझा। शादी दो परिवारों में आर्थिक-राजनीतिक संबंध जोड़ने के लिए ही की जाती रही सदा। यह एक इतनी बड़ी ज़रूरत मानी गई थी कि कुछ जनजातियों में निस्संतान माँ-बाप के लिए अपने किसी पशु या पेड़ की ही किसी दूसरे परिवार में शादी करा सकने की छूट रखी गई। तो तलाश मनपसंद वर-वधू की नहीं, फ़ायदेमंद सास-ससुर की ही रहा करती थी शादी के सिलसिले में।
प्रेम को विवाह से जोड़ने का सिलसिला डेढ़ सौ साल पहले औद्योगिक युग शुरू होने पर उत्तरी यूरोप के प्रोटेस्टेंट समाज ने छेड़ा। तब युवा पीढ़ी को अपनी बिरादरी और ज़मीन से कटकर शहरों में मज़दूर बनने और माता-पिता से अलग गिरस्ती बसाने का अवसर मिलना शुरू हुआ। व्यक्ति की स्वतंत्रता के नए फ़लसफ़े पर चलते हुए, उन्होंने शादी अपनी मर्ज़ी से करने की राह पकड़ ली। फिर विवाह में प्रेम का महत्त्व बढ़ाने में ज्यों-ज्यों प्रगति हुई त्यों-त्यों पारिवारिकता की नींव हिलती गई।
हर दौर में यही सुनाई पड़ा कि समाज के लिए भयंकर संकट पैदा हो गया है, लेकिन प्रेम-विवाह और व्यक्ति-स्वतंत्रता में अटूट विश्वास करने वाला प्रोटेस्टेंट समाज इस आक्षेप को सामंती सोच से जोड़कर ख़ारिज करता गया। तो फिर आज वह ख़ुद क्यों विवाह की पवित्रता और पारिवारिक जीवन के लिए संकट पैदा करने के आक्षेप लगा रहा है—प्रगतिशीलों पर? इसलिए कि उसने यह कल्पना न की थी कि स्त्री की पुरुष पर निर्भरता कभी समाप्त हो जाएगी, और उस संरक्षण की एवज़ में पुरुष की चरणदासी बनने का सौदा नामंज़ूर हो जाएगा। दूसरे शब्दों में यह कि स्त्री पति को प्रेमी के रूप में देखने लगेगी, परमेश्वर के नहीं या कि वह विवाह को ही अनावश्यक मान बैठेगी।
प्रेम की यह पूर्ण विजय पहले तीस वर्षों की ही देन है, जिनमें स्त्री की आर्थिक आत्म-निर्भरता, गर्भनिरोध और कृत्रिम गर्भाधान की सुविधा, यौन क्रांति और भोग-उपभोग विश्वासी संस्कृति के विकास जैसे अनेक कारणों से सामाजिक जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन हो गया है, जितना इससे पहले के तीन हज़ार वर्षों में न हुआ था।
स्टेफ़नी दक्षिणपंथियों से सहमत होती हैं कि विवाह और परिवार नामक संस्थाओं के लिए भयंकर संकट प्रस्तुत हो गया है, किंतु वह उसे समूचे सामाजिक-आर्थिक जीवन के संकट से जोड़कर देखने की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं। सारे संकट की जड़ स्त्री की स्वतंत्रता को मानने वाले दक्षिणपंथियों से वह पूछती हैं कि आपने पैसा पूजने वाला और ‘जो जीते सो सब कुछ ले जाए’ के फ़लसफ़े पर चलने वाला जो समाज रचा है, उसकी बुराइयों के लिए क्या स्त्रियाँ दोषी हैं?
वह यह भी कहती हैं कि समय की धारा उल्टी नहीं बहाई जा सकती। जिस तरह सदियों पुराना आर्थिक जीवन नहीं लौटाकर लाया जा सकता, वैसे ही सदियों पुराना पारिवारिक जीवन भी। तो यह मानकर चलना होगा कि प्रेम और तलाक़ दोनों चलेंगे क्योंकि आधुनिक व्यक्ति सुखद दांपत्य ही चाहेंगे, भले ही वह अस्थाई सिद्ध हो।
यही नहीं, हमें सभी तरह के विवाहों और परिवारों को भी मान्यता देनी होगी। पर साथ ही वह उन स्त्रीवादियों से भी सहमत नहीं होतीं जो समझती हैं कि विवाह नामक संस्था स्त्री को बाँधकर रखने के लिए बनाई गई थी, इसलिए उसका ख़त्म होना नारी मुक्ति का प्रमाण होगा।
वह समझती हैं कि बच्चों के लालन-पालन की समस्या को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज और सरकार दोनों को आज की असलियत को देखते हुए ऐसी व्यवस्था करनी होगी, जो स्त्री के लिए बिना कोई आर्थिक नुक़सान उठाए; माँ की भूमिका निभा सकने का अवसर प्रदान करती हो। माँ और बाप को अपनी परंपरागत भूमिका भुलाकर बच्चों के लालन-पालन में बराबर का हिस्सा लेना पड़ेगा।
5 सितंबर 2005
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साभार : नारी-विमर्श की भारतीय परंपरा (संपादन-संकलन : कृष्णदत्त पालीवाल), प्रकाशक : सस्ता साहित्य मंडल, संस्करण : 2017
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