काश! बचपन में हम बड़े होने का सपना न देखते
उज्ज्वल 04 जनवरी 2025
पूर्व बाल्यावस्था में मिट्टी जीवन का सबसे अनमोल रत्न था। हम पूरे दिन मिट्टी में सने रहते थे। पैदा हुए तो मिट्टी से पेट भर लिया करते थे। थोड़ा और बड़े हुए तो मिट्टी के खेल-खिलौने बना लेते। हमारी गाड़ियाँ भी मिट्टी से बन जातीं और हमारे रहने का आशियाना भी मिट्टी का ही होता था। कुछ टूट भी जाता तो उसे हम ख़ुशी-ख़ुशी फिर से बना लिया करते थे। अपनी गाड़ी और अपने घर के हम एकमात्र इंजीनियर थे।
चोट लगती तो डॉक्टर भी हम ख़ुद ही बन जाया करते थे।जहाँ ख़ून निकलता वहाँ मिट्टी लगाकर कहते—“खुनवा मर जो, मटिया जी जो” और ख़ून का बहना भी रुक जाया करता था। वहीं आज का समय है हम बड़े-बड़े डॉक्टरों के होने के बावजूद गले में घावों की माला और भीतर बड़े-बड़े गड्ढे लेकर घूमते हैं।
बचपन में त्योहारों का इंतज़ार नहीं करना पड़ता था। धूल उड़ाकर हमारी होली कभी-भी मन जाया करती थी। कभी-भी लाई-चिवड़ा खाकर पतंग उड़ाते, खिचड़ी मना ली जाती थी। कभी इतनी चालाकी आई नहीं कि बिना पूँछ की पतंग उड़ा पाते, इसलिए धागे से बाँधकर पूँछ के भार से आकाश को लहराते रहे।
तब महादेव हमारे भगवान हुआ करते थे। धूल से पिंडी बनाते या गिली मिट्टी से शिवलिंग। पूजा भी कर लिया करते। हमारे भगवान हमारे लिए हमेशा उपस्थित रहते। भगवान को हम साथ घर लाते। उन्हें खाना खिलाते, साथ सुलाते थे। सब कुछ निर्मल और निश्छल था।
बचपन में घास से पालक की सब्ज़ी और थपुए पर घास के पत्ते से रोटी सेंक कर
दादी की भूख मिटा दिया करते थे, लेकिन आज हज़ारों कमाकर भी ऐसा नहीं कर पाते। अम्मा बताती हैं कि पड़ोस वाले दादा जी कहते थे—“जब तोहार नाती खेलय ला, त ओके देख के जियरय जुड़ाय जाला।”
बुज़ुर्गों की ज़ुबान पर अभी-भी उस समय के न जाने कितने ही क़िस्से हैं, उनकी आँखों में अभी-भी बहुत-सी तस्वीरें जीवित है। अपनी अँगुलियों पर समय गिनते हुए, आज भी उनके बहुत से सपने जीवंत हैं। उनके पास तुम्हें देने के लिए अपनी बहुत-सी निशानियाँ हैं। उनकी तपनी में लकड़ी की कमी नहीं है, लेकिन कमी बस यही है कि उनके पास हुकारी भरने वाले कान नहीं हैं, आग तापते नन्हें हाथ और उत्सुक आँखें नहीं हैं।
सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरातों से जगमगाने के लिए हमने ख़ुद की रातों के सुकून पर ग्रहण लगा दिया है और अब हम दिन के अँधेरे की चादर तान कर सोते हैं। चाँद के आकार को हम कम नहीं होने देना चाहते। हमें रोज़ पूर्णिमा चाहिए, लेकिन हम भूल गए हैं कि हम ख़ुद अमावस हुए जा रहे हैं।
बचपन में हम बड़े होने का सपना देखते थे। हम बड़े हुए लेकिन हमारा बड़प्पन हमारे बचपन से कभी बड़ा नहीं हो पाया। हमारा बचपन हमारी सफलताओं से कई ज़्यादा सफल रहा है। मानवता का विकास हमारे बचपन के इतिहास को कभी लाँघ नहीं पाता है।
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