महाकुंभ : जैसा मैंने देखा
पारस सैनी
06 मार्च 2025

अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं—
“और कोई आए-न-आए लेकिन कुंभ आएगा...
...कुंभ आ रहा है, बल्कि कुंभ आ चुका है।”
जब महाकुंभ का आगमन हो रहा था तब मैंने यह पंक्तियाँ उद्धृत की थी। लेकिन अब महाकुंभ बीत गया तो सवाल है—अब क्या उद्धृत करूँ? अब मेरे पास बताने के लिए सिर्फ़ आँखों देखा हाल है। मेरी दोनों आँखों ने इस महाकुंभ को दो नज़रों से देखा। एक नज़र ने वह महाकुंभ देखा जिसमें मुझे भारत में व्याप्त लोक-संस्कृति का रूप दिखाई दिया, भारतीय विविधता दिखाई दी और इसके साथ-साथ वह ख़ूबसूरती भी दिखाई दी जो मेरे प्रदेश और देश की आंचलिकता में व्याप्त है।
मेरी दूसरी नज़र ने इस महाकुंभ में व्याप्त अव्यवस्था देखी, अपनों को खोने के बाद नम आँखों के साथ रोते हृदयों को देखा। दर्द से कराहते शहर को देखा जो बनावटी मुस्कान लिए मेज़बानी कर रहा था। शहर की सड़कों और परिवहन के ठिकानों पर बेहाल लोग देखे।
इन सबके इतर इसी महाकुंभनगर और प्रयागराज में मुझे अपना इलाहाबाद भी दिखा। वह इलाहाबाद जिसने जात-धर्म को भुलाकर और धर्म के ठेकेदारों द्वारा लगाए गए तमाम आरोपों को गंगा में ही विसर्जित कर महाकुंभ के कठिन समय में लोगों का तह-ए-दिल से इस्तिक़बाल किया और उनका ख़याल रखा। इसी इलाहाबाद के विश्वविद्यालय ने भी अपने कपाट खोले, छात्रावास खोले, छात्रावासियों ने मोर्चा सँभाला। आख़िर सँभालते भी क्यों न—बात अपने इलाहाबाद की थी। उस इलाहाबाद की जो अकबर इलाहाबादी का है, वह अकबर इलाहाबादी जो यह कहता है—
“मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं”
ख़ैर, दूसरे नज़रिए पर बहुत बात हुई है और बहुत होनी बाक़ी भी है। लेकिन मैं बात अपने पहले नज़रिए की करूँगा।
पहला नज़रिया जो मैंने देखा—वह मेरे गाँव का है। मेरे लोक का है और मेरी-हमारी विरासत का है।
गंगा की रेती पर जब क़दमों की आहटें आना शुरू हुईं तो शहर इलाहाबाद ने दिल खोलकर सबका स्वागत किया। सिर पर गठरी लादे हुए मुँह से रामनामी भजन बुदबुदाते हुए अपने धीमे-धीमे क़दमों के साथ कुंभ क्षेत्र की ओर बढ़ती हुई महिलाएँ और लोग...
शायद इसी दृश्य को साधकर कैलाश गौतम लिखते हैं—
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा।
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू।
कल्पवासियों के अलावा, संगम स्नान को आने वाले लोगों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई दी, इन्हें तो थोड़ी ज़्यादा मशक़्क़त करनी पड़ती है क्योंकि स्नान और मेला अपने ज़ोर पर था और खोने का डर रहता है तो कुछ लोग रस्सी की परिधि से घिरे दिखे तो कुछ आपस में बंधे हुए। इसके अलावा भी कुछ ऐसे लोग नज़र आए जो अपने-अपने राम के भरोसे रहे—“हमई लिवाऽ चला मोरे राम”, गाते हुए तेज़ी से आगे बढ़ते रहे।
यह देखना अपने आप में अद्भुत था। इनके राम सांप्रदायिकता की ज़द से घिरे राम नहीं बल्कि आत्मीयता की ज़द से घिरे राम हैं।
महाकुंभ में जो मुझे लोक दिखा वह सिर्फ़ भक्ति तक ही सीमित लोक नहीं था, बल्कि वहाँ के लोक में मुझे व्यंग्य-विनोद भी दिखा। लोक साहित्य में व्यंग्य-विनोद की अपनी एक अलग प्रासंगिकता है। घाट के किनारे फैली पुआल पर बैठकी जमाएँ महिलाएँ, किसी के हाथ ढोलक तो किसी के हाथ मजीरा, तो कोई हाथ पर हाथ मार ताली पीटती व्यंग्य-विनोद भी करती नज़र आईं। वे गातीं—
खो गई खो गई रे ननदियां हमार
कुंभ के मेले में
सास भी ढूंढई ससुऽर ढूंढई
ढूंढई सकल परिवार
अरे ढूंढई थानेक थानेदार
खो गई रे ननदियां हमार
यह सब देखना वाक़ई सोशल मीडिया पर घूमती ‘तारों के शहर’ वाली रील से ज़्यादा ख़ूबसूरत था। इसके अलावा कल्पवासियों के यहाँ तुलसी का लोक ‘रामचरितमानस’ के रूप में आपको देखने को ज़रूर मिल जाता। इसी महाकुंभ में एक तरफ़ जहाँ अडानी समूह मुफ़्त में इस्कॉन संस्था की गीता वितरित कर था, उसी कुंभ में कल्पवासी अपने ही राम और अपने ही कृष्ण में रमे दिखाई दिए। इस पूरे महाकुंभ में मैंने लोक को ख़ासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोक को बहुत क़रीब से देखा और उसे अपने मोबाइल में तो नहीं लेकिन अपनी स्मृतियों में ज़रूर क़ैद किया।
ख़ैर अब त्रिजटा स्नान हो चुका है और सारे कल्पवासी अपने घर की ओर रवाना हो चुके हैं। कल्पवास की कुटिया के बाहर लगाया गया तुलसी का वृक्ष ब्रह्म मूर्हत में किए गए गंगा स्नान के बाद दिए गए अर्घ्य से बढ़ चला है और अब वह गंगा के आँचल से घर के आँगन का सफ़र तय करने जा रहा है। गंगा की गोद से मिट्टी को साड़ी के पल्लू में संगृहीत कर लिया गया है और साल भर के लिए गंगा जल का भी प्रबंध हो चुका है।
अब बस वाहन का इंतज़ार है—उसमें ही समान, पुण्य और महीने भर की तमाम यादों की रवानगी होगी।
कुंभ कोई इवेंट नहीं है बल्कि कुंभ पर्व है। वह पर्व जिसमें संस्कृतियों और न-न प्रकार के ग्रामीण आँचलों का मिलन होता है। वह पर्व जिसमें हमारा लोक-साहित्य उमंगे भरता है।
अम्मा यानी महादेवी वर्मा ठीक ही कहती हैं : कुंभ में लगने वाले कल्पवास के बारे में—“मुझे इस कल्पवास का मोह है, क्योंकि इस थोड़े समय में जीवन का जितना विस्तृत ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है उतना किसी अन्य उपाय से संभव नहीं।”
वाक़ई कुंभ ने हमें बहुत कुछ सिखाया और दिखाया। कुंभ में सिर्फ़ कल्पवासी और अखाड़ों के हिस्से ही ज़मीनें नहीं है बल्कि यहाँ आपके हिस्से की ज़मीन भी है जिसे आप अपनी रुचि के अनुसार खोज सकते हैं।
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