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लोग क्यों पढ़ते हैं अंबेडकर को?

यह सन् 2000 की बात है। मैं साकेत कॉलेज, अयोध्या में स्नातक द्वितीय वर्ष का छात्र था। कॉलेज के बग़ल में ही रानोपाली रेलवे क्रॉसिंग के पास चाय की एक दुकान पर कुछ छात्र ‘क़स्बाई अंदाज़’ में आरक्षण को लेकर ज़ोर-ज़ोर से बात कर रहे थे। उसमें दो गुट थे—एक पक्ष में, एक विपक्ष में। काफ़ी देर के बाद उसमें सबसे कम उम्र के एक छात्र ने दूसरे अन्य छात्रों से पूछा कि क्या आपने अंबेडकर को पढ़ा है? दूसरे गुट के छात्रों ने एक उच्च दर्जे की ईमानदारी दिखाई और कहा कि हमने डॉ. भीमराव अंबेडकर को पढ़ा तो नहीं है, लेकिन उनके बारे में जानते हैं। मैं भी वहीं खड़ा था। पढ़ा तो मैंने भी नहीं था। 

अगले दिन मैंने कॉलेज़ की लाइब्रेरी से बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की एक जीवनी इश्यू करवा ली। साकेत कॉलेज जितनी बड़ी लाइब्रेरी मैंने तब के 19 साल के जीवन में पहली बार देखी थी। कॉलेज के परिचय-पत्र पर चार किताबें आप पूरे एक सत्र के लिए इश्यू करवा सकते थे। तो उस जीवनी को मैंने पढ़ डाला। यह वसंत मून के द्वारा लिखी गई जीवनी थी। पढ़ते हुए एक जगह जाकर लगा कि मैं भोंकार काढ़ के कहीं रो न पड़ूँ। 

वास्तव में, सबसे पहले डॉ. अंबेडकर के जीवन के उस प्रसंग ने मुझे बहुत उद्वेलित किया जब मैंने पढ़ा कि उनके पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हुआ करते थे और वह लंदन की एक लाइब्रेरी में बैठकर किताबों से नोट लिया करते थे। बहुत बाद में, एक दशक बाद जब मैंने गेल ओम्वेट द्वारा लिखी जीवनी ‘अंबेडकर : प्रबुद्ध भारत की ओर’ पढ़ी थी, फिर वैसा ही लगा। मेरे कई दोस्तों ने भी इस बात को मुझसे साझा किया कि डॉ. अंबेडकर का विद्यार्थी रूप उन्हें बहुत आकर्षित करता है। वह एक शानदार, स्पष्ट उद्देश्यों वाले विद्यार्थी के रूप में प्रेरणा देते हैं। 

लेकिन ‘नैतिक शिक्षा के देश भारत’ में ऐसी कहानियाँ तो हर तरफ़ मिल जाती हैं। यहाँ एक से एक प्रतिभाशाली लोग हुए हैं। डॉ. अंबेडकर का जीवन इससे आगे की कहानी है, जहाँ एक व्यक्ति अपनी कठोर मेहनत, ऊँचे दर्जे की तार्किकता और करुणा से दूसरों के जीवन में उजाला भर देता है। लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से एम.एससी., इकोनॉमिक्स की डिग्री लेकर लौटे अंबेडकर को जब सिडेनहम कॉलेज में नौकरी मिली तो उनकी आर्थिक दिक़्क़तें कम हुईं, लेकिन समाप्त नहीं हुईं। वह दिन भर कॉलेज में पढ़ाते, शाम को पढ़ते... पूरा घर शांत रहता। उनकी पत्नी रमाबाई को पता रहता कि डॉ. अंबेडकर कुछ बड़े उद्देश्य के लिए यह जीवन जी रहे हैं। 

डॉ. अंबेडकर के नवीनतम जीवनीकार अशोक गोपाल लिखते हैं कि ‘संन्यासियों जैसे इस जीवन से उन्हें बाहर की परिस्थितियों ने बाहर खींच लिया’ (2023, अ पार्ट अपार्ट : द लाइफ़ एंड थॉट ऑफ़ बी.आर. अंबेडकर, नवयान, पृष्ठ 176)। हुआ यह था कि उसी समय लॉर्ड साउथबरो की अध्यक्षता में एक समिति संवैधानिक सुधारों की प्रगति जानने के लिए भारत देश के विभिन्न तबइक़ों से मिल रही थी। उन्होंने इस समिति के सामने अपना प्रतिवेदन रखा और कहा कि भारत के अस्पृश्य कैसे अलग हैं, उनकी समस्या कैसे अन्य भारतीय समुदायों से अलग है; जबकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा इसे अखंड इकाई मानती थी। जैसा कि इसके बाद भारत देश में ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किए गए राजनीतिक सुधार दिखाते हैं, डॉ. अंबेडकर की इस माँग को दबाया नहीं जा सका। 1932 में भले ही महात्मा गांधी को सफलता मिली कि डॉ. अंबेडकर अपनी इस माँग से पीछे हट गए, लेकिन इसने भारत के अस्पृश्य जनों की समस्या को व्यापक विचार-विमर्श का हिस्सा बनाया। कांग्रेस को अपनी मौखिक सेवा वाली राजनीति बदलनी पड़ी और 1935 के भारत शासन अधिनियम में ‘अनुसूचित जाति’ की एक नई श्रेणी जोड़ी गई। अगर आप एकरैखिक दिशा में सोचते चले जाएँ तो पाएँगे कि डॉ अंबेडकर के प्रयासों से अनुसूचित जाति मे शामिल सैकड़ों समुदायों को आरक्षण का अधिकार मिला। फिर भी, बात इतनी ही नहीं है। डॉ अंबेडकर ने एक बार कहा भी था कि मनुष्य को केवल रोटी ही नहीं बल्कि गरिमा भी चाहिए। डॉ अंबेडकर की भौतिक और वैचारिक उपस्थिति ने भारत के करोड़ों लोगों को उनके अपने आत्मसम्मान के लिए आवाज़ उठाना सिखाया। 

भारत पहले बातों का देश था। लोग बहुत बात करते हैं। प्रिंटिंग प्रेस के आने के बाद भारत किताबों का देश बना। बात-बात पर किताब है। धरती-आसमान सब पर किताब है। धर्मग्रंथ हैं, साहित्य है, चिकित्सा और सौंदर्यशास्त्र पर किताबें हैं; लेकिन दिक़्क़त यह रही है कि ‘हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं’—इस बात को प्रामाणिक तरीक़े से कहने वाली कोई किताब नहीं है जो यह बताए कि सभी मनुष्य हैं, इसलिए बराबर हैं। इससे भारत में जाति-प्रथा, अस्पृश्यता, हिंसा और बहिष्करण को बढ़ावा मिलता रहा है। 26 जनवरी, 1950 में जब ‘भारत का संविधान’ नामक किताब आई तो उसने भारत के निवासियों का जीवन समानता के आधार पर अनुशासित करने का प्रयास किया और स्पष्ट भाषा में कहा कि एक नागरिक के रूप में सभी बराबर हैं। वे लोग जो पीछे छूट गए हैं, उन्हें आगे लाने के लिए सरकार क़दम उठाए। 

इस दिशा में भारत को प्रेरित करने के लिए जिस एक आदमी की महनीय भूमिका थी, वह डॉ. अंबेडकर थे। आप सबको पता होगा कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत की संविधान सभा में 'लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव' प्रस्तुत किया था। इन्हें उद्देश्य प्रस्ताव भी कहते हैं। इसका आशय यह था कि इन्हीं सिद्धांतों पर चलकर भारत का संविधान निर्मित होगा। इस प्रस्ताव में आठ बिंदु थे : भारत एक पूर्ण स्वतंत्र गणतंत्र होगा; प्रदेशों का एक संघ होगा; प्रदेश स्वाधीन इकाई होंगे; सारी शक्ति और सत्ता जनता से प्राप्त होगी; राजकीय नियमों और साधारण सदाचार के अनुकूल सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, समानता का अधिकार, विचार प्रकट करने, विश्वास, धर्म एवं ईश्वरोपसना, काम-धंधे, संघ बनाने और काम करने की स्वतंत्रता होगी; जल, थल, नभ पर अधिकार होगा; यह प्राचीन देश संसार में अपना योग्य और सम्मानित स्थान प्राप्त करेगा। इस समय एक लंबा भाषण देते हुए नेहरू ने यह भी कहा कि वह शक्तिशाली अतीत और उससे भी शक्तिशाली भविष्य के बीच वर्तमान की तलवार की धार पर खड़े होकर भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘राजकीय नियमों और साधारण सदाचार के अनुकूल’ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, समानता का अधिकार, विचार प्रकट करने, विश्वास, धर्म और ईश्वरोपसना, काम-धंधे, संघ बनाने और काम करने की स्वतंत्रता होगी। इस बात पर डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा को न केवल टोका बल्कि चेताया भी। इस अवसर पर उन्होंने कहा : 

“पंडित जवाहरलाल नेहरू एक समाजवादी की इस हैसियत से मशहूर हैं, परंतु मैं अवश्य यह स्वीकार करूँगा कि मुझे इससे बड़ी निराशा हुई... प्रस्ताव को पढ़ने से वह घोषणा याद आ जाती है जिसे फ़्रांस की विधान-परिषद ने मानव अधिकार घोषणा के नाम से घोषित किया था। ...इन बातों को दुहराना, जैसा कि प्रस्ताव में किया गया, केवल पांडित्य-प्रदर्शन करना है।’’

उन्होंने आगे कहा कि “उन्हें इस प्रस्ताव में और भी कई त्रुटियाँ दिखती हैं। अंबेडकर ने कहा कि प्रस्ताव के इस भाग में यद्यपि अधिकारों की चर्चा तो की गई है, लेकिन उनकी सुरक्षा का कोई उपचार नहीं दिया गया है। अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है यदि उनकी रक्षा की व्यवस्था न हो, ताकि अधिकारों पर जब कुठाराघात हो तो लोग उनका बचाव कर सकें। ऐसे उपचारों का इस प्रस्ताव में बिल्कुल अभाव है।’’

आप ध्यान दीजिए कि डॉ. अंबेडकर मूलाधिकारों की रक्षा के लिए कितना चिंतित थे। बाद में न्यायालयों में मूलाधिकार और उसके विस्तार के संरक्षण में यह तर्क काम करता रहा है। आज भी कमज़ोर से कमज़ोर फ़रियादी उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में इस तर्क के साथ आता है और उसे विश्वास रहता है कि उसकी बात सुन ली जाएगी। डॉ. अंबेडकर की इस बात को देशवासी अब पहले से ज़्यादा समझते हैं। इसलिए उन्हें ठीक से पढ़ा जा रहा है। उन पर आई किताबें अब उपेक्षित नहीं रह जाती हैं। 

मैं साकेत कॉलेज, अयोध्या के छात्रों की उस बातचीत को आज दुबारा याद कर रहा हूँ तो उसमें कई छात्र कह रहे थे कि ‘डॉ. अंबेडकर ने ही’ भारत का संविधान नहीं बनाया था। कुछ तो उन्हें ख़ारिज भी कर रहे थे। अब भी कभी-कभी ऐसी बातें सोशल मीडिया पर लोग ध्यानाकर्षण के लिए करते हैं, लेकिन वे उस दौर की छुअन से अंजान रहते हैं; जब भारत का संविधान बनाया जा रहा था। मैंने संविधान सभा की पूरी बहसें कई बार पढ़ी हैं और कहीं भी नहीं पाया है कि उनके साथियों ने उनके ख़िलाफ़ कुछ कहा हो सिवाय नज़ीरुद्दीन अहमद के, वह भी श्री अहमद डॉ. अंबेडकर की कार्यप्रणाली से नाख़ुश रहते थे—सार्वजनिक तौर पर। डॉ. अंबेडकर ने उनका जवाब भी दिया था। 

25 नवम्बर 1949 को उन्होंने एक विधिशास्त्री के रूप में भारत के संविधान और देश के मुस्तक़बिल ज़रूरी टिप्पणी भी की थी। उसे सबको पढ़ना चाहिए। उन्होंने कहा : 

“संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा के अतिरिक्त मैं किसी अन्य महानतर आकांक्षा को लेकर नहीं आया था। मुझे स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया कि मुझे बड़े-बड़े प्रकार्यों को हाथ में लेने के लिए आमंत्रित किया गया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। और जब मुझे मसौदा समिति का सभापति चुना गया तो मुझे और भी अधिक आश्चर्य हुआ।”

इस अवसर पर उन्होंने अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर, संविधान सभा के परामर्शदाता बी. एन. राउ, संविधान के मसौदा लेखक एस. एन. मुखर्जी को धन्यवाद दिया। उन्होंने इस दिन एच. वी. कामथ, पी. एस. देशमुख, आर. के. सिधवा, शिब्बनलाल सक्सेना, ठाकुरदास भार्गव, के. टी. शाह और एच. एन. कुंजरु का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए विशेष तौर पर कहा कि उन्होंने अध्यक्ष की हैसियत से केवल पारिभाषिक आधार पर ही मसौदा समिति के संशोधन रोकने के प्रयास को हतोत्साहित किया और ‘विधिवाद की संविधान निर्माण पर विजय’ नहीं होने दी।

इन बातों को केवल आधुनिक भारत के उस धन्यवाद ज्ञापन के शिल्प से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए जो भारतीय जनों ने ब्रिटिश जनों से औपचारिक रूप से सीखा था, बल्कि इसे एक राजनेता का अपने समकालीन राजनेताओं के विचार के प्रति सम्मान भाव के रूप में देखा जाना चाहिए। डॉ. अंबेडकर कांग्रेस से कभी नहीं जुड़े थे, लेकिन संविधान सभा में स्थित कांग्रेसी सदस्य उनका बहुत आदर करते थे। कोई चाहे तो नवंबर 1949 की कार्यवाहियों को देख सकता है। 

संविधान सभा के बिल्कुल आरंभ में यह सम्मान डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू को मिलता दिखाई देता है, जहाँ पर एक व्यक्ति ने अपना जीवन ब्रिटिश जेलों में और जनता के बीच गुज़ारा था तो दूसरा उम्र, ज्ञान और अनुभव में काफ़ी श्रेष्ठ था। अंबेडकर ने पूरी संविधान सभा का तो हृदय ही जीत लिया था। इधर हाल के वर्षों में अंबेडकर के समकालीनों को उनका दुश्मन बताकर एक घृणा का वातावरण बनाया जाता है। इसको रोकने के लिए ज़रूरी है कि ये बातें नई पीढ़ी को बताई जानी चाहिए।

अपने सार्वजनिक जीवन के आरंभ से डॉ. अंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक ताक़त ही अस्पृश्य जनों को बेहतर भविष्य का वादा कर सकती है। इसमें वे सफल होते दीख भी पड़े, लेकिन इसी बीच उन्होंने देश के सभी निवासियों के लिए और ख़ासतौर पर अस्पृश्य जनों के लिए यह महसूस भी किया कि केवल राजनीति ही सब कुछ नहीं बदल सकती है। उन्होंने उस दिन संविधान सभा में कहा कि केवल राजनैतिक लोकतंत्र से ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अपने राजनैतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र से उनका आशय जीवन के उस मार्ग से था जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांत के रूप में मानता हो। संविधान सभा की बहसों में शुरू से लेकर अंत तक कई सदस्यों ने आर्थिक असमानता की बात की थी। वे आर्थिक लोकतंत्र की भी बात कर रहे थे, लेकिन डॉ. अंबेडकर ने इसे वेधक और स्पष्ट स्वर में कहा : 

“आर्थिक स्तर पर हमारा समाज ऐसा समाज है जिसमे कुछ लोगों के पास अतुल संपत्ति है और कुछ ऐसे हैं जो निरी निर्धनता में जीवन बिता रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनैतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमानता का। राजनीति में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिद्धांत को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धांत का हम खंडन करते रहेंगे।... हमें इस विरोधाभास को जितनी जल्दी हो सके, मिटा देना चाहिए अन्यथा जो असमानता से पीड़ित हैं, वे लोग इस राजनैतिक लोकतंत्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे जिसका निर्माण इस सभा ने इतने परिश्रम के साथ किया है।”

इन सब बातों को पढ़ते हुए आपने देखा होगा कि एक ऐसा बालक जिसे बैलगाड़ी से इसलिए उतार दिया गया कि वह अस्पृश्य है, उसे उसके सहयोगी तब भी स्वीकार नहीं कर रहे थे जब उसके पास दुनिया की सबसे शानदार डिग्रियाँ थीं, उसे तब एक शहर में रहने के लिए जगह नहीं मिली जब देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी—तब भी उसका मन करुणा, न्याय, समता, बंधुता और मैत्री से भरा हुआ था। 

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन में सभ्यतामूलक नायक का दुर्दमनीय आकर्षण है। वे किसी बोधिसत्त्व की तरह नदी के इस किनारे पर खड़े हैं और सबको बेहतर भविष्य की तरफ़ इंगित करते रहते हैं कि तुम इधर जाओ—यही सबके कल्याण का रास्ता है।

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