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‘हिन्दवी’ उत्सव में न जा पाए एक हिंदीप्रेमी का बयान

‘हिन्दवी’ अब दूर है। उसके आयोजन भी। जब दिल्ली में था तो एक दफ़ा (लखनऊ में ‘हिन्दवी’ उत्सव के आयोजन पर) सोच रहा था कि लखनऊ में क्यों नहीं हूँ? अब लखनऊ में बैठा सोचता हूँ कि ‘हिन्दवी’ के इस आयोजन के समय दिल्ली में होना चाहिए था। बहरहाल, मुझे पता है कि ‘हिन्दवी’ के किसी भी आयोजन पर मुझे टीका देने की आवश्यकता नहीं होगी। लिख मैं इसलिए रहा हूँ कि जो छटपटाहट थी वहाँ ना जा पाने की वह निकल जाए। कभी आलोकधन्वा को सुना था, नरेश सक्सेना थे और उसमें था सुदीप्ति का संचालन।

सुदीप्ति किसी फ़ेसबुक-मित्र की एक फ़ोटो में अभी दिखीं तो मुझे वह दिन याद आ गया। अस्ल में, क्या था कि मैं गोरखपुर की उजाड़ साहित्यिक संस्कृति से आया था। जहाँ साहित्य के नाम पर अब कुछ नहीं होता। गोरखपुर में जो मेरी जितनी भी भाषा जानते थे, वे यह मानते थे कि कवि-सम्मेलन का मतलब तुकबंदी तो है ही। वह मिट गया। मैं वीडियो अगोर रहा हूँ कि जल्दी से आ जाए। मैं देख लूँ।

अभी किसी ने लिखा कि ‘हिन्दवी’ के इस आयोजन में कहीं पर कलाकारों के अलावा और कोई था ही नहीं। विनीत कुमार ने शायद ट्विटर पर लिखा था यह। सच है। ‘हिन्दवी’ के आयोजनों में वाक़ई हिंदी के अलावा कोई नहीं होता। मुझे अब भी याद है कि अविनाश मिश्र को पहचानने में मुझे कितनी समस्या हुई थी। अविनाश मिश्र नहीं कहता, ‘हिन्दवी’ के सीनियर एडिटर को। मुझे उससे पहले तक दो तीन लोग जो अतिरिक्त सक्रिय थे, उन्हें देखकर लगा कि कहीं यही तो अविनाश मिश्र नहीं? पर संपादक तो पर्दे के पीछे होते हैं। वह भी थे। इसीलिए तो वह संपादक होते हैं।

बहरहाल, ‘हिन्दवी’ के आयोजन पर वापस लौटते हैं। 

बाबुषा कोहली, जिनकी कविताएँ मैं अनगिनत बार पढ़ चुका हूँ, उनको सुनने का सुख जिन्हें भी नसीब हुआ; वे भाग्यशाली हैं। देखिए, भाग्यशाली इंसान हर तरह का भाग्यशाली होता है। एक तो आपको कविता समझ में आए और दूसरा आप भौगौलिक रूप से भी कविता सुनने के लिए उपलब्ध हों। मुझे कविता तो समझ में आने लगी है, लेकिन मैं था ही नहीं वहाँ। और यह अफ़सोस है तो है।

आशीष मिश्र ने लिखा—

‘‘हिन्दवी उत्सव में बाबुषा कोहली को सुन रहा हूँ।

चार लंबी कविताओं के बाद अब अपेक्षाकृत छोटी कविताएँ पढ़ रही हैं। वो छोटी कविताओं को साध लेती हैं, लेकिन लंबी व बड़ी कविताओं के लिए जैसी समाज-चिंता और अंतर्संघर्ष चाहिए, उसका उनमें नितांत अभाव है।

छोटी कविताएँ विशेषण विपर्यय से एक चौंध ज़रूर पैदा करती हैं, लेकिन अंतर्दृष्टि की कमी के चलते रक्ताल्पता का शिकार लगती हैं।

जाने क्यों सारी ही कविताएँ पानी खाई मूँज की तरह लग रही हैं!’’

मैं यह मानता हूँ कि कविता बहुत सब्जेक्टिव चीज़ है। लेकिन फिर भी आशीष जी का कहा कहीं एकाध बार सही हो सकता है। उन्हें लगता होगा, मुझे नहीं लगता। आपको लगता होगा, किसी और को नहीं लगता। 

पराग पावन मेरे लिए आश्चर्य हैं। आश्चर्य इसलिए कि उनकी कविताएँ, कविता लगती ही नहीं। वह कविता आत्मकथा लगती है। अच्छी बात यह है कि यथार्थ-लेखन के दंभ में उन्होंने भाषा से नाता नहीं तोड़ा। उनकी कविताओं में उनका अध्ययन भी झलकता है और यथार्थ भी।

मैं ऐसी टिप्पणियों के लिए बड़ा गड़बड़ (अयोग्य) आदमी हूँ। मगर फिर भी...

अंतिम आश्चर्य मेरे लिए निर्मला पुतुल थीं। उन्हें बुलाया जाना ही आश्चर्य था। आप यक़ीन मानिए, मेन स्ट्रीम इतना सहज नहीं है। लेकिन कला यही तो है। कलाकार यही तो हैं। हालाँकि मैं संकीर्ण सोच रहा हूँ। लेकिन दोस्तों क्या करूँ? पिछले कुछ दिनों में ऐसा हुआ है कि अब प्रतिरोधक आवाज़ों को सुना जाता है तो आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी होती है। 

रामाज्ञा शशिधर भी थे और कृष्ण कल्पित भी। रचित का ख़ूबसूरत (कथित, चूँकि मैंने सुना नहीं) संचालन भी था। और यह सब लोग ख़ूबसूरत थे/हैं। 

अब अंतिम बात—साहित्यिक आयोजनों में जाइए। यह भूलकर कि वहाँ जगह नहीं होगी। खड़े रहिए, भगदड़ मचा दीजिए। इतनी भीड़ कर दीजिए ताकि आयोजन ही बाधित हो जाए। ताकि अगली बार आयोजन और बड़ा हो सके। ताकि और लोग जो उसी दिन जानें किसी इस तरह के आयोजन के बारे में, वह भी पहुँच सकें। साहित्य, विद्वानों का कभी नहीं था, साहित्य हमेशा हम वीकेंड वालों ने ही चलाया है। वे जो कम जानते हैं, लेकिन फिर भी साहित्य से बहुत प्यार करते हैं। 

या यूँ कहूँ कि कम जानते हैं, इसलिए ही साहित्य से प्रेम करते हैं।

‘हिन्दवी’ को बहुत शुभकामनाएँ। दिल्ली को भी।

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