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आवाज़ की दुनिया के दोस्तो!

कोविड की हाहाकारी लहर के बीच जनजीवन का ख़तरा इतना अबूझ था कि लोग उसे हर संभव जानने-समझने की कोशिश में लगे थे। वे हर किसी की बात सुन रहे थे, गुन रहे थे, धुन रहे थे। उनके लिए आख़िरी और प्रामाणिक सत्य कुछ भी नहीं था। क्लबहाउस लगभग वाचिक-स्खलन का दौर था—जहाँ लगभग सब कुछ स्खलित हुआ। धूमिल से डेढ़ हाथ उधार लेकर कहूँ तो यहाँ हर आदमी एक जोड़ी जुता हुआ बैल था। कुछ भी जोतने की तर्ज़ पर कुछ भी बोलना-सुनना—पसंद नहीं उसकी जिम्मेवारी थी, ज़रूरत थी। यहाँ संवेदनशीलता सिर्फ़ प्रवेश की अहर्ता के लिए थी, जहाँ से इंसानी दिमाग़ की तरकीबें और पेच-ओ-ख़म—और भी ख़म हुए जा रहे थे, जिसे सुलझाने में रातों की बखिया उधड़ जाती थी और इस बखिया की तुरपाई में सुइयाँ टेढ़ी हो जाती थी।

आवाज़ की दुनिया के दोस्तो!

साल 1953 में जब अमीन सयानी की आवाज़ इस उद्घोषणा के साथ शुरू होती और ओसारे में फैल जाती थी, उस वक़्त यह कोई नहीं जानता था कि इस आवाज़ की दुनिया में अभी और कितनी क्रांति होनी बाक़ी है। वज़नदार ट्रांजिस्टर, तीन सेलिया रेडियो, वॉक-मैन और होम-थिएटर से होती हुई, यह दुनिया मोबाइल फ़ोन तक चली आई। इसी दुनिया में आगे चलकर फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम की दुनिया भी स्थापित होनी थी—जहाँ के रीलमय संसार की संस्कृति इस दौर का हासिल बन गई।

लेकिन उस साल ऐसा क्या हुआ कि इस आवाज़ की दुनिया के बीच इन तमाम गैलेक्सियों के बरअक्स एक ऐसी दुनिया का प्राकट्य हुआ, जो रातरानी की तरह रातों-रात खिली और देखते-देखते धराशायी हो गई। यह दुनिया किसने बनाई जैसे सवालों में उलझे हुए इंसानों के बीच इस नई आवाज़ की दुनिया को किसने जन्म दिया? वे छह लाख लोग कौन थे, जिसकी आवाजाही अचानक से इस दुनिया में होने लगी थी?

वह कोई मार्च का महीना था और साल था 2020 का। मौसम मस्त बिल्कुल नहीं था। हुआ यूँ कि दुनिया भर में इंसानों ने अचानक एक दूसरे से दूरियाँ बना लीं। संक्रमण इतना था कि सब कुछ ख़त्म होने को तैयार। जन-जीवन के ह्रास के बीच इंसानी ज़ात के बीच में उपस्थित बौद्धिक—जो घरों में बंद थे—ऊबने लगे थे। फ़ेसबुक लाइव, ज़ूम मीटिंग, रेसिपी, डीपी चैलेंज इन सबके बावजूद वे ऊब रहे थे। वे इस ऊबने से भी ऊब रहे थे (वि. कु. शु  की कविता की पंक्ति)। दरअस्ल, उन्हें सुनने वाला वहाँ कोई न था। वे वहशत में दुहाई दे रहे थे—

रब्ब-ए-सुख़न मुझे तिरी यकताई की क़सम
अब कोई सुन के बोलने वाला भी चाहिए

—जव्वाद शैख़

इस ऊब और बेकली के बीच आवाज़ की दुनिया में जो क्रांति शेष रह गई थी, अद्भुत विस्फ़ोट के साथ हुई और बोलियास से भरे हुए लोगों में अपनी दुनिया बनाने की होड़ लग गई। इस नई दुनिया का नाम था—क्लबहाउस! यह किसी कॉफ़ी-हाउस की तरह एक वर्चुअल दुनिया थी—‘रियल टाइम वर्चुअल रूम’ की दुनिया! जहाँ आवाज़ के सहारे किसी से भी बात की जा सकती थी। संभवतः चाँद पर अपनी पसंदीदा तीन किताबें नहीं ले जा पाने का मलाल पाले लोगों ने इसे ढूँढ़ निकाला था। 

जब रवीश कुमार और प्रशांत किशोर के बीच पश्चिम बंगाल चुनाव की बातचीत वायरल हो गई। कुछ इस तरह हजामत की ख़्वाहिश पाले नौसिखियों को उस्तरा मिल गया था और लोग भी। जहाँ बोलने की सदिच्छा से भरे हुए लोगों ने अपनी बालकनी में घास उगाने से बचे समय में साँझ का कोरस छेड़ दिया था, जहाँ कैसेट्स के फँसने की आवाज़ बिल्कुल न थी—बोलने का उद्यम था और सुनने का श्रम।

इसकी टर्मिनोलॉजी कुछ इस तरह थी कि कोई भी एक रूम (रियल टाइम वर्चुअल रूम) क्रिएट कर सकता था—चर्चा-(कु)चर्चा के लिए विषय टाँग सकता था। रूम की भी कैटेगरी थी—ओपन, क्लोज़, सोशल! सबकी अपनी गाइडलाइंस थीं। वहाँ एक या एक से अधिक मॉडरेटर थे। कुछ आमंत्रित स्पीकर और अन्य लिसनर्स! यह एक ऐसा विस्तृत भू-भाग था, जहाँ कोई भी उड़ता हुआ कहीं से आकर सुस्ता सकता था। अपनी प्रतिभा से चकित-चल कर सकता था। पंचायत कर सकता था, प्रवचन दे सकता था और ज्ञान भी।

आसान भाषा में कहें तो क्लबहाउस एक ऐसा परती-परास था, जहाँ मुँह उठाकर अपना तंबू गाड़ने, कहीं भी दरी बिछा सकने और बैनर टाँगने से लेकर अपनी दुनिया के लोगों को वक्ता-श्रोता, संचालक और अध्यक्ष बनाकर विमर्श के लिए आहूत किया जा सकता था—यानी कुछ भी बतिया सकने की पूरी आज़ादी थी।

बहरहाल! इसकी टर्मिनोलॉजी पर और बात की जाए तो इस गद्य का रास्ता कहीं और मुड़ जाएगा। इस रास्ते पर हम चलेंगे, लेकिन आगे की कड़ी में...

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अगली बेला में जारी...

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