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व्यंग्य : अश्लील है समय! समय है अश्लील!

कुछ रोज़ पूर्व एक सज्जन व्यक्ति को मैंने कहते सुना, “रणवीर अल्लाहबादिया और समय रैना अश्लील हैं, क्योंकि वे दोनों अगम्यगमन (इन्सेस्ट) अथवा कौटुंबिक व्यभिचार पर मज़ाक़ करते हैं।” यह कहने वाले व्यक्ति काफ़ी पारिवारिक और धार्मिक इंसान हैं। हाँ, लेकिन जब बीवी उनकी बात नहीं सुनती, तो उसको पीट देते हैं—इसे वह अश्लील या ग़लत नहीं मानते।

हमारे देश की धरोहर हमारी भाषा और उसकी शुद्धता है। सदियों से हमने इसे शुद्ध रखा है, लेकिन आजकल के नशेड़ी-बिगड़ैल नौजवान भाषा की शुद्धता को नष्ट कर रहे हैं। “(ये सब) **ड़ी वाले हैं, इन्हें फाँसी दे देनी चाहिए, ताकि आने वाली आठ पुश्तें ऐसी बातें न करें।” एक अन्य सज्जन ने तो दोनों को मारने तक की बात कही। बात सही भी है कि लोकाचार में कई बार कुछ अनैतिक कह देना अश्लील माना जाता है, पर किसी को मार देने की बात कह देना अश्लीलता नहीं है!

मेरा एक मित्र सोशल मीडिया पर लोगों को अश्लीलता पर झगड़ते देख तंग आ गया। उसका कहना था, “एक आदमी ने एक भद्दा मज़ाक़ किया और माफ़ी माँग ली”, अब लोग भूल क्यों नहीं जाते। मुझे इस बात से इतिहासकारों के कूल गैंग के सरदार युवाल नोआ हरारी की एक बात याद आई, “सूचना नेटवर्क इतना जटिल हो गया है, और यह इस हद तक अस्पष्ट एल्गोरिथम निर्णयों और अंतर-कंप्यूटर संस्थाओं पर निर्भर करता है कि मनुष्य के लिए सबसे बुनियादी राजनीतिक प्रश्न का उत्तर देना भी बहुत कठिन हो गया है : हम एक-दूसरे से क्यों लड़ रहे हैं?” किसी को नहीं पता की कोई इतना क्यों चर्चा में है? कुछ तो डर के मारे अपनी वीडियोज़ डिलीट कर दे रहे हैं।

युवाल नोआ हरारी पर बात कभी और की जाएगी।

अभी मुख्य मुद्दे पर आते हैं। लोगों का मानना है कि समय रैना जैसे लोगों को देखकर बच्चे बिगड़ जाएँगे, क्योंकि उन्हें युवा बहुत पसंद करते हैं। वैसे, पुराने लोगों को यह लगना कि नए लड़के-लड़कियाँ किसी चीज़ से बिगड़ जाएँगे या उनके लिए कोई चीज़ अश्लील है—यह कोई नई बात नहीं है। यह बात बहुत पुरानी है और सदियों से चली आ रही है। पर चूँकि इतिहास नेहरू जी की कमियों से शुरू होता है, इसलिए उनकी बात करना ज़रूरी है—क्योंकि इतिहास साक्षी है कि हर बार उनकी ग़लती होती है।

नेहरू जी को भी ऐसा ही लगा था—“बच्चे बिगड़ जाएँगे”, जब डी. एच. लॉरेंस (यह लॉरेंस बिश्नोई के प्राथमिक और साहित्यिक सदस्य हो सकते हैं) की किताब ‘लेडी चैटरलीज़ लवर’ आई और इसे पढ़कर उन्हें लगा कि इसे बैन कर देना चाहिए।

‘लेडी चैटरलीज़ लवर’ कई देशों में अश्लील करार दी गई, क्योंकि यह एक उच्च वर्ग की शादीशुदा स्त्री के विवाहेतर संबंधों को एक मज़दूर वर्ग के पुरुष के साथ खुलकर दर्शाती है। इस किताब पर आरोप था कि यह स्त्री के निजी अंगों और कामुक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन करती है।

उस समय जब यह किताब आई, तब इसने सामाजिक नैतिकता और क़ानून की सीमाओं को पार किया था। उस समय भी लॉरेंस भाई ने वही दहशत मचाई जो आज मचा रखी है। पर आज के दौर में जब हम इस किताब को पढ़ते हैं, तो यह आम लगती है, क्योंकि इससे अधिक अश्लील किताबें बाज़ार में मौजूद हैं। 

बहरहाल, हिंदी के कई पाठक आज भी इसे ‘फूहड़’ मान सकते हैं, क्योंकि हिंदी पाठकों का एक तबक़ा फूफात्मक शैली में बैठता है जो बस एक किताब पढ़कर सारे साहित्य की आलोचना का अविस्मय हुनर रखता है। वहीं उन पाठकों को “लोकप्रिय संस्कृति में भाभियों और बाक़ी औरतों के बारे में कामुक बातें और गाने अश्लील नहीं लगेंगे—जो औरत को वस्तु के रूप में दर्शाते और उसके अंगों को अनेक वस्तुओं की उपमाओं से तोलते हैं।”

वैसे क्या अश्लील है और क्या नहीं? यह एक पेचीदा सवाल है और इसे निष्पक्ष रूप से समझना मुश्किल है। यह काफ़ी व्यक्तिगत धारणाओं पर निर्भर करता है, क्योंकि मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जो लोग ‘लेडी चैटरलीज़ लवर’ को अश्लील मानते हैं, वे मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ़्रायड को अश्लील क्यों नहीं मानते? उसने माँ-बेटे और पिता-पुत्री के रिश्तों को देखने के नज़रिए पर जो सेंध लगाई, वह क्या बहुत ही असहज और आपत्तिजनक नहीं मानी जानी चाहिए?

हमारे लॉरेंस भाई की दूसरी किताब ‘संस एंड लवर्स’, जो कि भारत में अँग्रेज़ी साहित्य के स्नातक-पाठ्यक्रम का भी हिस्सा है, ओडिपस कॉम्प्लेक्स (Oedipus complex) पर आधारित विश्लेषण से प्रभावित है। क्या ओडिपस कॉम्प्लेक्स जैसे विचार काफ़ी अश्लील नहीं हैं? लेकिन फ़्रायड को अकादमिक तरीक़े से चुनौती दी गई, उसे अश्लील घोषित नहीं किया गया (सो सैड!)। हाँ, थोड़े-बहुत बैन लगे, पर उसने सह लिए।

मेरी फ़्रायड से कोई निजी दुश्मनी नहीं है (है! मैं झूठ बहुत बोलता हूँ, वह विश्वविद्यालयों में बहुत प्रसिद्ध था, मैं नहीं), मेरा उसे अश्लील कहने से तात्पर्य हमारी नैतिकता के दायरे को समझना है। अब देखो, स्वर्गीय श्री सुधीर कक्कड़—भारत के एक शीर्ष मनोविश्लेषक—ने जब भारत का साइकोएनालिसिस किया, तो कई अवधारणाएँ गढ़ीं; जिनमें यौनिकता एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व था, जो कि मनोविश्लेषण की एक महत्त्वपूर्ण तकनीक है। उन्होंने अपने लेखन में देवर-भाभी को लेकर प्रचलित मज़ाक़ और भाभी के परिवार और समाज में समझ और पहचान से जुड़ी कई बातें कीं। उन्होंने गांधी से लेकर कई सांस्कृतिक चीज़ों को यौनिकता के नज़रिए से समझाया। कई ऐसी भी, जो आम लोगों को अश्लील लग सकती हैं। ये ऐसे विषय हैं, जिन पर कोई भी नाक सड़ा सकता है। पर चूँकि ये बातें एकेडेमिया में हुईं, और पढ़ता कौन है भाई...

मैंने सुधीर कक्कड़ को पढ़ा इसलिए मैंने उन्हें व्हाट्सएप पर ब्लॉक कर दिया। ऐसे कैसे लिख सकते हैं!

क्यों साहित्य में फ़्रायडीयन विश्लेषण मौजूद रहा? क्या साहित्य पढ़ने-लिखने वाले सारे अश्लील नहीं हैं? मुझे लगता है सारे-के-सारे हैं। हर साहित्यकार अश्लील है। 

“ये सब हमको मिलकर बेवक़ूफ़ बना रहे हैं…” 

ज़रथुस्त्र धर्म की एक बहुत पुरानी प्रथा, ज़्वेदोदाह विवाह (हालाँकि अब यह प्रथा अस्तित्व में नहीं है)—कौटुंबिक विवाह को अनुमति देती थी। कहा जाता है कि कई धर्मों में कजिन से शादी इसी प्रथा के कारण जारी रही। इसके बारे में जब विश्वविद्यालय में छात्रों को मैंने सहज रूप से बात करते सुना तो मेरा ख़ून खौल गया। जब मैंने उनको कहा, यू आर अंडर अरेस्ट तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और जवाब दिया, “यह प्रथा कितनी अनैतिक और व्यभिचारी मालूम होती है, पर उस समय और स्थान के लोगों के लिए यह व्यभिचार नहीं थी। यह दर्शाता है कि अश्लीलता और नैतिकता—विशेष रूप से कला के संदर्भ में—लोकप्रिय विचारों और सत्ता (शक्ति) से बहुत प्रभावित होती है।”

मैंने पाँच रुपए की रिश्वत लेकर उनको जाने दिया। मुझे माफ़ कर दीजिएगा। 

विश्वविद्यालयों में शोध के दौरान लोग क्या बकलोली करते हैं, इससे समाज को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। (फ़र्क़ पड़ना चाहिए क्योंकि वहाँ पढ़ाई नहीं होती वहाँ सब छोरी पटाता है—विश्वद्यालय बंद हो जाने चाहिए) फ़र्क़ केवल उस अश्लीलता से पड़ता है जो कला और समाज से संदर्भित हो—किसी मंच पर गढ़ी गई हो या फिर किसी राजनीतिक या धार्मिक गलियारे से निकली हो। यहाँ सत्ता असंतुलन ज़रूरी है। कोई भी शक्तिशाली आदमी अनैतिक या अश्लील करार नहीं दिया जाता, अगर उन्हें कोई अनैतिक या अश्लील बोल भी दे, तो वह समाज की स्मृति से धीरे-धीरे अपने आप ग़ायब हो जाता है। कई बार तो उनको अश्लील या अनैतिक बोलने वाला ही अश्लील सिद्ध हो जाता है।

ख़ैर, मुख्य मुद्दे पर आते हैं कि विश्वविद्यालयों की बकलोली का प्रभाव समाज पर क्यों नहीं पड़ता। मान लो, कोई प्रोफ़ेसर (दर्शन या राजनीति विज्ञान वाला, क्योंकि इन्हीं के दिमाग़ में कचरा होता है, बाक़ी सब नेक हृदय हैं—लेकिन सोशियोलॉजी वाले थोड़े से “***” तो होते हैं, साइकोलॉजी वाले तो घोषित बिगड़ैल हैं, और भाषा वाले तो कर्मयोगी, नितांत स्वयं में मग्न नरेश हैं) ने 100 पेज का एक पेपर लिखा जो इन्सेस्ट को बढ़ावा देता है। काफ़ी संभावना है कि लिखने वाले को भी यह पेपर समझ न आए (जोकि कला संकाय के 90 प्रतिशत से ज़्यादा पेपर के साथ है)। लेकिन हाँ, अगर वही प्रोफ़ेसर मंच पर कुछ ऐसा कह दे, तो वह अश्लील माना जा सकता है, भले ही अगम्यगमन न हो। (गालियाँ, धमकियाँ और माराकुट्टी छोड़कर—वो सब अश्लील नहीं है।)

अगर तर्क के दर्शन से देखें तो लोकप्रिय चीज़ें ही अश्लील करार दी जा सकती हैं, अर्थात् लोकप्रिय होना अश्लील करार दिए जाने के लिए एक प्रकार की ए प्रायोरी (पूर्वानुमेय) है, मतलब लोकप्रिय हुए बिना आप अश्लील नहीं हो सकते (सॉरी, सुनील पाल जी)। अगर ऐसा होता तो एक आदमी लोकप्रिय होने से पहले स्त्रियों को गाली देता रहा, आज वह मनोरंजन की दुनिया के कई कार्यक्रम में जज बना हुआ है।

इसके कई कारण हो सकते हैं। पहला तो लोग रील्स बहुत देखते हैं। दूसरा यह कि समाज में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम है, और यह बुरी बात नहीं, बल्कि अच्छी बात है। क्योंकि ज़्यादा पढ़-लिख लेने के बाद आदमी थोड़ा-थोड़ा मूर्ख होने लगता है। तीसरा यह कि लोग कला को ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं। यही कारण है कि मंटो और इस्मत चुग़ताई जैसे लेखक भी अश्लीलता के आरोपों से अछूते नहीं रहे (वैसे लगने भी चाहिए थे)। 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात की नेहरू जी ने अश्लीलता, कला और साहित्य का संगम सबसे पहले देखा और समझा, तो अगर यह ग़लत या सही है—सब उनकी देन है। 

फिर भी सबसे ज़्यादा दुख इस बात का है कि ताहेर शाह जैसे महान् कलाकार, जिन्होंने ‘आई टू आई’ जैसा कालजयी गीत बनाया, वह लोकप्रिय तो हुए लेकिन फूहड़ या अश्लील करार नहीं दिया गए (सॉरी, ताहेर सर)। दरअस्ल, अश्लील करार दिया जाना क्रांतिकारी होता है, चाहे फिर आप लहंगा रीमोट से उठा लें या गालियों से भरे गाने बना लें। क्रांतिकारी हरकत के बिना आप अश्लील घोषित नहीं हो सकते। आपको कुछ तो क्रांतिकारी करना पड़ेगा जैसे एक पॉडकास्टर ने किया।

आप बताइए हमारा समाज एक तरफ़ तो भाभी को माँ समान मानता है और औरत को भगवान तुल्य कहता है। दूसरी तरफ़ उसको लेकर इतने गाने और फ़िल्म-संवाद मौजूद हैं जो कामुकता और व्यभिचार के संगम पर हैं, लेकिन क्या वे अश्लील करार दिए जाते हैं? क्या वे युवाओं को नहीं बिगाड़ते?

एक ऐसा कार्यक्रम जो केवल सब्सक्राइबर्स के लिए है, उसमें एक व्यक्ति कूल बनने के चक्कर में टुच्चा सवाल (मज़ाक़) पूछ ले (जो कि उसका ख़ुद का भी नहीं है), और उस पर कई केस लाद दिए जाते हैं। यह क्या दर्शाता है? इसका जवाब मेरे पास नहीं है, पर इससे यह तो सिद्ध होता है कि आज के दौर में बिना बात के भी आप क्रांतिकारियों और कालजयी कलाकारों की श्रेणी में आ सकते हैं—क्योंकि हम सब “फ़ूल्स बाय आइदर रैंडमनेस और बाय अन्नोन पैटर्न” हैं जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते। एल्गोरिथम राजा है।

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