Font by Mehr Nastaliq Web

कहानी : लुटेरी तवायफ़ें

शादियों का सीज़न आते ही रेशमा तैयारी करना शुरू कर देती। मेकअप से थोड़ा घबराती थी, लेकिन उम्र छुपाने की जद्दोजहद रहती थी हमेशा। चेहरे को कैसे सवारें, क्या करें, क्या न करें—ये सब परपंच उसे समझ नहीं आते। वैसे उसकी बेटी जूली जानती थी कि माँ के बिना आस-पास के आठ गाँव में शादी नहीं हो सकती थी। उसकी माँ की असली सुंदरता उसकी सहजता थी—पैनी नाक, भूरी आँखें और लंबे घने बाल। उसकी ख़ूबसूरती और उसके विशेष व्ही-नेक ब्लाउज़ में छिपे स्तनों का उभार, ऊँची जाति के परिवारों के पुरुषों के लिए एक गहरी सेक्सुअल कल्पना बन जाता था।

कई सालों तक बस सूरमा और कोई टेलकम पाउडर लगाए चली जाती, फिर भी देखने वालों की भीड़ इतनी होती कि अगर समय से नहीं आए तो रेशमा को बिना देखे जाना होता। कई दफ़े जब रेशमा नाच रही होती, तो वह चोरों के लिए चोरी का सही वक़्त हो जाता था।

उम्र 50 छू लेने के बावजूद रेशमा की ठोर कम न हुई। कमर में वही लचक बड़ी-बड़ी आँखें, वही तीखापन। शाम के वक़्त चाय पीते हुए वह खिड़की के पास बैठी हो तो राह चलता हर व्यक्ति एक बार उसकी तरफ़ ज़रूर देखना चाहता था। और उसके लिए भी मुस्कुराना उसकी इंसानी भावुकता का हिस्सा था। वह अपने आप को किसी कामुकता से इतर एक जगत प्रेमिका के रूप में स्थापित महसूस करती थी, जोकि सच भी था।

लोगों में रेशमा को जान लेने की चाह इतनी थी कि गाँव का कोई लड़का बिना रेशमा के जवान नहीं हुआ। वह क्या करती है, कब खाती है, कितने बजे उठती है—सबको सब पता था। उसकी पनारे, जहाँ वह नहाती थी, आज भी झाँकने वाले लड़कों का अड्डा थी। अगर किसी को उसके स्तन की एक झलक भी मिलती, तो वह दोस्तों के बीच गर्व से कहता कि उसने रेशमा को नग्न देखा। इस तरह, रेशमा के इर्द-गिर्द पनपे एक कल्पनात्मक संसार ने किशोर लड़कों की दुनिया में रंग भरा।

कुछ तो बात थी रेशमा में, जो गाँव का हर मर्द उसका नाम लेते ही खिलखिला जाता। कितने ही लोगों को रेशमा से प्रेम हुआ, कितनों ने गाँव से भाग चलने की बात कही। लेकिन रेशमा वहीं रही जहाँ थी, वह ठहरी थी। माँ बनने के बाद भी उसकी पूछ कम न हुई।

रेशमा धीरे-धीरे एक विचार हो गई—लोग उस से प्रेम और नफ़रत दोनों करना चाहते, लेकिन जो भी उस से मिला उसको उस से प्रेम ही हुआ, ख़ासकर उन तवायफ़ों को जो समाज के रूढ़िवादी मानदंडों के चलते तिरस्कार का सामना कर रही थीं। उनके लिए रेशमा दीदी का प्रेम एक सुखद एहसास था और एकमात्र सहारा। रेशमा भी इन महिलाओं और लड़कियों के प्रेम में अधिक सहज और ख़ुश होती, अब मर्द के साथ होने की चाह नहीं बची, वह बस इन तवायफ़ों के साथ जीवन बिता देना चाहती थी।

जूली अपनी माँ का शृंगार करती, जैसे माँ न हुई उसकी बेटी हो, इतने प्रेम से सँवारती जैसे उसको किसी मॉडलिंग प्रतियोगिता में भेजना चाहती हो। जूली, माँ में एक गहरी दोस्त देखती थी—एक ऐसा साथी जिसमें एक माँ को लेकर मोह के अलावा भी साथ जीवन जीने की इच्छा समाए हुए थी। और रेशमा के लिए भी जूली उसके एकाकी जीवन का एक मात्र सहारा थी।

खिड़की से बाहर ताकती रेशमा एकटक देखे जाती, जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो, जो अब कभी नहीं आएगा। जूली की आवाज़ सुनते ही वह अपनी रोज़ की मुस्कान को ढकेलकर वात्सल्य की एक हँसी ओढ़ लेती। जैसे प्रेम का रास्ता आसान हो।

“गाड़ी आ गई माँ। कहाँ जा रही हो?” जूली ने पूछा।

रेशमा ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “पिपरसमा गाँव के सरपंच के बेटे की शादी है। मैं, अंजली, मंजू, प्रीति और गुलाब जा रहे हैं। बंटी, तबला और पप्पू हारमोनियम पर जाएगा। तेरे लिए रोटी बनाई रखी है, कटहल भी बनाया है। शादी से इमरती-जलेबी ले आऊँगी।”

जूली, माँ द्वारा उसके लिए की गई चिंता और प्रेमभाव को अपनी खिलखिलाती हँसी से स्वीकार करती।

जूली ने सोचा कि आज के आर्केस्ट्रा के ज़माने मे ढोलक-हारमोनियम पर नाच गाना कैसे होगा? और माँ से पूछा, “माँ, तू फ़िल्मी गानों पर कैसे नाचेगी?”

रेशमा थोड़ा सोच कर बोली, “सरपंच साहब पुराने आदमी हैं, नाच गाने की व्यवस्था पुराने अंदाज़ में ही होगी।”

जूली कुछ सोचकर फिर बोली, “क्या मतलब माँ, आर्केस्ट्रा नहीं होगा। आर्केस्ट्रा पर सब नाचते हैं, अब तो हमारे गाँव में भी आता है, पिपरसमा के सरपंच साहब तो बहुत अमीर हैं, वो तो मँगाएँगे ही। आर्केस्टा पर नाच होता है, लोग छेड़ते हैं—गंदे-गंदे इशारे करते हैं।”

रेशमा ने सूखी हँसी हँसते हुए कहा, “वो तो हमेशा होता है बेटी, यही काम है, करना तो पड़ेगा। फ़िल्मी गाने होंगे तो फ़िल्मी गानों पर नाच लेंगे, नहीं तो हम तो गाने बजाने वाली तो हैं ही।” और रेशमा चल दी, लेकिन रेशमा इस पसोपेश में थी कि उसकी बेटी क़िस्मत वाली है या बदक़िस्मत। चल सकना, सुंदर दिखना और लचक होना तवायफ़ों को रोटी देता है, लेकिन उसकी बेटी न चल सकती थी, न ही वह उस जैसी सुंदर थी; फिर भी कढ़ाई-बुनाई करके उससे ज़्यादा पैसे कमा रही है। क्या उसकी बेटी ने पीढ़ियों से चले आ रहे श्राप को छेग दिया? रेशमा की माँ के तीन बच्चे होने के बाद भी किसी ने उन्हें रंडी कहने की हिम्मत न की थी। लेकिन उसकी एक बेटी रंडी की बेटी कहलाती है, यह सोचते-सोचते एक आँसू ढह जाता है।

वक़्त कितना बदल गया। हमारा काम इतना बदनाम कभी नहीं था। बड़े-बड़े धन्ना सेठ मेरी माँ के आगे-पीछे मँडराते रहते। कभी यह बात नहीं उठी कि हम समाज की गंदगी कहलाएँ। रेशमा को वे रातें आज भी याद हैं, जब वह अपनी माँ के पास बैठी रात-रात भर गुनगुनाती रहती, “मेरे महबूब इस महफ़िल में मुहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं...” और हर वक़्त उसके आँगन में लोगों का आना-जाना लगा रहता। लेकिन आज जब वह जूली के पास बैठती है, तो चिंता और दुख से भर जाती है।

गुलाब, रेशमा का हाथ पकड़कर बाहर खड़ी टवेरा में खींच लेती है। उसे अपने पास बिठाकर पूछती है, “आपका मेकअप जूली ने किया?”

“नहीं यार! वह बेचारी कल से थोड़ी बीमार थी, तो मैंने उसे बताया ही नहीं। सुबह ही इतला किया”, रेशमा ने बिना किसी भाव के कहा।

“दीदी, आप तो बिना मेकअप हेमा मालिनी लगती हो। आपके आगे तो सारी हीरोइने फ़ेल हैं”, गुलाब चुटकी लेते हुए बोली।

“बस-बस, 50 साल की बूढ़ी औरत हूँ। अब काहे की सुंदरता! बस जूली की चिंता रहती है”, कहते हुए रेशमा शरमा गई।

“अरे, बहुत भाग्य वाली हो दीदी, जो जूली जैसी लड़की हुई। कहाँ-कहाँ से कढ़ाई के ऑर्डर आते हैं उसके पास। ख़ाली कपड़े को सजा डालती है, जैसे जादू हो उसके हाथों में। आपको तो नाचने की भी ज़रूरत नहीं और आप चिंता कर रही हैं?” गुलाब ने कहा।

रेशमा एक हल्की मुस्कान ओढ़ते हुए बोली, “माँ की चिंताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं गुलाबो। वह भी मेरी तरह ग़ैर-ब्याही और लाचार रह जाएगी।”

“हो जाएगी शादी दीदी। आजकल तो हो जाती है। शहरों में मर्द समझदार हो रहे हैं और अभी तो वह पढ़ रही है।”, गुलाब ने उत्साह से कहा।

“कहना आसान है। हम तवायफ़ों से जो मर्द शादी करते हैं, उन्हें समाज में जगह नहीं मिलती। जो मर्द किसी से प्यार करने में डरते नहीं, उनके मर्द होने पर लोग सवाल उठाते हैं। कहाँ से लाएँ ऐसे ‘न-मर्द’—जो तवायफ़ों से प्रेम करें और उनके साथ रह सकें?”, रेशमा ने थकी आवाज़ में कहा।

गुलाब ने रेशमा के कंधे पर हाथ रखकर दिलासा दिया।

मंजू, जो सब कुछ सुन रही थी, बोल पड़ी, “दीदी, रंडी और तवायफ़ एक ही होते हैं क्या?” मंजू 23 साल की दुबली-पतली लड़की थी, जो बार-बार अपनी नथ को ठीक करती रहती।

रेशमा ने इस बिना संदर्भ के सवाल पर आश्चर्य से पूछा, “क्यों, क्या हुआ?”

“कल भरोसी का लड़का सलमा के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गया। कह रहा था, “हम रंडियों की वजह से कोई अपनी लड़की नहीं देता इस गाँव में।” हम तो नाच-गाना करती हैं, तवायफ़ हैं। रंडी थोड़ी हैं? क्या हुआ जो एक-दो मर्दों के साथ संबंध बना लिया। फ़िल्मवालियों के तो कई मर्दों के साथ चक्कर चलते हैं, उनसे तो यह नहीं कहते।”

गुलाब बोली, “ये भरोसी का बेटा सरकारी स्कूल के बाहर ज़ोर-ज़ोर से सिनेमा चलाता है फ़ोन में। उसमें नाच देखता-देखता घुस जाता है। उसको यह रंडीबाज़ी समझ नहीं आती? फूल-सी बच्ची के पीछे दौड़ गया। हम भी इंसान हैं। प्रेम-प्यार कर लेते हैं कुछ और हमसे शादी करने की तो हिम्मत नहीं इनमें।”

रेशमा को भी ग़ुस्सा आया। वह बोली, “इस भरोसी का ख़ुद का नाड़ा ढीला है। अपनी बुआ की बेटी तक नहीं छोड़ी इसने और इसका बेटा हमें ज्ञान दे रहा है? अबकी बार आए तो भेजना मेरे पास। मैं बताऊँगी इसको। तू परेशान मत हो। ये लौंडे कुछ करते नहीं। न नौकरी है, न और कुछ। अब शादी नहीं हो रही, तो हमें दोष दे रहे हैं। इतने अच्छे काम करने वाले होते तो हर कोई अपनी लड़की देता इनको। देख, हरिया बराई का बेटा। कितना बढ़िया लड़का है। टावर पर काम करता है। उसका तो ब्याह हो गया।”

फिर अंजली को याद आया कि कैसे पिछले महीने, जब वह और पप्पू मांगी पंडित के पोते की डस्टोन में गए थे, उसके साथ कुछ ऐसा ही हुआ था। मांगी पंडित का छोटा बेटा उसके साथ ज़बरदस्ती करने लगा। उसने उसके स्तनों को पकड़ लिया, गालों को चूमने लगा। जब अंजली ने कहा कि वह यह सब काम नहीं करती, तो वह गाली बकने लगा।

“साली राँड! दुनिया वाले गाँव को रंडियों का गाँव कहते हैं और तुम तो गाँव वालों को नहीं देती। किसको देती हो? बाहर वालों को? बाहर वालों की रंडी हो, गाँव में शरीफ़ सती बनती हो।”

न जाने कैसे वहाँ से अंजली भागी, यह वही जानती थी।

यह सब सोचते-सोचते अंजली सहम गई। वह रेशमा को टकटकी लगाकर देखते हुए बोलने लगी, “रेशमा दीदी, आप ग़लत सोचती हो। यह गाँव हमेशा से ऐसा ही था—ज़ालिम, नंगा।”
और रोने लगी।

रेशमा के मन में जूली का ख़याल हमेशा हलचल मचाए रखता था। कहीं कोई उसकी बेटी पर ज़बरदस्ती न करे। जूली के अलावा उसका कोई नहीं था। जूली बहुत होशियार लड़की थी। पढ़ाई-लिखाई में अच्छी थी। अगर वह एक तवायफ़ की बेटी न होती, तो शायद कोई बड़ी अफ़सर बनती।

रेशमा जूली के जन्म के बाद से ही रंडी कहलाई। एक सभ्य समाज में किसी का बाप न होना सबसे बड़ा दोष माना जाता है। जूली का बाप तो सामाजिक खाल में छिपा रहा।

इस समाज में बाप के बिना कुछ नहीं होता। रेशमा ने अपने भाई सलीम का नाम जूली के पिता के तौर पर स्कूल में लिखवा दिया, ताकि उसका दाख़िला हो सके।

रेशमा को पास के गाँव के घनश्याम ओझा से प्यार हो गया था और जूली उसी की बेटी थी। जब तक जूली छोटी थी, घनश्याम आता रहा। लेकिन उसका परिवार और समाज का डर के चलते वह आना-जाना कम करता गया। उसे इस बात का ग़म भी था कि उसकी एक बेटी पोलियो से ग्रस्त थी।

इस ग़म ने उसे धीरे-धीरे तोड़ दिया। जब जूली दस साल की हुई, तब घनश्याम चल बसा। जब तक वह ज़िंदा था, ख़र्चा उठाता रहा। उन पाँच-छह सालों में, जब तक जूली उसकी गोद में रही, रेशमा के लिए तवायफ़ से रंडी बनने का सफ़र शुरू हो गया था। गाँव वालों को लगता था कि बिना नाच-गाने के पैसा आना और बच्चा होना, रंडी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।

प्रीति, जो जूली की उम्र की थी, रुआँसी बैठी थी। उसने कहा, “मैं तो पिछले आठ साल से घोषित रंडी हूँ दीदी और यह मेरे मंगेश से प्यार करने की सज़ा है। उसके लिए मैं कितनों के साथ सोई, ताकि वह मुझे कुछ वक़्त दे, सहारा दे, पर वह तो मेरा दलाल बन गया। मैं जिस भी मर्द के साथ रही, मेरे मन में मंगेश ही था। लेकिन मंगेश के लिए मैं बस फ़्री की रंडी थी, जिसके पैसों पर उसने ऐश की।”

“सरपंच का बेटा उसका दोस्त है इसलिए आज यहाँ शादी में आएगा। मुझे उससे नफ़रत होनी चाहिए। मन करता है कि बंदूक़ उठाऊँ और मार दूँ उसे। लेकिन... मुझे उस हरामी से आज भी प्यार है”, और प्रीति फूट-फूटकर रोने लगी।

गुलाब प्रीति को गले लगाते हुए चुटकी लेते हुए बोली, “रेशमा दीदी भी प्यार में पड़ी थीं, हैं न दीदी?”

रेशमा जैसे किसी सपने से बाहर आई। वह बोली, “हाँ।”

“प्यार के बिना हम जैसों का जीवन कैसे चलेगा। तू रो मत, बेटी। यह सब ज़िंदगी का हिस्सा है। उसे उसके कर्मों की सज़ा मिलेगी। तू बहुत बहादुर है। मुझे तुझ पर गर्व है।”

प्रीति की बातों से रेशमा के जीवन के कई हिस्से उसके सामने आ गए। उसे महसूस हुआ कि उसने भी प्रेम में ख़ुद को कमज़ोर पड़ने दिया था। उसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा—न घनश्याम से, न समाज से, न भगवान से। बस जो उसे सही लगा, करती गई।

उसने अपना सारा जीवन दूसरों के लिए समर्पित कर दिया था। उसे विश्वास था कि प्रीति उसकी ग़लती नहीं दोहराएगी और अपने लिए लड़ेगी।

इन सब बातों में पिपरसमा गाँव आ गया। स्टेज तैयार था। मर्दों का एक समूह सीटियाँ और किलकारियाँ मार रहा था।

“नचनियों का डांस होगा”, उनकी आवाज़ गूँज रही थी।

यह सब सुनकर रेशमा को लगा जैसे वह किसी जंगल में नरभक्षी जानवरों के बीच फँस गई हो।

रेशमा सबसे आख़िर में डांस करने वाली थी। उसके लिए मर्दों का एक और समूह आने वाला था—वे मर्द, जिनकी जवानी ढल चुकी थी। दाँत गिर चुके थे, मुँह पोपला हो चुका था, लेकिन रेशमा का डांस देखे बिना उनका घर लौटना कभी नहीं हुआ। रेशमा से पहले उसकी माँ भी इन मर्दों की नग्नता को झेल चुकी थी।

इस बार स्टेज थोड़ा अलग था। पप्पू और बंटी बैठे रहे और किसी ने फ़िल्मी आइटम गाने बजा दिए। लोग नशे में धुत होकर नाच रहे थे। माहौल ऐसा भयावह था कि किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।

मंजू, अंजली और गुलाब ने नाचना शुरू किया। पहली बार, वे बिना ढोलक और हारमोनियम के नाच रही थीं। उनका नृत्य ऐसा था, जैसे वे इंसान नहीं, रोबोट हों, जिनमें चाबी भर दी गई हो। लोग पैसे उड़ा रहे थे, स्टेज पर आकर उन्हें छू रहे थे।

एक आदमी ने मंजू का घाघरा ऊपर उठा दिया, और बाक़ी लोग हँसने लगे। जैसे-तैसे उसने ख़ुद को सँभाला और फिर से नाचने लगी। कुछ 17-18 साल के लड़के मंजू को ऐसे चूमने लगे जैसे वे बरसों की भूख मिटा रहे हों।

इसी दौरान, किसी ने प्रीति के ब्लाउज़ में हाथ डाल दिया। उसने झटके से उसे हटा दिया और उस आदमी को थप्पड़ मार दिया। रेशमा के लिए यह सब नई बात नहीं थी। उसने कई बार ऐसी बदतमीज़ियों का सामना किया था, लेकिन उसमें यह हिम्मत कभी नहीं हुई कि किसी को थप्पड़ मार सके। प्रीति की हिम्मत पर उसे गर्व हुआ।

वहीं खड़ा मंगेश यह सब देखकर मुस्कुरा रहा था।

उस आदमी ने ग़ुस्से में प्रीति पर बंदूक़ तान दी और कहा, “कपड़े उतार, यहीं।”

रेशमा से यह बर्दाश्त नहीं हुआ। वह उठकर खड़ी हो गई और बोली, “यह हरकत नहीं चलेगी। सरपंच जी को बुलाओ।”

आनन-फ़ानन में सरपंच को बुलाया गया। सरपंच ने कहा, “यह मेरा भतीजा है। इसे कमरे में ले जाओ, वहीं कपड़े उतरवा लो। ये शरीफ़ तवायफ़ें हैं, सबके सामने कपड़े नहीं उतारतीं।”

फिर वह बंटी और पप्पू को बुलाने लगे, “अब रेशमा नाचेगी।”

रेशमा की छाती में जैसे कोई फाँस अड़ गई। उसने कहा, “सरपंच साहब, यह नहीं चलेगा। हम नाचने वाले हैं, कोई रंडी नहीं। यह गाँव की परंपरा है। आपकी बात चाहे जो हो, मैं नाचने नहीं वाली। प्रीति हमारी बेटी है, उसकी इज़्ज़त ऐसे कोई नहीं उछाल सकता। हम जा रहे हैं।”

सरपंच का भतीजा ताव में आ गया। उसने रेशमा पर गोली चला दी और प्रीति का ब्लाउज़ खींच दिया।

अफ़रा-तफ़री मच गई। सरपंच ने भतीजे के हाथ से बंदूक़ छीन ली और उसे वहाँ से भाग जाने को कहा। दस मिनट बाद जब माहौल शांत हुआ—गुलाब रेशमा के पास बैठकर रो रही थी। रेशमा बस साँसें गिन रही थी और कह रही थी, “अगर मुझे कुछ हो जाए, तो जूली का ख़याल रखना।”

गुलाब उसे दिलासा दे रही थी कि उसे कुछ नहीं होगा।

प्रीति चुपचाप खड़ी यह सब देख रही थी। उसकी नंगी छाती पर अब भी लड़कों की भूखी निगाहें थीं। उधर मंजू किसी अँधेरे कमरे में पहुँचा दी गई थी, जहाँ मर्द बारी-बारी से उसे दबोच रहे थे।

पप्पू ने ढोलक सरपंच के भतीजे के सर पर दे मारी, जिससे बंदूक़ उसके हाथ से गिर गई। लोग पप्पू पर टूट पड़े।

प्रीति ने एक मिनट की चुप्पी के बाद बंदूक़ उठाई और उसे सरपंच पर तानकर कहा, “हमें जाने दो, वरना जान ले लूँगी।”

सरपंच डर के मारे सबको चले जाने का निवेदन करने लगा। प्रीति ने मंजू, अंजलि और बाक़ी सबको बुलाकर गाड़ी में बैठा लिया। जैसे ही वे जाने लगे, प्रीति ने मंगेश और सरपंच के बेटे के सीने पर गोली चला दी, और सब वहाँ से भाग निकले।

जब वे वहाँ से निकल रहे थे, बंटी ने मौक़ा देखकर दहेज में आए 20 लाख रुपये नकद और कुछ जेवर उठा लिए। शादी में डाँस करने आईं नचनियाँ ऐसी लूट को अंजाम देंगी, यह लूट करने वालों ने भी नहीं सोचा था।

रेशमा को सबसे बड़ा डर इस बात का था कि कहीं सरपंच के आदमी जूली को नुकसान न पहुँचाएँ। उसने अस्पताल जाने से इनकार कर दिया और सबसे पहले जूली को घर से ले चलने की बात कही।

जैसे ही वे रेशमा के घर पहुँचे, चार आदमी आग और लाठियाँ लेकर खड़े थे। प्रीति ने स्थिति को भाँपते हुए तुरत टवेरा की खिड़की खोलकर दो गोलियाँ चला दीं। दो आदमी वहीं ढेर हो गए और बाक़ी भाग खड़े हुए।

बंटी ने तुरत रेशमा के घर से जूली को उठाया और गाड़ी में बिठा लिया। वे वहाँ से निकल गए, लेकिन रेशमा की साँसें कमज़ोर पड़ती जा रही थीं। वह धीमे स्वर में कह रही थी, “मुझे अस्पताल मत ले जाओ। मैंने बहुत जीवन जी लिया। अब और इच्छा नहीं है। बस जूली का ख़याल रखना।”

यह कहते-कहते रेशमा ने दम तोड़ दिया। सब ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे, लेकिन प्रीति बस पिस्टल को देखती रही और जूली उसे।

जैसे ही वे शहर पहुँचे, प्रीति ने पप्पू से पूछा, “बंबई की ट्रेन कितने बजे की है?”

पप्पू ने जवाब दिया, “रात एक बजे।”

प्रीति ने गाड़ी रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ने को कहा।

गुलाब ने ग़ुस्से में कहा, “तूने सब बर्बाद कर दिया। अब क्या चाहती है? दीदी भी नहीं रही। थोड़ी तो शर्म रख। सारी ज़िंदगी उसने हमारे लिए इतना कुछ किया और आज हमारी वजह से मारी गई।”

प्रीति ने शांत लेकिन कठोर स्वर में कहा, “चुप करो दीदी। मुझे तुम्हारे ज्ञान की ज़रूरत नहीं। मुझे पता है मैं क्या कर रही हूँ।”

थोड़ी देर बाद उसने जूली से पूछा, “तू क्यों नहीं रोती? तेरे भी आँसू सूख गए क्या? तेरी तो माँ मरी है।”

जूली ने निर्भाव होकर कहा, “माँ ने मरकर मुझे इस धंधे से आज़ाद कर दिया। अब मैं अपनी बाक़ी ज़िंदगी अपने दम पर जीना चाहती हूँ, ताकि माँ मुझ पर गर्व कर सके।”

प्रीति ने एक लंबी साँस ली और मुस्कुराते हुए कहा, “गाड़ी रोको।”

“बंटी, जूली को उठा।”

बंटी ने झल्लाते हुए पूछा, “ये जंगल में क्या करना है तुझे? स्टेशन आने में अभी 15 मिनट का रास्ता है।”

जूली ने सख्ती से कहा, “जो कहा गया है, वो करो।”

जब बंटी ने गाड़ी नहीं रोकी, तो प्रीति ने गाड़ी में गोली चला दी। वे सारा सामान लेकर उतर गए।

प्रीति ने कहा, “पुलिस को ख़बर हो गई होगी। हमें बंबई भागना होगा।”

उसने टवेरा के डीजल टैंक में दो राउंड फ़ायर किया और गाड़ी में आग लगा दी। पिस्टल को भी गाड़ी में फेंक दिया।

रेशमा ने कभी नहीं सोचा होगा कि उसका अंतिम संस्कार इस तरह होगा। जब गाड़ी जल रही थी, तभी जूली की आँख से पहला और आख़िरी आँसू गिरा। उसे एहसास हुआ कि वह अपनी माँ से कितना प्रेम करती थी।

सभी ने बंबई की ट्रेन पकड़ ली। तवायफ़ों का यह समूह अब यायावर बन गया। वे एक अनचाही लूट के बाद भाग रहे थे। उन्हें विश्वास था कि वे पकड़े नहीं जाएँगे और अगर पकड़े भी गए, तो अब वे नाचने वाली नहीं रहीं—अब वे अपराधी थीं, वे लुटेरी तवायफें हैं।

अगले दिन अख़बार की सुर्खियों में छपा—“सरपंच की शादी में लूट और दो हत्याएँ, तवायफ़ों ने मचाई दहशत।”

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट