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हिंदी के चर्चित घड़ी-प्रसंग की घड़ी बंद होने के बाद...

घड़ी तो सब ही पहनते हैं।

कई सौ सालों पहले जब पीटर हेनलेन ने पहली घड़ी ईजाद की होगी, तो उसके बाप ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन ये इतनी ज़रूरी चीज़ साबित होगी कि दुनिया हिल जाएगी। दानिशमंद लोग कहते हैं कि जब बुरा समय आता है, तो दुनिया हिल जाती है। इस दुनिया में गुज़रे दिनों पहली बार ऐसा हुआ कि एक घड़ी ने आभासी दुनिया हिला दी। माहौल कुछ ऐसा था कि मुझे लगा कि कहीं से मेरी मरहूमा परदादी आती ही होंगी—उत्तों! असैनियों!! भागभरियों!!! 

ख़ैर, यहाँ मुझे घड़ियों से पितरस बुख़ारी के व्यंग्य का एक उद्धरण याद पड़ता है—

मैं एक बार लाजवाब हुआ था। 
मेरी घड़ी ख़राब हुई, तो मैं बाज़ार में घड़ियों वाली दुकान में गया और घड़ी दी कि ये ठीक कर दें।  
कहने लगे, ‘‘हम घड़ियाँ ठीक नहीं करते, हम ख़तने करते हैं।’’
मैंने पूछा तो फिर ये घड़ियाँ क्यूँ लटकाई हुई हैं?
दुकानदार बोला, ‘‘तो आप ही बता दें कि हम क्या लटकाएँ?’’ 

ख़ुदा-न-ख़्वास्ता, अगर पितरस हिंदुस्तान में ही होते, तो ये हिंदी वाले उन्हें इस तरह लटका-लटकाकर डोज़ देते कि उन्हें मानना ही पड़ता कि सारे आलम में घड़ी से अज़ीम-उल-मर्तबत कोई शय नहीं है।

इतिहास शंकाओं और प्रश्नों का विषय है। इसी संबंध में मेरी यह शंका है कि घड़ी नामक वस्तु हमारे आदिम इतिहास में दर्ज किए जाने से छूट गई है। हो सकता है कि देवलोक में मेनका की घड़ी खो गई हो या उर्वशी ने चुरा ली हो और फिर दोनों ने देव-दूरभाष यंत्र पर एक दूसरे पर शब्द-फूल बरसाए हों।

यक़ीनन इसके बाद में असुर-सुर और उर्दू के चप्पल-खाऊ शाइर, हिंदी के माचिस-छाप कवि देवलोक में भी मीम मैटेरियल तलाश रहे होंगे और प्रथम घड़ी विश्व युद्ध में अपना पक्ष रख रहे होंगे। यह इतिहास में दर्ज किए जाने से छूट गया है।

कौन जानता है कि सेरेक्यूस (सिसली) के ऑर्किमिडीज़ ने न कहा हो—यूरेका! यूरेका!! यूरेका...

उसने कहा हो—केल्विन क्लेन! केल्विन क्लेन!! केल्विन क्लेन...

एक विज्ञान के सिद्धांतकार ने नहीं लिखा कि गुरुत्वाकर्षण के ईजाद के दिन न्यूटन ने एक विदेशी घड़ी बाँधी हुई थी। पेड़ पर लगा सेब उसी घड़ी की आभा पर लहा-लहोट होकर उनकी कलाई पर गिरना चाहता था, मगर बदक़िस्मती से वह उनके सिर पर गिर गया। 

इस तरह F = G (m1m2) / R2—ईजाद हुआ, और 
हिंदी साहित्य = (कैल्विन क्लेन और स्केगन) (स्त्री 1 : स्त्री 2) / व्यर्थ का विवाद की घात 2—का सूत्र पाने से हम वंचित रह गए।

हमारे क़स्बे में एक लल्लन चच्चा थे। वह हमेशा से बेरोज़गार और चूल्हे-न्योत मुँहज़ोर (हिंदीवालों के लिए सबसे उपयुक्त विशेषण बक़ौल नईम सरमद लानतुल्लाह अलैहि) थे। वह बच्चों को ऐसे-ऐसे क़िस्से सुनाते थे कि मन हिलक-हिलक जाता था। उनके भीतर कई किलोमीटरों में एक छिपा हुआ असफल हिंदी कवि भी कहीं था।

मुझे याद पड़ता है कि उन्होंने घड़ी के बारे में हरिवंश राय ‘बच्चन’ की पंक्तियाँ बच्चों के दिमाग़ों पर कुछ यूँ धरी थीं :

कमर में घड़ी 
तो पंडित सुंदरलाल ने भी बाँधी। 
हो गए गांधी?

आज मैं सोचता हूँ कि हो न हो ‘अधनंगे फ़क़ीर’ की घड़ी स्केगन की ही होगी, जिसे अँग्रेज़ों ने चुरा लिया होगा और राष्ट्रबापू उसे वापस लेने पर ऐसे तुले कि अँग्रेज़ों को भारत से निकालकर ही छोड़ा—वह भी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत...  

रशीद पूरनपूरी की मानें तो विज्ञान और घड़ी का गहरा अंतर्संबंध है, इनके बिना सब रुक जाएगा। इस बात पर ग़ौर करें, तो मृत्यु भी ऐसी हो जो लगभग सब रोक देती है। हो सकता है कि अल्ला मियाँ शब्द बना रहे हों और मर जाने के आगे के कॉलम में ग़लती से फ़रिश्ते ने मौत लिखने के बजाय घड़ी लिख दिया हो।

ख़ैर, वितंडावाद के एक्सपर्ट पैनल की बातों पर ध्यान देने से पता चलता है कि समाज में भुखमरी, ग़रीबी, अशिक्षा, स्त्री-उत्पीड़न पर बात करने की बजाय सबसे ज़रूरी है कि घड़ी पर बात की जाए, क्योंकि जन्नत में घड़ी-घड़ी...

अब आप घड़ी पर एक सच्ची कहानी पढ़िए। यह विवादित कहानी नहीं है, लेकिन मेरी घड़ी खो गई थी।

मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे क़स्बे से आता हूँ, जहाँ पर कम-उम्र लौंडों में दो दलों में बँटकर एक खेल खेला जाता है। इस खेल में स्याही से या कोयले से या फिर किसी और चीज़ से, किसी दीवार पर या पत्थर के टुकड़े पर गुप्त तरीक़े से कोई आकृति बनाते हैं। इसके बाद एक दल के लौंडे दूसरे दल की बनाई गई आकृतियों को तलाशते हैं। 

मैंने भी यह खेल बहुत खेला है और आपने भी खेला ही होगा। एक दिन मैंने पत्थर के टुकड़े पर बत्ती से एक ‘घड़ी’ बनाई। इत्तिफ़ाकन वह घड़ी ठीक-ठाक बन गई और बनने पर मैंने उसे दूसरे पत्थरों के ढेर के दरमियान फेंक दिया, ताकि दूसरे दल के लोग उसे ढूँढ़ सकें। दूसरे लौंडों ने उसे ख़ूब ढूँढ़ा, लेकिन वह घड़ी उन्हें नहीं मिल पाई। 

ख़ैर, खेल ख़त्म हुआ, तो वो पत्थर का टुकड़ा भी मेरी हथेली में दबकर घर आ गया। मैं उसे ‘घड़ी’ कहकर पुकारता और कलाई पर सजाने की कोशिशें करता। मैं स्कूल बैग में भी अपनी उस घड़ी को लेकर जाता और दोस्तों को दिखाता।

एक दिन शाम के वक़्त कोई रिश्तेदार घर पर आए, जिनके साथ दर्जन भर केले और मिठाइयाँ भी आईं। उनके चक्कर में वह घड़ी मुझसे कहीं गिर गई। बस, फिर क्या था मैंने रोना-धोना मचा दिया। रोया भी ऐसा कि शायद ही प्रेम की असफलता पर भी कभी ऐसे रोया हूँ। पूरा घर सिर पर उठा लिया गया और घड़ी कहीं नहीं मिली। न मैंने खाना खाया और न टॉफ़ी ली। थक-हारकर मेरी माँ ने मुझे समझाने के लिए मेरी कलाई पर पेन से एक घड़ी बना दी। पहले गोल डायल बनाया, तीन सुइयाँ बनाईं और एक छेदों वाला पट्टा। बस, अपना तो जी बहल गया। दिन बीते और हाथ धोते-धोते वह घड़ी भी मिट गई। अब फिर रोना-धोना शुरू किया, तो अम्मी ने कपड़े धोने वाली थपकी से पीठ पर वो डिज़ाइन बनाए कि सारी ज़िद जाती रही।

यह कहानी सुनाने का मक़सद यह था दोस्तों कि गुज़रे दिनों मोहल्ला-ए-फ़ेसबुक में एक घड़ी गुम हो गई थी, जिस पर बहुत वबाल हुआ। अगर हमारी अम्मी की अदालत में घड़ी का मामला पहुँचता, तो शायद जल्दी सुलझ जाता। आप सबको यूँ बिरान न होना पड़ता। 

बहरहाल, हिंदी साहित्य के घड़ि(यालों) की घड़ी-विवाद-कथा के अस्थायी आनंद से वंचित रह गए लोग, इसका भरपूर आनंद ले सकते हैं। और जैसे मैं पहले भी कह गया हूँ : 

घड़ी ख़राब होने पर कहाँ जाना है, यह भी आप जानते हैं और घड़ी खोने पर क्या करना है; यह आपको हिंदीवालों ने सिखा दिया है।

इति!

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