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एक मुसलमान का ‘पाताल लोक’

‘पाताल लोक’ का दूसरा सीज़न पूरा देखा और इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी की ‘हाथी’ जैसी अदाकारी के आगे सारे अदाकार फीके पड़ गए। मेरे जैसे दर्शक को यह देखकर ख़ुशी हुई कि चलो कम से कम किसी किरदार का नाम अंसारी तो है। ‘पाताल लोक’ में अंसारी का किरदार इतना मज़बूत तो नहीं, मगर फिर भी ज़रूरी है। साबित हो जाता है कि एक सीरीज़ को बेहतर बनाने के लिए भी एक पिछड़े (अंसारी) को एक अगड़े (चौधरी) की ज़रूरत पड़ती है। अल्लाह डेनियल की गोली का शिकार बने अंसारी को जन्नत दे और देगा भी क्यों नहीं, क्योंकि सर सय्यद अहमद ख़ाँ ने कहा था : “क़यामत के रोज़ जब ख़ुदा—मुसलमान तेली, जुलाहों, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मुसलमानों को सज़ा देने लगेगा; तो फ़रियादी सामने होकर गुज़ारिश करेगा कि ख़ुदा तआला इंसाफ़ कीजिए।”

ख़ुदा, इंसाफ़ तो करेगा ही, क्योंकि ‘सर’ हमारे मसीहा हैं। ख़ुदा उनकी तो सुनता ही है। देख लीजिए हर जगह यही मसीहा मौजूद हैं, ख़ानक़ाहों में, मुस्लिम लॉ बोर्ड में, मदरसों में। ख़ुदा उनकी सुन ही रहा है और वह बीएमडब्ल्यू से चल रहे हैं। मियाँ लुट्टन आलू बेच रहे हैं और उनकी बीवी वो—जो इस्लाम में हराम है। अल्लाह के दीन का फ़रोग़ हो रहा है।

ख़ैर, पहले एपिसोड में नगालैंड के एक राजनीतिक व्यक्तित्व ‘थॉम’ का सिरकटा शव एक होटल में मिलता है और उसके बाद एसीपी अंसारी को इस केस को सुलझाने की ज़िम्मेदारी मिलती है, जिसमें बाद में वह हाथीराम चौधरी को भी शामिल कर लेता है। अगर थॉम का शव किसी मुस्लिम मुहल्ले में मिला होता; तो जितने में हाथीराम चौधरी नगालैंड पहुँचता है, उतनी देर में तो एक पीले बुल्डोज़र पर सवार साक्षात् मुख्यमंत्री चले आते और होटल क्या लोगों के घर तक का पता नहीं चलता। उसके बाद जमीयत के लोग आते और कहते कि हम घर के मालिक को पाँच लाख रुपये देंगे और साथ में बताते कि यह पैसा ज़कात का है, हमारे बाप का नहीं। उसके बाद हैदराबाद वाले सो कॉल्ड फ़ायर ब्रांड नेता संसद में क्या-क्या नहीं बोलते! उसके बाद संसद-सत्र की समाप्ति पर अपनी मँहगी गाड़ी और सिक्योरिटी के साथ अपने महलनुमा घर लौट जाते। उसके बाद जिनके घर टूटे, उन्हें कुछ एनजीओ सिलाई मशीन देते और बतलाते कि बड़ा मुश्किल वक़्त है। घर का मलबा वहीं पड़ा रह जाता और थॉम का शव चला जाता। 

‘पाताल लोक’ में जब-जब जयदीप अहलावत के संवाद आए—ज़बान का खड़ापन और गालियों से भरपूर—तब-तब मैं अपने लोक में घूमता रहा। चौंकिए मत! मेरा लोक भी गालियों का लोक है। यह वो इलाक़ा है, जहाँ गालियों की ईजाद की जाती है। सन् 90 के आस-पास जब मैं पैदा हुआ था, तो वहाँ एक मशहूर हॉस्पिटल हुआ करता था और नाम था—जिंदल हॉस्पिटल। उस हॉस्पिटल में एक साहब काम करते थे। जब मैं बीड़ी-हुक्का पीने के दिनों में पहुँचा, तो उनकी उम्र तक़रीबन 70 बरस के आस-पास थी और मेरा उनके साथ उठना-बैठना था। वह अपने हॉस्पिटल के दिनों के क़िस्से बताते थे और बात-बात में हमारे इलाक़े के हाजी साहबों की तरह फर-फर गालियाँ देते थे। उन्हीं ने बताया कि सन् 89 के आस-पास काली आँधी आई थी। कई दिनों तक अँधेरा रहा। उन दिनों वह जिंदल में ही थे। एक मरीज़ा आईं। हस्पताली ज़बान में कहें, तो डिलीवरी का एक केस आया। उन दिनों लाइट की व्यवस्था नहीं थी; कुछ आँधी का भी असर था, सो गैस के हंडे चला करते थे। लेबर रूम में मरीज़ा और गैस के हंडे जल रहे थे। डिलीवरी की कष्टकारी प्रक्रिया शुरू हुई और स्त्री के बेटा हुआ। डॉक्टरनी नफ़ीसा ये सब काम देख रही थीं। बच्चे की नाल कटी, तो मालूम चला कि बच्चे के जिस्म में कोई हरकत नहीं है। अब बच्चे को उलटा-लटकाकर थपथपाने या थप्पड़ मारने की प्रक्रिया शुरू हुई और डॉक्टरनी नफ़ीसा बच्चे को चट से रसीद करती और कहतीं : “उठ रा ना उठ रा भो** के **...”

ये सन् 87 था और आज दुनिया चाँद पर पहुँची है, तो गालियों में भी इस इलाक़े ने महारत हासिल की है। जिस लोक में गालियाँ इतने भीतर तक धँसी हो, वह गालियों का लोक तो होगा ही। 

‘पाताल लोक’ में जिस तरह जयदीप ने एक जगह कहा : ‘‘अरे टेंसन न ले। मैं पाताण लोक का परमानेंट निवासी हूँ।’’ सहसा लगा कि अरे यह तो क़ौम का आदमी है और किसी ज़माने में ज़रूर बटला हाउस में रहता होगा! बटला हाउस माने मुसलमानों का पाताल लोक। बजबजाते रास्ते, सड़कों पर पड़े मरे हुए घूँस (आकार के बड़े चूहे) और इस सबके बीच चमचमाता कुर्ता पहने जुमे की नमाज़ पढ़ने अपने स्कूटर ‘बर्गमैन’ पर जाते मोहम्मद जयदीप अहलावत। अब नमाज़ के फ़ौरन बाद वो मुरादाबादी बिरयानी की दुकान पर तशरीफ़ ले जाएँगे और दिन का अहम फ़रीज़ा अदा करेंगे। उन्हें इस बात की फ़िक्र कहाँ कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में क्या है? वे तो इस के बाद छोटी गोल्ड और हाफ चाय से क़ौम के शानदार लड़कों में अपना नाम दर्ज करा लेंगे। कल्पना कीजिए कि बटला हाऊस में इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी...

इस पूरी सीरीज़ में तिलोत्तमा शोम की अदाकारी ने मुझे व्यक्तिगत रूप से निराश किया। उनको देखकर लगता था कि पितृसत्ता की शिकार सूखे होंठों वाली किसी मुस्लिम स्त्री को मजबूरन धर्म और मौलानाओं के दबाव में ‘मेघना बरुआ’ बनना पड़ा। यह दबाव न होता, तो शायद यह एक शानदार किरदार साबित होता। मेघना बरुआ के किरदार को देखकर मुझे सीमोन द बोउवार याद आती रही : “I was made for another planet altogether. I mistook the way.”

बहुत सारे किरदारों से गुँथी इस सीरीज़ में नागेश कुकुनूर की अदाकारी देखना भी सुखद रहा। उनके हिस्से उतना ही काम आया, जितना शाहनवाज़ हुसैन या मुख़्तार अब्बास नक़वी अपनी पार्टी के काम आते हैं।

हमारे देश में करोड़ों केस अदालत में पेंडिंग हैं, लाखों लोग जेल में अपनी सुनवाई का इंतिज़ार कर रहे हैं। यह हमारी न्याय-व्यवस्था पर एक तमाचा है। ऐसे में कहीं कोई अस्ल का हाथीराम चौधरी निकले, तो शायद कुछ बात बने।

कुल-मिलाकर कहूँ तो सभी प्रादेशिक पुलिसों, ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश पुलिस को यह सीरीज़ ज़रूर देखनी चाहिए कि आम-सा पुलिसकर्मी कैसे मतवाला हाथी बनता है और सारे द्वंद्व—प्रतिद्वंद्व को पीछे छोड़ते हुए एक केस को सुलझाता है।

एक औसत दर्शक से यह उम्मीद कभी नहीं की जानी चाहिए कि वह किसी सिनेमा को रिव्यू करे या आपको सब बता दे। यह लिखाई सीरीज़ देखने के बाद उपजी एक टीप भर है। इसे पढ़कर हो सकता है कि कुछ लोगों को यह ख़राब लगे और कुछ लोगों को बहुत ख़राब। कुछ को लगे कि यह खीझ है, कुंठा है या निशाना बनाने का बहाना... सो, वो आज़ाद हैं—बोलने के लिए। अपना क्या है, अपने पास तो सीज़न-1 का हाथीराम चौधरी का ही एक संवाद है—

“तेरा फूफ्फा पैले से ही सस्पेंडेड हांडै, बावली *!”

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