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मोना गुलाटी की [अ]कविता

मोना गुलाटी अकविता की प्रतिनिधि कवि हैं। अकविता का मूल तत्त्व असहमति और विरोध से निर्मित हुआ है। असहमति और विरोध अक्सर समानार्थी शब्दों की तरह प्रयुक्त होते हैं, किंतु असहमति और विरोध में एक स्वाभाविक द्वैत है। असहमति अपनों से होती है अथवा उन अवांक्षित स्थितियों से जिनमें अपनों के प्रति सहानुभूति का भाव मौजूद हो, जबकि विरोध अपनत्व भाव से अलग शत्रु या शत्रु-वर्ग के प्रति उत्पन्न होता है। असहमति और विद्रोह दोनों मनःस्थितियों की केंद्रीय भाव-व्यंजना की व्याख्या समकालीन कविता परिदृश्य में स्पष्ट तौर पर अकविता में दृष्टव्य होता है। अकविता ने अपने युग-सत्यों को ठीक वैसे ही अभिव्यंजित किया है, जैसे वे हैं। अकविता के कवियों ने कविता में कोई मायालोक नहीं रचा। यहाँ कोई यूटोपिया नहीं है। यहाँ मनुष्य का व्यक्तित्व आभासी सत्यों से निर्मित नहीं होता। सत्य को बेलौस और उसकी संपूर्णता में कहने की कला अकविता के पास है। अकविता ने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत सत्य को बिना किसी आवरण के अभिव्यक्त किया। बलौस और नग्न सच ही अकविता के लिए प्राथमिक शर्त है। चूँकि यहाँ कोई यूटोपिया या बृहद स्वप्न का अभाव है और एक क़िस्म की अराजकता है, अतः अकविता अपने संयम में नहीं अपने संयोजन में मूर्त होती है। यह उन अंतर्विरोधों का प्रकटन है; जहाँ आत्माभिव्यक्ति के अवसर कम होते हैं, अकविता उन्हीं आत्माभिव्यक्ति की स्पष्ट आवाज़ है। श्याम परमार इसे अंतर्विरोधों की खोज करने वाली कविता कहते हैं, “अकविता अंतर्विरोधों की अन्वेषक कविता है। गोपन भाव की समाप्ति अकविता की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।” अकविता में स्वानुभूतिजन्य कुंठाएँ, नागरिक जीवन की विडंबनाएँ, अर्थाभाव, अतृप्ति, सामाजिक मान्यताओं से मुक्त होने की बेचैनी, उपलब्धियों की शंकाएँ, दमित इच्छाओं, छटपटाहट इत्यादि की अभिव्यक्ति हुई हैं। 

मोना गुलाटी की कविताएँ अंतर्विरोध से भरे आत्माभिव्यक्ति और सामाजिक दोहरेपन की निर्मितियों से सीधे मुठभेड़ से, स्त्री-संवेदना से एवं अंतर-दार्शनिकता के आवरण के साथ उपजती हैं। ये वही त्रिज्या है, जिससे मोना गुलाटी की कविताओं का वृत्त निर्मित होता है। मोना गुलाटी की कविताओं की दार्शनिकता आक्रोश के आंतरिकीकरण से उपजता है। किसी विशिष्ट मान्यता को स्वीकार किए बग़ैर अस्वीकार को ही कविता का लक्ष्य अकवितावादियों ने बनाया। जो एक क़िस्म से अस्तित्ववाद का विस्तार ही साबित हुआ। जीवन अगर अर्थहीन और ऊलजलूल है तो मानवीय सृजनात्मकता के बल पर उसे अर्थ देना कविता का ध्येय होना चाहिए। कथ्य तो कच्चा माल है, उसे ज्यों का त्यों कह देना मुखरता तो है; किंतु उसमें लंबे समय तक टिके रहने की मितव्ययिता का अभाव है। मोना गुलाटी की एक कविता है—‘पुरुष’ : 

प्रत्येक पुरुष मुझे 
बैल नज़र आता है और 
मैं उसे कोल्हू से बाँध 
भाग आई हूँ।

इस कविता को देखें तो अमानवीकरण की समस्या की जटिलता ही सबसे पहले देखने को मिलती है। किसी स्त्री द्वारा किसी पुरुष को बैल के रूप में देखना और फिर उसे एक ऐसी अनवरत बेबसी में छोड़ देना एक अमानवीय स्थिति है। लेकिन यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई यह विचारणीय है। दरअस्ल, यह कविता एक ऐसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उपजी है; जहाँ कथ्य को ज्यों का त्यों रख दिया गया है। अगर इस कविता का सरलीकरण किया जाए तो यह भी एक क़िस्म का यथार्थ से पलायन ही होगा। आदर्शवाद, सचाई और विश्वास इस कविता को समझने में बाधा उत्पन्न करते हैं। दरअस्ल, यह कविता आदमी की स्थिति का बिल्कुल बेलौस और निष्पक्ष चित्रण है। इस कविता में उत्पन्न विचलन स्त्री-पुरुष-संबंधों के बीच घटित सहज मानवीय मूल्य के ह्रास से उत्पन्न हुआ है। स्त्री-पुरुष-संबंधों की अमानवीकरण के बरअक्स यह तीव्र प्रतिक्रिया है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक व्यवस्थापरक अनैतिकता और अमानवीयता को मोना गुलाटी अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करती रहती हैं। यही वजह है कि पुरुष को उसकी स्थिति पर छोड़ दिया गया है। अन्यथा पुरुष तो हरेक स्त्री को वेश्या के रूप में ही देख रहा है। यहाँ ‘विरक्ति’ कविता को देखें : 

कहीं भी जरूरी नहीं है 
किसी तस्वीर का चौखट बनना 
तटीली रेत का मिटा नाम 
मेरा भी हो सकता था 
ऐतिहासिक होने के लिए हर मर्द 
औरत को वेश्या क्यों कहता है 
न चाहने पर भी हर औरत वेश्या क्यों बन जाती है 
चलचित्र कर पर्दे से खिसक जाती हूँ अपने ही हाथों 
तुम जो रोज़ घावों में नमक भर 
समुंदर बनना चाहते हो 
काश जानते कपड़े उतर जाने पर 
हर औरत तुम्हारी माँ भी हो सकती है 

इन दोनों कविताओं की कहन में दो मूलभूत अंतर हैं, एक ओर भाग आने में पलायन से अधिक पुरुष को उसके हाल पर छोड़ देना एक स्वतंत्र स्त्री-चेतना का विकल्प है और दूसरी ओर पुरुष के शोषण के बरअक्स भले ही वह वेश्या हो, कपड़े उतरने के बाद उसकी एकमात्र शिनाख़्त—स्त्री, जो माँ है, के रूप की स्वीकारोक्ति स्त्री-निर्मिति और स्त्री-अस्तित्व के चिंतन के पक्ष में बड़ा कथन है। इस संदर्भ को देखें कि यह सत्तर का दशक है और यहाँ अभी स्त्रियाँ मुख्यधारा में नहीं आई हैं। शोषण का सबसे आसान रूप है स्त्री को वेश्या कह देना, चरित्रहीन क़रार देना और संवेदना की शर्त पर उसके व्यक्तित्व को ही समाप्त कर देना। यहाँ पुरुष भी अपनी ऐतिहासिकता के लिए स्त्री का शोषण कर रहा है। इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़कर भाग आना एक क्रांतिकारी युक्ति है। मोना स्त्री-पुरुष इकाई को जिस द्वंद्वात्मकता में देख रही हैं; उसमें पुरूष शोषक, अत्याचारी, कामलोलुप और कुंठित है; जबकि स्त्री पुरुष की भोग्या भर या भोग्या बना दिए जाने भर है। इस कारण वह अपनी काव्य-निष्कर्ष तक आते-आते प्रतिकार करती हैं। ये स्त्रियाँ या तो भाग जाती हैं अथवा विरक्त हो जाती हैं। 

मोना गुलाटी की कविताओं में इस तरह का बुनियादी आवेग (प्राइमरी पैशन) मौजूद है। किन्तु यह आवेग कुछ बदलता नहीं है। इन कविताओं का प्रतिकार उतना तीक्ष्ण नहीं है। आक्रोश की अभिव्यक्ति तो हो जाती है, पर इस आक्रोश का निष्कर्ष पलायन के रूप में देखने को मिलता है। जिसे मोना गुलाटी एक दार्शनिक आवरण से ढकने की कोशिश करती हैं। इन कविताओं का आवेग ही आगे की स्त्री-कविता का पाथेय बनता है और दार्शनिकता का यह आवरण ही मोना को कविताओं से विरक्त करता है। वे कविता के आवेग के प्रति सजग, सचेत और सतर्क हैं और कई बार अतिबौद्धिक होती हैं। बावजूद इसके सहज और बोधगम्य रूप से महसूस किए हुए को आधुनिक संवेदना का अनिवार्य हिस्सा बनाती हैं। मोना की कविताएँ विचारशीलता और भावनाओं को दो भिन्न विरोधी प्रकार में देखे बग़ैर एक उदात्त निर्मित करती हैं। इन कविताओं का लक्ष्य केवल विचार या भावनाओं का उद्दीपन नहीं है। आक्रोश, ऊब और स्त्री के वस्तुकरण से खिन्न मोना गुलाटी उन प्रतीकों की ओर जाती हैं, जहाँ मानव स्थितियों का निर्वात हो। यह निर्वात स्त्री के केंचुआ, टेपवर्म या काँखता उल्लू हो जाने के रूप में देखा जा सकता है। कविता के वस्तुगत यथार्थ के साथ कवि का संघर्ष संवेदना, शिल्प और भाषा इत्यादि के साथ चलता रहता है। इसी संघर्ष से कविता में तनाव और संघर्ष पैदा होता है, जिसे विकसित करते हुए कविता अपनी संभावित यात्रा तय करती है। मोना गुलाटी की यात्रा अमानवीय स्थिति से अमानवीय स्थिति तक की है। यहाँ यूटोपिया की हत्या नहीं, यूटोपिया का निर्वात है। वह अपनी कविता के लिए कोई यूटोपिया नहीं रचतीं; बल्कि उन अवकाशों को भी ख़त्म कर देती हैं, जहाँ से कविता में किसी भी सुंदरतम के लिए कोई जगह शेष हो : 

मैं 
नहीं चाहती किसी के लिजलिजे अधरों का स्पर्श 
आदिम भूख की आग-हाविश 
अपना होम करना चाहती हूँ 
अपने ही अग्नि-यज्ञ में मैं 
एक अनिर्वचनीय तापिश में भस्म हो 
मज्जा या रक्त या मांसपेशियाँ या हड्डियाँ या 
मस्तिष्क की दरारें या कुंठाएँ। मैं 
नहीं गुज़रना चाहती सपाट मैदानों और 
उफनते समुंदरों और छातियों और धड़ों से। 
स्वयं के लिए समेट लेना चाहती हूँ 
अपना सब कुछ 
अपने ही संभोग के लिए 
आत्मरत होने के लिए 
व्यक्त करने के लिए अपना आक्रोश 
प्रकृति के प्रति 
ईश्वर के प्रति 
आदमी के प्रति
अपने प्रति 
मैं क्यों नहीं हुई किसी अपशु-योनि में 
जहाँ नहीं होती ऊब 
जहाँ नहीं होती संभोग-क्रियाएँ या अटपटे प्रेमालाप 
या 
मुझे होना चाहिए था 
केंचुआ या टेपवर्म या 
रात भर काँखता हुआ उल्लू।

पुरुष और स्त्री की बराबरी या समानता एक मूलभूत अपरिहार्य मानवीय सिद्धांत हैं। पुरुष और स्त्री के बीच का यौन-व्यवहार त्याज्य नहीं, किंतु काम-प्रवृत्ति की चीर-फाड़ में किसी एक को अधिक लिजलिजा और काम-लोलुप और दूसरे को भोग्या के रूप में ही अकविता ने अधिक देखा है। मोना गुलाटी भी अपनी कविता में अकविता के इस खाँचे से निकलने की कोशिश नहीं करती हैं। इन कविताओं में निहित मोहभंग के तत्त्व राजनीतिक स्थितियों के प्रति विवशता, मोहभंग, अनिर्माण और अवसरहीनता से उपजता है। कई बार प्रत्यक्ष और कई बार अप्रत्यक्ष तौर पर अकविता ने इसे दर्ज किया है। पूरी शताब्दी को वेश्या होते देखने के मुहावरे में स्त्री के अस्तित्व के न्यून होने की चिंता से अधिक शताब्दी को चलाने वाली सत्ता और स्थितियों के प्रति क्षोभ का स्वर अधिक महत्वपूर्ण है। जब कुछ भी सही न हो तो विध्वंस और प्रलय से एक उम्मीद बनती है। ऐसा लगता है कि इसके बाद जो एक नई दुनिया बनेगी उसमें कुछ बेहतर होगा, नया होगा, नई मानवीय स्थितियाँ होंगी। लेकिन कई परिवर्तन भी इन्हें बदल नहीं पाते बल्कि उस खाई को और चौड़ा ही करते हैं। ‘गोदान’ के समय में जान की जगह जनार्दन का मुहावरा था और कुछ बदलने की उम्मीद थी, लेकिन अकविता के समय यह उम्मीद इतनी ना-उम्मीद है कि इनमें किसी का नाम तक मौजूद नहीं है। उदाहरण के तौर पर मोना की कविता का अंश देखें : 

विध्वंस और प्रलय की अनवरत प्रतीक्षा में मैंने
सही हैं यंत्रणाएँ 
प्रसव-पीड़ाएँ, भ्रूण-हत्याओं के दुःख। मैंने 
पूरी शताब्दी को वेश्या होते देखा है और देखा है 
नीली वेदनाओं में किसी भी नाम का अंकित 
न होना

मोना गुलाटी की कविताओं की नियति अकेलेपन की नियति नहीं, बल्कि विकृत संबंधों की नियति है। इन विसंगतियों को मोना ने उन मुहावरों में लिया है, जो अपेक्षाकृत बहुत साफ़ और ग़ैर-रोमांटिक है। अक्सर इन कविताओं को पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि बहुत चुके हुए शब्द एक नए अर्थ की प्रतीति को लेकर बेचैन हैं। कविता की भाषा लगभग अनावृत, साफ़ और वास्तविक हैं; जो पाठकों के लिए अपरिचित और कठिनाई का कारक है। सरल और सीधी व्यंजना को भी इतने जटिल रूप से प्रस्तुत किया गया है कि उनमें एक क़िस्म का अतर्क मौजूद है। जिसकी संगति पकड़ने में पाठकों का पसीना छूट जाता है। इसका संबंध न बीट रोमांटिकता या कामू के एब्सर्ड निर्थकता या क्षुधित पीढ़ी से कोई संबंध नहीं है। ये कविताएँ उन वास्तविकताओं को देखने का सिलसिला पैदा करती हैं, जो नई कविता की आरोपित आभा-मंडल को खंडित करती हैं। ये कविताएँ सौंदर्यपरक औपचारिक अभिव्यंजना और शब्दों के रूढ़ मर्यादाओं के प्रति नकारात्मक अहसास है। निराला कथित ‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’ के सर्वाधिक नज़दीक, जहाँ मनःस्थितियों का नंगापन और बौनापन दोनों अभिव्यक्त हुआ है। इन कविताओं में निहित अविश्वास व्यवस्था और विचार के प्रति क्षोभ से उपजा है। इस अविश्वास की गति इतनी तेज़ है कि सिवाय विसंगति के कविता में कुछ और अभिव्यक्त नहीं हो पाता। 

फ़्रायड ने जीवन की दो विरोधी प्रवृत्तियाँ मानी हैं, जिनमें निरंतर संघर्ष चलता आ रहा है। ये दो प्रवृत्तियाँ हैं : अहम् और लिबिडो (libido)। अहम् का संबंध आत्म-रक्षा से है और लिबिडो का काम-वासना से। अहम् यथार्थ सिद्धांत से और लिबिडो आनंद के सिद्धांत से शासित होता है। अहम् सामाजिक बंधन को स्वीकार करता है, जबकि लिबिडो बग़ैर किसी नैतिक बंधन में बँधे स्वप्न संसार में जीता है। मोना गुलाटी की कविताओं में अहम् से अधिक लिबिडो महत्त्वपूर्ण है। परिणामस्वरूप इन कविताओं में यथार्थ के नंगेपन का चित्रण तो मौजूद है, पर लेखक का दायित्वबोध सिरे से ग़ायब है। 

‘सोच को दृष्टि दो’ मोना गुलाटी का दूसरा संग्रह है, जिसमें अकविता के शिल्प से निकलकर कविता की एक नई अर्थवत्ता की तलाश मोना गुलाटी करती हैं। इस संकलन की कविताएँ एक नए धरातल और भावभूमि पर घटित होती हैं; जो अधिक संयत, शांत और सांद्र है। इन कविताओं की राजनीतिक मुखरता अधिक तीव्र और स्पष्ट है। मोना गुलाटी इस संकलन की कविताओं के बारे में लिखती हैं—“कविता संप्रेषण है और संप्रेषण संबंध है : संबंध तादात्म्य है : ऊर्जा है : स्पंदन है : जुड़ाव है, विस्तार है : बार-बार कविताओं में शब्दों से, शैली से भाषा से मेरी मुठभेड़ होती है, इसी संप्रेषण व ऊर्जा के लिए : कविता मंत्र हो : कविता क्रांति हो, कविता सोच हो कविता आह्लाद हो, कविता दृष्टि हो : यही जिजीविषा हमें बार-बार बाह्य और भीतरी सभी तालों पर घुटने टेक-टेक कर प्रार्थनाबद्ध होने के लिए प्रेरित करती है।” इस मंतव्य से गुज़रते हुए लगता है कि अकविता से उत्पन्न हुई असंप्रेषण से कहीं न कहीं मोना गुलाटी भी वाक़िफ़ हैं और इस संकलन में वह इससे निकलने की कोशिश भी करती हैं। इस संग्रह में वह शब्दों की अर्थवत्ता, राजनीतिक स्पष्टता और शब्द जनित आध्यात्मिकता की ओर अधिक झुकी हैं। ‘सोच को दृष्टि दो’ कहीं न कहीं विप्लव के बाद की शांति का एहसास देती काव्य-पुस्तक है। हालाँकि इन कविताओं के मुहावरे भी मोना गुलाटी के अपने हैं। विचारों के प्रति संशय अभी भी वैसे ही मौजूद है, जैसे उनके पहले कविता-संग्रह ‘महाभिनिष्क्रमण’ में। स्त्री-पुरुष-संबंधों के व्याख्या में भी कोई बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है।  

‘मत पूछो नाम’ मोना गुलाटी की कविताओं में विशिष्ट स्थान रखता है। यह अपेक्षाकृत अधिक संयत और तीक्ष्ण है। यह कविता सन् 1984 के दंगे और भोपाल गैस त्रासदी को केंद्र में रखकर लिखी गई है। यह कविता सांप्रदायिकता और व्यवस्था की कलई खोलकर रख देता है। वह न सिर्फ़ देश के महिमामंडन को प्रश्नांकित करती हैं; बल्कि उस सारी हिप्पोक्रेसी की कलई खोलकर रख देती हैं, जिसे इतिहास के अंत तक सत्ता मुँह चुराती रहेगी।

कवि भविष्यद्रष्टा होता है। उसके दामन में उम्मीद के लिए बहुत जगह होती है। आज जब सांप्रदायिक ताक़तें अपने समूचे उभार के साथ हमारे समाज में लगातार ज़हर की फ़सल उगा रही हैं, इसकी पूर्व-पीठिका को मोना गुलाटी इस कविता में संकेतित कर चुकी थीं। मोना गुलाटी की कविताओं में मौजूद ऐंद्रिकता स्त्री की संपूर्णता को उसके स्वतंत्र अस्तित्व में देखता है। यह देखना तभी संभव है, जब स्त्री अपने संपूर्ण अस्तित्व का उत्खनन कर सके। इन कविताओं को देखते हुए प्रतीत होता है कि ये कविताएँ स्त्री-विमर्श की पूर्वपीठिका निर्मित करती हैं : 

तुम सोचना चाहो सोचो
न सोचना चाहो मत सोचो 
हम तुम्हारे सोचने तक रुके नहीं रहेंगे 
हम बहते रहेंगे निरंतर 
जैसे हमें होना है किलकिलाते झरने की तरह

हालाँकि इन कविताओं का पुरुष हरेक कविताओं की ही तरह बहुत लिजलिजा और काम-लोलुप है। एक लंबे अंतराल के बाद मोना गुलाटी की कुछ कविताएँ ‘आजकल’ में प्रकाशित हुईं। इन कविताओं से गुज़रते हुए लगा कि मोना गुलाटी की ये कविताएँ भी उनके मुहावरे में ही विन्यस्त हैं। उन्होंने समय के साथ अपनी कविताओं के शिल्प और उनकी संरचना में कोई रद्दोबदल नहीं किया है। बस उत्तरोतर उनकी कविताओं में दार्शनिक शब्दावली की भरमार होती गई है, किंतु इसकी निष्पत्ति कहीं पहुँचती हुई प्रतीत नहीं होती। 

मोना गुलाटी की कविताओं से गुज़र कर प्रतीत होता है कि ये कविताएँ क्षणानुभूति आक्रोश की कविताएँ हैं, जिनमें बहुत दूर तक अपने समय को अतिक्रमित करने का सामर्थ्य कम है। लघु क्षणों की मनःस्थिति कोई व्यापक बदलाव का पुनर्सृजन नहीं करता। हाँ, मनोगत संकेतों और गुह्य सकेतों का अर्थगर्भ स्पष्टतः अभिव्यक्त ज़रुर करता है। इसमें कथ्य का प्रकाशन हुआ है इसमें कोई विनम्र प्रदर्शन नहीं है। बावजूद इसके मोना गुलाटी की रचनाओं में निहित साफ़गोई, साहस और दार्शनिक शब्दावली की भरमार, एक ऐसे मूर्त अमूर्तन की निर्मिति करती है जिसे बाद की स्त्री-कविता ने अपनी अपनी तरह से लिया। अकविता की इकलौती स्त्री अभिव्यक्ति अपने साहसपूर्ण उपस्थिति से भले ही कई बार उसी मुहावरे में सोच रही है जो कविता का पुरुषवादी मुहावरा है, जिसे कई बार अकविता मान लिया गया। लेकिन इन कविताओं के बड़बोलेपन के बावजूद स्त्री-संवेदना की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है।

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संदर्भ/सहायक-ग्रंथ 

1. श्याम परमार, ‘अकविता और कला संदर्भ’, कृष्णा ब्रदर्स, अजमेर, 1968
2. मोना गुलाटी, ‘महाभिनिष्क्रमण’, अस्ति प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992
3. मोना गुलाटी, ‘सोच को दृष्टि दो’, अस्ति प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995
4. आजकल (जनवरी-फ़रवरी 2020, संयुक्तांक), संपादक : राकेश रेणु

  

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