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'आलोचना' सह पाएगी अपनी आलोचना!

राजकमल प्रकाशन समूह की त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ [अंक-77] ने ‘इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता’ शीर्षक से एक विशेषांक गए दिनों प्रकाशित किया। इस अंक पर साहित्य संसार में काफ़ी बातचीत हुई, जिसे फ़ेसबुकिया समाज की संतुष्टि के लिए बहसों का नाम दिया जा सकता है। यह किसी भी विशेषांक का हासिल ही है कि उसके प्रकाशन के पश्चात् उस पर बातचीत हो रही है। फिर वह बातचीत नकारात्मक है या सकारात्मक इससे बहुत विशेष अंतर नहीं आता; क्योंकि एक स्थिर, रुके हुए, स्व-विवादों, व्यक्तिगत कुंठाओं से भरे समकाल में कुछ हिल-डोल होना ही आश्चर्यजनक बात है और यहाँ तो फिर भी कुछ बहसों ने जन्म लिया। 

मैं यहाँ बग़ैर विश्लेषण के कुछ कठोर वाक्य कहना चाहता हूँ, जैसे यह कि इस अंक का संपादकीय बेहद उबाऊ है। इस संपादकीय में अतीत और वर्तमान में उपस्थित मानवीय संकटों का काव्य में दृष्टिगोचर होना—यही मुख्य विषय के तौर पर केंद्र में रहा। इसमें शीतयुद्ध से लेकर नब्बे के दशक की भयावह स्थिति, अमेरिका, सोवियत संघ, पूँजीवाद बनाम समाजवाद, पहली दुनिया बनाम दूसरी दुनिया बनाम तीसरी दुनिया, विभिन्न विमर्श, भाषाई विमर्श, इंटरनेट के समय में सत्ता के द्वारा नवीन उत्तर सत्यों के ख़तरे और एक फ़ाशीवादी समय का राजनीतिक मानवीय संकट, सामाजिक मानवीय संकट और आर्थिक मानवीय संकट कैसा है... इस बात को दिखाते हुए हिंदी-कविता में वह कैसे परिलक्षित होता है, इस बात की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है।

इस संपादकीय का सार कुल मिलाकर यह निकलता है कि संपादक महोदय में हमें वह आचार्य नज़र आने लगता है जो अपने शिष्यों [चयनित कवियों] को ख़ूब ढेर सारी थ्योरी सिखाने के चक्कर में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन तो देता है, पर उसके कुछ शिष्यों को छोड़कर अधिकतम शिष्य परीक्षा-कक्ष में इतने कमज़ोर निकलते हैं कि वे उस थ्योरी के लिए सही तरह से स्केल भी नहीं पकड़ पाते।

मैं यह बिल्कुल भी नहीं कह रहा हूँ कि संपादकीय ख़राब है; बल्कि मैं यह कहना पसंद करूँगा कि इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता के लिए जैसा संपादकीय चाहिए—यह ठीक वैसा ही है, लेकिन संपादक ने जितनी मेहनत संपादकीय में स्व-ज्ञान प्रदर्शन में लगाई, काश! उसकी दस प्रतिशत भी वह कवि-चयन में लगा देते तो इस अंक में सत्तर प्रतिशत कवियों की सौ प्रतिशत कविताएँ ख़राब नहीं होतीं।

संपादक ने इस अंक में चयनित कवियों की कविता के साथ-साथ उनके समक्ष उनके द्वारा अपने समय-समाज और कविता पर कवि-वक्तव्य लिखने की इच्छा प्रकट की। उनसे कुछ प्रश्न पूछे गए मसलन—हिंदी कविता पहले की तुलना में आगे बढ़ी है या ठहरी हुई जान पड़ती है? क्या उन्हें आज की हिंदी-कविता, देश-दुनिया में किसी तरह का संकट दिखाई देता है? और इस संकट का हिंदी-कविता के वर्तमान से क्या रिश्ता है?

इन प्रश्नों के माध्यम से कवि-वक्तव्यों में किस तरह के एकालापी वक्तव्यों की बाढ़ आ सकती है, उससे हम और आप अनभिज्ञ नहीं हैं... और हुआ भी कुछ ऐसा ही। अंक के एक चौथाई से अधिक कवि-वक्तव्य संपादकीय एकालाप रटते हुए मिले, जिनका बिगड़ा हुआ रूप कुछ ऐसा हो सकता है—आज से अधिक भयानक, अधिक फ़ाशीवादी सत्ता का कोई अन्य रूप नहीं रहा, मानव जाति के संकट का एहसास, जैसा आज है वैसा तो कभी नहीं, मानवीय संकटों को बढ़ाने वाला रहा, सारे जवाब संदिग्ध हो गए, कविगण इस सूत्रीकरण से हमेशा सहमत होंगे, हमारे प्रतिरोध की आवाज़ उनके बनाए उत्तर सत्यों के समक्ष शून्य-सी प्रतीत हो रही है... 

एक पाठक के लिए इन कवि-वक्तव्यों को पढ़ना, स्वयं को पीड़ा देने के अलावा और कुछ नहीं है। वह एकालापों के औसतपन से त्रस्त हो जाता है।

विनोद कुमार शुक्ल का कवि-वक्तव्य पढ़ते हुए निराशा होती है और दुख भी कि जब कवि-वक्तव्यों के नाम पर पूरे अंक को लाल करने की कोशिश की जा रही हो, तब उन्हें इस अंक में शामिल नहीं होना चाहिए था। ख़ासकर तब जब उनकी अधिकांश रचनात्मक प्रकृति कभी इस तरह की नहीं रही हो। उनकी ‘आदिवासी! हाँका पड़ा है।’ कविता इस अंक की अच्छी कविताओं में से एक कही जा सकती है।

अब जब आदिवासी कविताओं की बात छिड़ ही गई है तो अंक के आदिवासी कवि चयन पर बात कर लेना ज़रूरी जान पड़ता है। पार्वती तिर्की कवि-वक्तव्य में जितना निखरकर आती हैं, उतना ही कविताओं में निराश करती हैं। उनकी कविताएँ आदिवासी संस्कृति का फ़ोन-कैमरे से लिया गया चित्र भर बनकर रह गई हैं। कवि-वक्तव्य में वह प्रकृति की सुरक्षा और उसे बचाने की बात करती हैं, लेकिन उनकी स्वयं की कविताओं में यह बचाव लगभग अनुपस्थित है। ऐसी स्थितियों में पाठक को यदि निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन की याद आती है तो कोई आश्चर्य नहीं, जिनमें आदिवासी अस्तित्व के ख़तरों को लेकर एक व्यापक और गहन ज़िम्मेदारी का भाव है। 

इस अंक का सबसे कमज़ोर और लगभग ढहा हुआ हिस्सा इसका स्त्री-चयन है। सपना भट्ट की प्रेम-कविताओं और शुभा की प्रतिरोध-कविताओं को छोड़कर किसी भी स्त्री कवि की कोई भी कविता प्रभाव नहीं छोड़ती। स्त्री कवि-वक्तव्यों का तो हाल ही न पूछिए! वे तो बस एक खानापूर्ति भर हैं। जमुना बीनी की कविताएँ इसका अन्यतम उदाहरण हैं। 

संपादकीय पढ़ते हुए या कवि-चयन देखते हुए एकबारगी भ्रम हो सकता है कि संपादक संकट की प्रतिक्रिया के नाम पर पूरे अंक को लाल रँगना चाहते हैं, पर इसी भ्रम को दूर करने के लिए वह संपादकीय में एक जगह सफ़ाई देते हुए दिखाई देते हैं—“कविता हमेशा किसी संकट की प्रतिक्रिया हो, यह क्यों ज़रूरी हो! वह जीवन के उल्लास और सौंदर्य की भी अभिव्यक्ति हो सकती है...’’ 

चलिए संपादक महोदय उल्लास को स्वीकार कर रहे हैं, यही क्या कम बड़ी बात है! अब वह इस अंक में उसे लाना चाहते थे या नहीं, यह तो बाद की बात है; पर यह सुखद है कि जहाँ सब लाल हैं, वहाँ सपना भट्ट गुलाबी हैं। उनका गुलाबी होना आवश्यक था और प्रभावी भी।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं कि अंक के सभी कवि-चयन अनुचित हैं। इस अंक को इसके प्रतिरोधी स्वर के लिए जाना जाए या न जाना जाए, इससे कोई विशेष फ़र्क़ नहीं पड़ता, पर इतना तय है कि यह अंक अपने दलित प्रतिरोधी स्वरों [मोहन मुक्त, विहाग वैभव और पराग पावन] के चयन, उनके कवि-वक्तव्य और काव्य के लिए अवश्य ही याद किया जाएगा। इनके कवि-वक्तव्य और कविताएँ दोनों ही एक अत्यावश्यक प्रश्नों को खड़ा करती हैं। 

कुछ अन्य कवि-वक्तव्यों में रवि प्रकाश और फ़रीद ख़ाँ के कवि-वक्तव्य हिंदी कविताओं की ग़ैरज़रूरी बातों की ओर रेखांकित करते हैं तथा वह और बेहतर कैसे हो सकती है, और अग्रगामी कैसे हो सकती है... इस पर बात करते-रखते हैं। 

मृत्युंजय का कवि-वक्तव्य पढ़ते हुए कहने का मन करता है : यह फ़िलहाल आपकी निजी राय है! 

हिंदी काव्य में जो कुछ भी घटे या जुड़े; उससे उसके काव्य-विषयों में अब कुछ भी नया नहीं जुड़ेगा या वह मुख्य विषय के तौर पर पहचान नहीं बना पाएगा, बल्कि वह किसी मुख्य विषय के इकाई के तौर पर कार्य करता हुआ दिखाई देगा। जब मैं हिंदी काव्य के मुख्य विषयों की बात कर रहा हूँ; तब उनका उल्लेख करना ज़रूरी है कि हिंदी अब प्रेम, वियोग, अवसाद, सत्ता-प्रतिरोध, विमर्श, लोक और प्रकृति को छोड़ कोई अन्य मुख्य विषय नहीं बना पा रही और उसकी संभावना भी नहीं दिखाई देती।

रवि प्रकाश और मृत्युंजय की कविताएँ जहाँ सुगठित और पढ़ने-योग्य हैं, वहीं फ़रीद ख़ाँ की कविताएँ प्रतिरोध के विषयों का अच्छा चयन करने के बावजूद प्रभावशाली नहीं हैं।

कल्लोल चक्रवर्ती और मदन कश्यप के कवि-वक्तव्य और कविताएँ अपने भीतर कच्चेपन का इतना समाहार किए हुए हैं कि उन्हें पढ़ लिया जाए यही उनकी उपलब्धि है। अब प्रश्न उठेगा कि कच्चेपन का समाहार तो मोहन मुक्त की कविताओं में भी है, पर उनका काव्य-विषय इतना विस्तृत, रोचक और परिवर्तनकारी है कि पाठक को उस कच्चेपन का आभास ही नहीं होने पाता; और यहाँ उसका उल्टा है, इतना कच्चा है सब कि कच्चेपन के आगे बाक़ी सब धुँधला हो जाता है। 

कमलजीत चौधरी का कवि-वक्तव्य और काव्य दोनों पठनीय हैं। उनकी कविताओं में दुख का सामाजीकरण और आक्रोश का व्यक्तिकरण दोनों का सम्मिश्रण इतना बारीक घुसा हुआ है कि वह पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ जाता है।

इक्कीसवीं सदी का कोई भी कविता-विशेषांक देवी प्रसाद मिश्र के बिना संभव नहीं, फिर भी पता नहीं कुछ अत्यंत हल्के लोग कैसे अत्यंत भारी-भरकम कविता-विशेषांक देवी प्रसाद मिश्र के बग़ैर संभव कर लेते हैं! एक ऐसा कवि जिसे सदी के बड़े से बड़े संकटों को एक समुचित प्रतिरोधी उत्तर देने के लिए जाना जाता है। उसके बिना कोई समकालीन हिंदी कविता अंक संपूर्ण कैसे होगा! यह सर्वविदित है कि देवी प्रसाद मिश्र का रचना-संसार सदी के सभी संकटों की सदा से शनाख़्त करता रहा है और उसमें सेंध लगा नए मार्गों का निर्माण भी करता रहा है।

इस अंक को भविष्य में कैसे याद किया जाएगा? यह अभी कहना मुश्किल है, पर इतना तय है कि इस अंक को जितना अधिक इसके दलित कवियों के चयन की सफलता के लिए, सपना भट्ट के गुलाबी होने और देवी प्रसाद द्वारा निरीहता को एक नया आकार देने के लिए याद किया जाएगा; उतना ही अधिक इस अंक को कविता-विशेषांक कम और निरा कवि-वक्तव्यों का अंक बनाने के लिए भी याद किया जाएगा।

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