एक आवाज़ के ख़याल में उलझा जीवन
सुभाष तराण 05 जनवरी 2025
मेरे ख़याल से उससे मेरी पहली मुलाक़ात किशोरावस्था के दौरान हुई थी। यह मुलाक़ात इतनी संक्षिप्त थी कि मुझे याद नहीं हमने उस दौरान क्या-क्या बातें की। कहते हैं ख़याल में वही रहते हैं जो कभी मिलते नहीं, लेकिन तब मेरा यह मानना था कि मिलते वो नहीं है जो होते नहीं है। जो है, उनसे मिला जा सकता है। अपनी इन्हीं मान्यताओं के चलते मैंने कितनी ही बार उससे मिलने की कोशिश की। वह मिला, लेकिन हर बार बदला हुआ मिला। मैं देखकर भी उसे देख नहीं पाया। उसकी शक्ल धुँधली हुई और फिर धीरे-धीरे ग़ायब हो गई। स्मृतियों से उसकी शक्ल तो जाती रही लेकिन आवाज़ कहीं बहुत गहरे बैठ गई और वहाँ से वह शहद की तासीर लिए जब-तब मेरे ख़यालों में घुल कर तैरती रही।
कई दशकों बाद अचानक एक रोज़ उस आवाज़ से मुठभेड़ हो गई। वह अगस्त की कोई सीलन भरी शाम थी। जब एक बार फिर मुझे वही आवाज़ सुनाई दी। स्मृतियों में दर्ज आवाज़ से उसका मिलान करने के बाद मैंने पाया कि यह तो वही आवाज़ है, जिसे मैंने आख़िरी बार उस अजनबी शख़्स के मुँह से सुना था जो मुझे पहली मुलाक़ात में आत्मीय लग रहा था।
वक़्त का एक बड़ा हिस्सा गुज़र चुका था, लेकिन मैंने पाया कि आवाज़ के रंग अभी भी ज्यों के त्यों थे। उससे अब रोज़ बात होती थी। गाहे-ब-गाहे उससे बहुत सारे मुद्दों और मसाइलों पर बातें होती रही। यह बातें आम-सी बातें थीं। मैं उसकी आवाज़ सुनकर उसके ख़यालों में उसका अक्स उकेरता। इस दौरान उसका ख़याल एक आम ख़याल नहीं रह गया था। अलग-अलग शहरों में रहने के बावजूद मैंने ऐसे ही एक रोज़ उससे—उसके साथ बैठकर—कॉफ़ी पीने का अपना ख़याल साझा किया था, जिसको उसने बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया। हालाँकि हम साथ बैठकर कभी कॉफ़ी नहीं पी पाए लेकिन हमारी बातों का सिलसिला जारी रहा।
अब उसके ख़यालों की आवाजाही थोड़ी और ज़्यादा बढ़ गई थी।
यह उसी साल के सितंबर महीने के पहले सप्ताह में पड़ने वाली किसी तारीख़ की बात है। जब मैंने उससे कहीं जाने का ज़िक्र किया था, लेकिन उसने पलटकर कोई जवाब नहीं दिया। उसने भले ही चुप्पी ओढ़ ली थी, लेकिन उसका ख़याल बिला नागा आता रहा। उन सभी जगहों, कविताओं और गीतों के साथ, जिन पर हमने लंबी-लंबी बातें की थी।
वक़्त की अपनी रफ़्तार है। वह न तो किसी के लिए ठहरता है और न ही किसी के लिए तेज़ भागता है। उसे किसी के आने, किसी के चले जाने, किसी के होने, किसी के न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। या यूँ कहें कि उसे किसी भी बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन हम तो मनुष्य हैं। हमें तो फ़र्क़ पड़ता है। हम अपनी गरज से तेज़ भी भागते हैं और अपनी ख़ुशी के लिए ठहर भी जाते हैं। उससे भले ही कोई बात नहीं हो पाती थी, लेकिन उसका ख़याल पूरी शिद्दत के साथ बना रहता था।
हालाँकि मैंने सिगरेट पीना बहुत पहले छोड़ दिया था, लेकिन मेरे लिए उसका ख़याल सिगरेट की तलब हो गया। उसका ख़याल कहीं ठहर जाता तो मैं भी रुक जाता। अगर उसका ख़याल दूर जाता दिखाई देता तो मैं उसके पीछे दौड़ पड़ता।
एक बार हिंदी के एक बड़े कवि के साथ देहरादून शहर के सरहदी विस्तार में आयोजित कविता पाठ में भाग लेने के बाद हरिद्वार जाते हुए एक मज़ेदार वाक़या हुआ। हमें उसी रात 12 बजे दिल्ली के लिए रेल से लौटना था, लेकिन उससे पहले हमें रात को भोजन के लिए एक आत्मीय के निमंत्रण पर हरिद्वार जाना था। देहरादून शहर से हम दिन में ही हरिद्वार की तरफ़ हो लिए। भीड़ भरे देहरादून को पीछे छोड़ने के बाद डोईवाला पार कर हमें वहाँ से हरिद्वार की तरफ़ मुड़ना था, लेकिन सुरूर में आ चुके हिंदी के उस बड़े कवि ने ड्राइवर से गाड़ी को ॠषिकेश की तरफ़ से ले चलने की गुज़ारिश की; क्योंकि हमारे पास समय था, इसलिए गाड़ी ॠषिकेश के रास्ते पर आगे बढ़ने लगी।
मुझे लगा हिंदी का वह कवि पहाड़ पर स्थित अपने गाँव काफलपानी जाना चाहता है, लेकिन भानियावाला पार करने के बाद जैसे ही एक अस्पताल की तरफ़ मुड़ने वाली सड़क दिखाई दी, हिंदी के उस बड़े कवि ने हड़बड़ी के साथ ड्राइवर से गाड़ी रोकने की फ़रमाइश कर डाली। उसकी हड़बड़ी नई नहीं थी। हड़बड़ी उसके स्वभाव में थी, उसकी आवाज़ के स्वभाव में थी।
गाड़ी रुकने के बाद वह कहने लगा, क्या हम यहाँ थोडी देर रुक सकते हैं? मैंने कहा, क्यों नहीं। वह इत्मीनान के साथ गाड़ी से उतरा और सिगरेट जलाकर उस रास्ते को ग़ौर से देखने लगा जो अस्पताल की तरफ़ जा रहा था।
दिन ढलने को हो रहा था। हिंदी के उस कवि ने सिगरेट का एक हल्का-सा कश लिया और सड़क के दोनों तरफ़ बेफ़िजूल जल रहे लैंप पोस्ट्स की तरफ़ दार्शनिक भाव से देखते हुए कहने लगा—एक ऐसी फ़िल्म बनाई जाए... अपने दोनों हाथों से फ़्रेम बनाकर मेरे ऊपर फ़ोकस करते हुए उसने अपनी बात को आगे बढ़ाया—यह कहानी एक ऐसे सैनिक की होगी जिसे यह लगता है कि सैनिक ही है जो देश बचा सकते हैं; लेकिन पड़ोस के देश से युद्ध के चलते गंभीर रूप से घायल हो जाने के बाद वह अस्पताल में भर्ती हो जाता है और वहाँ एक नर्स उसकी इस धारणा को ध्वस्त कर देती है।
मैं यह चाहता हूँ कि तुम इस फ़िल्म में सैनिक का किरदार निभाओ। मैं उसे क्या कहता। हिंदी का वह बड़ा कवि अब मुझसे कविताओं-कहानियों के साथ-साथ अभिनय भी चाहता था।
हिंदी के उस बड़े कवि ने जो विषय और अपने ख़याल को ज़ाहिर करने के लिए जगह चुनी थी, वह उसके ख़याल के हर तरह से इतनी क़रीब थी कि मुझसे कुछ कहते नहीं बना। उसका ख़याल बड़ी शिद्दत के साथ उसके आस-पास होने की तस्दीक़ कर रहा था। बावजूद इसके, उसके ख़याल को एक ख़याल भर समझकर मैंने उन्हें गाड़ी में बिठाया और हम लोग वहाँ से आगे बढ़ गए; लेकिन आगे बढ़कर जाता भी तो कहाँ जाता। उसका ख़याल तो हर जगह मुझसे पहले पहुँचा हुआ मिलता।
इस दुनिया में उसके ख़याल के अलावा भी बहुत कुछ आ और जा रहा था, लेकिन मुझे अपने काम और उसके ख़याल के अलावा किसी और चीज़ से कोई सरोकार नहीं था। इस बीच अचानक एक कोविड-19 नाम की महामारी आन पड़ी। उस महामारी ने कितने ही लोगों को उनके ख़यालों समेत निगल लिया और कितने ही लोग कितने ही भयानक और विभत्स ख़यालों के साथ ज़िंदा रहने के लिए अभिशप्त छूट गए।
महामारी अपने शबाब पर थी। लोग उससे बचने के लिए उपाय-दर-उपाय किए जा रहे थे लेकिन वह तो महामारी थी, उसका ख़याल भर लोगों को बुरी तरह से डरा रहा था। उससे बचना इतना आसान नहीं था। मैं भी महामारी से बचने के लिए यहाँ से वहाँ भागता फिर रहा था, लेकिन एक रोज़ उसकी चपेट में आ गया और बुरी तरह से बीमार हो गया। इसे इत्तेफ़ाक़ ही कहा जा सकता है कि हिंदी का वह बड़ा कवि भी—जो फ़िल्म बनाना चाहता था—उसी महामारी के चलते बीमार हो गया।
अपनी सारी ताक़त बटोरकर मैं महामारी से जूझ ही रहा था कि अचानक एक रोज़ एक संदेश के जरिए उसकी वह जानी-पहचानी आवाज़ आ धमकी और फिर उसके जाने तक आती रही उसके ही ख़यालों की तरह।
उसकी आवाज़ एक लंबा सफ़र तय कर मुझ तक पहुँचती। उसकी आवाज़ इस दुनिया की चीख-चिल्लाहट और कर्कश शोरगुल से भरे वातावरण को पार करती हुई, मुझ तक ऐसे आती है, जैसे—चिंघाडते हुए पानी के जहाज के डेक पर महसूसी जा रही समुद्र की ठंडी और नमकीन हवा आती है। जैसे—किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए फूल रहे दम के दौरान आने वाला कोई ठौर। जैसे—एक स्त्री हाथ में फूल चुनने की टोकरी लिए अपनी सफेद साड़ी को कीचड़ भरे रास्ते में बचाते हुए बढ़ आती हो फूलों से भरे बाग़ीचे की तरफ़। जैसे—नीम अँधेरे में किसी पहाड़ी घर की खिड़की पर सौर ऊर्जा की टिमटिमाती हुई रोशनी। कभी-कभी तो उसकी वो आवाज़ मुझ तक ऐसे भी पहुँचती थी, जैसे—अपने आप में नमी को समेटकर बरसने को आतुर समुद्री हवाएँ पहाड़ों पर पहुँचती हैं।
उसकी वह आवाज़ जब भी मुझ तक आती, वह मेरी इच्छाओं के घोड़े पर जीन कसती और मुझे अपने साथ एक ऐसे सुखद स्थान की तरफ़ सरपट दौड़ा ले जाती जहाँ हम दोनों के अलावा जंगल, पहाड़, नदी, हरी घास और फूलों से लदा एक हरा-भरा बुग्याल होता। बहुत बार वह जगह समुद्र से घिरा कोई टापू भी हो जाती। उसकी वह आवाज़ मेरे भीतर उतरती, दौड़ती, सनसनाती, मुझे चूम लेती और अपने स्पर्श से मेरे पोर-पोर को सहलाती। उसकी वह आवाज़ मेरे आगोश में काँपती, महकती और गाती। फिर उसकी वह नर्म और मुलायम आवाज़ मुझ पर बिछ जाती और मुझे ओढ़ लेती, माँसपेशियाँ जैसे ओढ़े रहती है त्वचा को।
उसके ख़यालों के साथ-साथ उसकी आवाज़ का आना कितना सुखद था मैं बता नहीं सकता। बीमारी के उस दौर में उसकी आवाज़ शिफ़ा की तरह आई। उसने जब मुझे यह बताया कि वह जाने के लिए आई है तो मैं उदास हो गया, लेकिन उसकी आवाज़ में तो जादू था। ऐसा जादू जिसने एक रात मुझे उसके पास लाकर पटक दिया।
यह जनवरी की कोहरे से अटी एक ऐसी सर्द रात थी जो उस तक पहुँचते-पहुँचते आधे से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। एक लंबी दूरी पार कर जब मैंने उसे फोन किया उस वक़्त वह अपने विद्यार्थियों के साथ सड़क में टहलते हुए मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैं थोड़ा रास्ता भटक गया था। उसने मुझे वहीं रुकने को कहा और अपने विद्यार्थियों को विदा कर वह मेरे द्वारा बताई गई जगह पर आ गई।
मेरी उससे यह पहली मुलाक़ात थी। उसने सफ़ेद रंग की चुस्त टीशर्ट के ऊपर नीले रंग की जैकेट और काली-सफ़ेद धारियों से भरा पायजामा पहना हुआ था। बिजली की रोशनी में यहाँ-से-वहाँ बदहवास भागते कोहरे के बीच सड़क के किनारे-किनारे वह सधी हुई चाल में मेरी तरफ़ बढ़ी चली आई। मैंने खिड़की का शीशा उतारा तो उसने मिलाने के लिए अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया। मैंने धीरे से उसके हाथ को छुआ। मुझे डर था कि कहीं वह मेरे छूटे ही ग़ायब न हो जाए। उसका स्पर्श उसकी आवाज़ के जैसा ही था। उसने मेरा हाथ थाम लिया। वह गर्म और गुदगुदा था।
उसके खुले घुँघराले बालों को सर्द हवाएँ उसके चेहरे पर बिखेरे जा रही थी। उसके भरे हुए चेहरे पर पसरी मुस्कान ने उसकी आँखों को और भी ख़ूबसूरत बना दिया था। इस मुस्कुराहट के चलते उसके भिंचे हुए होंठ उसके गालों के फैलाव को और बड़ा कर रहे थे। वह उतनी ही शांत थी, जितना मैं बेचैन था। वह बग़ल की सीट में बैठ गई और उसके द्वारा बताए गए रास्ते पर चलते हुए हम एक कॉलोनी में घुस गए।
शहर के बाहरी छोर पर राष्ट्रीय राज मार्ग के किनारे एक आलीशान कॉलोनी की एक तीन मंजिल की कोठी के सबसे ऊपर वाले माले पर उसका एक बड़ा-सा कमरा था। इस बड़े से कमरे के बाहर एक बालकनी थी, जहाँ गमलों में लगे पौधों पर कुछ कलियाँ फूल होने को बेचैन हुई जा रही थी।
वह सर्दियों का मौसम था।
मैं एक बार उसके पास गया तो वह सर्दियों के उस मौसम में गर्म ख़याल की तरह कितनी ही बार मेरे पास आती रही। उसने एक बार देर रात मेरा इंतज़ार किया, मैंने कई रातों को उसका इंतज़ार किया और उन रातों के छोर पर खड़ी सुबहों के अँधेरों में उसे विदा कहा। फ़रवरी के आते-आते उसके ख़यालों में यूँ रंग आ गए जैसे फूलों में रंग आ जाते हैं। उसके ख़यालों में अब उसकी ख़ुशबू भी शुमार हो चुकी थी। उसके ख़यालों में उसका स्पर्श शामिल हो चुका था। यह जानते हुए भी कि बसंत के जाते ही वह भी चली जाएगी, उसके आने भर से उसके जाने का ख़याल हाशिये पर चला जाता था।
महामारी हिंदी के उस बड़े कवि को लील गई जो फ़िल्म बनाना चाहते थे। भले ही वह फ़िल्म अब कभी नहीं बन सकती लेकिन जिस वक़्त हिंदी के उस बड़े कवि ने उस फ़िल्म को बनाने का ख़याल मुझसे साझा किया था, उस वक़्त मेरे मन में जो असहायपन का भाव था, वह अब एक उम्मीद में बदल चुका था।
उस महामारी ने दुनिया भर के ख़यालों को बदरंग कर दिया था, लेकिन उसका ख़याल उसके आने की तरह ही ख़ूबसूरत बना रहा।
उस साल उसके कारण बसंत आया था या बसंत के कारण वह, मैं नहीं जानता; लेकिन बसंत गया तो वह भी चली गई। हिंदी के एक कवि ने जाने को हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया बताया है। वह गई तो उसका ख़याल रंगहीन और गंधहीन हो गया। उसके ख़याल से उसका स्पर्श जा चुका था। उसका ख़याल अब काँच की किरचनों में तब्दील हो चुका था। मुझे उसके ख़यालों से हाथ झाड़ लेना चाहिए था, लेकिन मैंने उन्हें सीने से लगाए रखा। मेरी इस हरकत का नतीजा यह हुआ कि उससे मेरा आगोश बुरी तरह से ज़ख्मी हो गया। अपने आप को उसी हालत में छोड़कर मैं ख़ुद से दूर भागकर उसके तल्ख़ हो चुके ख़यालों से निजात पाना चाहता था, लेकिन ऐसा ना हो सका।
मैं पैर-पैर चला तो उसका ख़याल रास्ते में काँटों की तरह बिछा मिला।
मैंने भागने के लिए गाड़ियों, रेलों और जहाज़ों का सहारा लिया तो उसका ख़याल मेरी सीट पर पहले से बैठा मिला। मैंने पानी में डूब कर उसके ख़याल से मुक्ति चाही तो उसका ख़याल पानी बन गया। पहाड़ों पर गया तो वह वहाँ निर्मम और नृशंस बर्फ की शक्ल में पहले से विद्यमान मिला। उसका ख़याल आँखों को चुँधियाता रहा, कानों में चीखता रहा। उसका ख़याल मेरी देह में जब तब त्वचा और माँस के बीच कसाई के छुरे की तरह दौड़ने लगता।
कभी-कभी थूक निगलते हुए लगता कि उकसा ख़याल जीभ के नीचे रखा हुआ साइनाइड का कैप्सूल है।
समय गुज़रा और मैंने उसके उन ख़यालों के साथ—जो अब मेरा हिस्सा थे—जीना सीख लिया।
एक लंबे अरसे बाद एक रोज़ अचानक उसका फोन आया। उसने पूछा, बताया कुछ भी नहीं। बस, आख़िर में एक बात कही—“अपना ख़याल रखना”।
उसकी यह बात सुनकर मैं चुप हो गया, कहता भी क्या—जिसे उसके ख़याल से कभी फ़ुर्सत ही नहीं होती, वह अपना ख़याल रखने की उसकी फ़रमाइश पूरी करता भी तो कैसे करता।
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