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कहानी : स्पंदन

अँधेरे से भरा हुआ बंद कमरा, जिसमें बाहर लगी स्ट्रीट लाइट से प्रकाश भीतर आने की कोशिश तो कर रहा था, पर बंद खिड़कियों को भेद पाना संभव न था। राकेश ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया बिस्तर पर जा पड़ा। वह दफ़्तर से अभी-अभी लौटा था। उसका कमरा एक अव्यवस्थित आदमी का व्यवस्थित कमरा था। ऐसा मालूम पड़ता कि राकेश ने अपने जीवन की सब सुंदरता को इस कमरे में झोंक दिया था और ख़ुद ख़ाली हो गया था।

उसने कमरे की बत्ती न जला कर अँधेरे का साम्राज्य कायम रखा। वह कुछ देर बिस्तर पर बैठा रहा। फिर ऊपर की जेब में रखे सिगरेट के पैकेट से सिगरेट निकाली। माचिस का डिब्बा निकाल के तीली जलाई, लेकिन वह उस जलती हुई तीली को देखता ही रहा। मुँह में लगी सिगरेट के पास नहीं ले गया। अँधेरे बंद कमरे में जलती वह तीली मानो उसके घने तारिक जीवन में एक जलती हुई लौ सी जान पड़ी। किंतु क्षण भर को प्रकाशमान रह कर वह लौ बुझ गई।

ऐसी ही एक घटना पाँच साल पहले घटी थी इसी दिन। ना! पाँच साल पहले उसने माचिस की तीली नहीं बुझाई थी। बल्कि उस दिन उसके जीवन के प्रकाश का स्रोत हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया था। प्रिया! पाँच साल से पहले आज ही के रोज़ उसकी पत्नी की मृत्यु हुई थी! आज प्रिया को गुज़रे पाँच बरस बीत चुके हैं। उसे अब ठीक-ठीक उसका चेहरा याद भी नहीं आता। जब भी सोचता है, केवल धुंध में हँसता एक चेहरा ही दिखाई देता है। स्मृति न ही पूरी तरह से ताज़ा हो पाती है न ही पूरी तरह से क्षीण। वह जैसे उसके मन के आकाश में बीचो-बीच लटक रही है... इतनी कमज़ोर भी नहीं कि कोई गुरुत्वाकर्षण बल उसे विस्मृत्यों की अतल गहराइयों में खींच सके और ना ही इतनी सक्षम की उसे अभिव्यक्ति के स्तर तक पहुँचाया जा सके।

राकेश होंठो में ही सिगरेट फँसाकर बालकनी में आ पहुँचा और उसने सिगरेट जला ली। शाम ढलने को थी और रात आने को। राकेश ने घड़ी देखी और सोचा सर्वेश के आने का समय हो चुका।

“जाने क्यों यह आदमी हमेशा मेरे पास आता है। क्या यह नहीं जान पा रहा मैं अब कुछ भी नहीं हूँ, सिवाय हाड़-मास के जो साँस लेता है, साँस छोड़ता है और जीवन का अर्थ इन्हीं दो काम में समझता है।”

सर्वेश उसका बहुत पुराना दोस्त है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता वह, उसकी हालत से पूरी तरह रूबरू है लेकिन वह अच्छा-खासा समझता है उसकी हालत को। उसे उम्मीद है कि वह कभी-न-कभी प्रिया की मौत के सदमे से बाहर आएगा। राकेश को यही शिकायत रहती है कि उसे ऐसा क्यों लगता है कि वह (राकेश) सदमे में है।

कुछ ही देर में सर्वेश आ पहुँचा। उसका टिफिन भी वही ले आता था होटल से और बहुत बार अपना खाना भी घर से बँधवाकर उसके के यहाँ ही खाता। आज भी वह खाना ले आया था। दोनों ने खाना खाया। बर्तन साफ़ किए और बालकनी में लगी दो कुर्सियों पर बैठ गए। दो-चार इधर-उधर की बाते हुईं। राकेश काफ़ी देर तक केवल हाँ-हूँ करता रहा। उसके पास बताने के लिए कोई बात ही न थी। लेकिन कुछ देर बाद वह आकस्मिक ही कुछ कहा—“आज प्रिया को गए पाँच साल हो गए। समय कितना तेज़ी से भागता है।”

यह सुन सर्वेश थोड़ा-सा चकित हुआ क्योंकि उसने ने पहली बार अपनी तरफ़ से प्रिया की कोई बात निकाली इन पाँच सालों में। अन्यथा हमेशा सर्वेश ही कोशिश करता कि किसी उपाय से वह प्रिया की मौत से आगे बढ़े। जाने-अनजाने वह हमेशा बात को प्रिया तक ले ही आता और राकेश को समझाना शुरू कर देता।

उसने बड़ी शांति से कहा, “राकेश भाई! अब तो तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए इस घटना से! मैं तो चाहता हूँ तुम फिर से कविताएँ लिखो। पाँच साल से तुमने कोई कविता ही न लिखी है।”

राकेश को इस बात से हल्की-सी झुंझलाहट हुई कि वह उसे फिर से वही बातें समझाने बैठ गया। उसकी इन कोशिशों को वह व्यर्थ समझता है और इन बातों के उत्तर में अक्सर वह जो कहता आया है उसी को नए शब्दों में पिरो कर कहा—“देखो सर्वेश भाई! मुझे प्रिया की मौत का दुख नहीं है। मुझे किसी बात का दुख नहीं है। अगर तुम समझना चाहते हो तो इस तरह समझो कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी विडंबना ही यही है कि मुझे दुख का अनुभव नहीं होता ना ही सुख का। तुम कविताएँ लिखने की बात करते हो, ऐसा नहीं है कि मैं कविताएँ लिखना नहीं चाहता, पर मैं किस तरह लिखूँ? मेरी भावनाएँ, संवेदनाएँ तो जैसे किसी इमारत के मलबे के नीचे दबी हुई है। हो सकता है मलबे में बदल चुकी वह इमारत प्रिया हो या न भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है? फ़र्क़ तो इस बात से पड़ता है कि प्रिया की स्मृति भी उसी इमारत के नीचे दफ़्न है! या शायद इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं नहीं जानता!

“तो तुम इन्हीं सब बातों को क्यों नहीं लिखते? शायद अच्छा साहित्य बन पड़े और तुम कुछ इनसे मुक्त भी हो सको?”

“किन बातों को?”

“यह जो तुम अभी कर रहे हो”

राकेश हल्का-सा हँसते हुए कहता है, “वैसे तो मैं ज़्यादा सोच भी नहीं पाता लेकिन तुमसे बात करते हुए या अकेले बैठे हुए जो विचार आते है तो उन विचारों का कोई छोर नहीं है। ये मेरे दिमाग़ में कीड़ों की तरह पलते है, जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं। पैदा होते हैं, मर जाते हैं। इनका उपयोग साहित्य रचना में नहीं हो सकता। इनका जन्म मेरे दिमाग़ को नोच-नोच कर खाने के लिए होता है। पर तुम यक़ीन मानो वे इस काम में भी असफल रहते हैं। विचार आते हैं, जाते है, मैं जैसे शून्य में बैठा उन्हें देखता रहता हूँ। कुछ एक देर मेरे मन के आकाश पर चक्कर लगाते हैं, फिर मैं देखता हूँ कि वह मेरे साथ ही शून्य में विलीन हो जाते हैं। जाने कहाँ चले जाते हैं, किन अँधेरी कोठरियों में बंद हो जाते है। कभी-कभी फिर से कोई विचार सहसा प्रकाश-सा कौंध जाता है, लेकिन उसका प्रकाश कुछ ही देर रहता है। मानो दिमाग़ की अँधेरी कोठरी उसे क्षण भर की मुक्ति दे कर वापस खींच लेती हो।”

“हूँह! तुम्हारी समस्या काफ़ी गंभीर है बंधु!”

“मुझे कोई समस्या ही नहीं है”

“तुम क्यों नहीं मानते मेरी बात! डॉक्टर से सलाह ज़रूरी है”

“जब बीमारी ही नहीं तो कैसा डॉक्टर!”

“हो सकता है तुम्हें इतना गहरा दुख पहुँचा है कि तुम यह स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हो कि तुम्हें प्रिया की मृत्यु का दुख है।”

“मैं समझा नहीं तुम्हारी बात! यह सच है कि मैं नहीं मानता कि मैं दुखी हूँ!”

“तो क्या तुम ख़ुश हो”

“वह मैं नहीं कह सकता”

“दुख के बारे में तो बड़े आत्मविश्वास के साथ कह रहे थे”

“मैं नहीं जानता! मैं सोचना नहीं चाहता”

“क्योंकि तुम भाग रहे हो बंधु! देखो कभी-कभी कोई आघात इतना गहरा होता है कि हम यह सोचना बिल्कुल पसंद नहीं करते कि वह हमारे साथ हुआ था। उस आघात से मिले दुख को भी हम स्वीकार नहीं करना चाहते। तुमको प्रिया की मृत्यु से ऐसा ही एक घाव लगा है, जिससे टपकते लहू को तुम देखना तक नहीं चाहते। किंतु मित्र धीरे-धीरे उस घाव से लहू टपकता रहेगा और तुम ख़त्म हो जाओगे। तुम्हें इमारत के उन मलबों को हटाना होगा और प्रिया के लिए, उसकी मृत्यु के दुख में फूट फूट कर रोना होगा। तुम्हारी मुक्ति रोने में है बंधु।”

“मैं नहीं रो पाता। तब भी नहीं रो पाया था अब भी नहीं रो पाऊँगा”

“कोशिश करो भाई! यदि रोना आएगा तो उसके पीछे-पीछे एक स्वच्छ और निर्मल सुख का एहसास भी आएगा।”

“नहीं होता मुझसे। तुम व्यर्थ कोशिश कर रहे हो। मेरे भीतर की सारी संवेदनाएँ बर्फ़ से ढक चुकी है। और मैं नहीं जानता मैं इस तरह अच्छा हूँ या बुरा। अब तो मेरे लिए यही भाव काफ़ी है कि मैं हूँ। साँस लेता हुआ हाड़-मांस का पुतला चाहो तो मशीन कह डालो। हो सकता है तुम्हारी बातें सच हो या न हो पर उससे मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”

सर्वेश को लगा आगे इस पर बात करने से हो सकता है राकेश और ज़्यादा परेशान हो जाए इसलिए उसने आगे तर्क देना उचित न समझा और विदा माँगने की सोची!

“अच्छा छोड़ो भाई! तुम आराम करो। मुझे भी देर हो रही है और तुम्हें भी कल सुबह दफ़्तर जाना है।”

सर्वेश वहाँ से अपने घर चला गया।

राकेश ने बालकनी से कुर्सियों को एक-एक कर के अंदर लिया और अपने कमरे में प्रवेश किया। बत्ती जलाकर अँधेरे के साम्राज्य को जड़ से ख़त्म कर दिया। वह अजीब से कशमकश महसूस कर रहा था। उसे यह शक होने लगा था कि कहीं सर्वेश सही तो नहीं कह रहा।
पर उसने इस शक को अपने दिमाग़ से धक्का मार कर बाहर फेंक दिया। वह यह मानना ही नहीं चाहता था कि वह परेशान है।

“नहीं मैं बीमार नहीं हूँ। होता तो क्या मैं न जानता। अजीब है सर्वेश! किंतु उसे मैं यह क्यों न बता सका कि मुझे एक बात से ख़ुशी ज़रूर होती है। यदि मुझे मालूम हो कि कल मैं मर जाऊँ तो मैं इस बात पर काफ़ी ख़ुश होऊँगा।”

राकेश की आँखों में नींद थी। पर वह जानता था कि वह सो नहीं पाएगा। नींद उसकी आँखों में हर वक़्त रहती है, पर वह जैसे ही बिस्तर पर लेटता है नींद अपनी दृष्टि उससे हटा देती है। 

कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने अपने टेबिल के ड्रॉवर से डायरी निकाली। कविताओं से तो उसका कोई वास्ता न रहा था, लेकिन उस डायरी में वह एक बात हमेशा लिखता जाता था। उसने पेन उठाया, उंगलियों के बीच पसीना हो रहा था। डायरी में उसने फिर वही बात लिखी जिससे पूरी डायरी भरी हुई थी। उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा—“कल मैं मर जाऊँगा और मुझे इस पर ख़ुशी होगी”

राकेश ने देखा वह डायरी का आख़िरी पन्ना था। उसने बत्ती बुझाई और बिस्तर तान लिया। सोते हुए जो पहला विचार उसके दिमाग़ में आया कि उसे कल नई डायरी ख़रीदनी होगी। वह इस विचार पर न ख़ुश था, न दुखी।

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