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बोरसी भर आँच : चीकू की चीख़ों में मनुष्य का चेहरा

“माँ कभी न थकने वाली चींटियों की तरह अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाती रहती।”

चीकू की चमकीली पर पनीली आँखें दुनिया भर के दर्द का समुद्र भीतर समाए बड़ी हो रही थीं। नन्ही उम्र में चट्टानी प्रतिरोधक क्षमता चकित ही नहीं विस्मयकारी है। कविताओं की मुरीद हूँ। अब चीकू के गद्य की भाषा, शिल्प, प्रवाह की सराहक हूँ। आत्मवृत में मानव समूह के अनुभव, गहन संवेदना, अभिव्यक्ति, चेतना, प्रेम, परिवार और दांपत्य की भावात्मक तलाश—चीकू का संसार है। 

पठनीयता में अनुस्यूत वेदना नेत्रों के कोर पनियल कर देते हैं। अघोषित लेखक चीकू अर्थात् यतीश कुमार कॉमिक-ट्रेजेडी, विपदा-संघर्ष, कल्पना-यथार्थ के समानांतर रेखा में विनिर्मित सामाजिक, राजनीतिक विडंबनाओं के विद्रूप चेहरे पर अंकित जातिवादी जकड़बंदी में फंसे समाज की त्रासदी का जीवंत चित्र खींचा है। स्याह वक़्त में निर्मल, पारदर्शी और क्षत-विक्षत जीवन-प्रसंग रेखांकित भर नहीं, वस्तुत: बहुपरतीय अंतरंग छवियाँ स्मृति फलक से उभरे हैं। 

चीकू के संघर्ष का मनोविज्ञान किऊल नदी, मोकामा, बेगूसराय, लखीसराय, सूर्यगढ़ और दियारा है, जिसे चंबल के समकक्ष की संज्ञा का बिंब अनकहे प्रश्नों पर विराम है। ख़ौफ़ के मंजर चित्रपट। माँ, बहन, भाई, पिता और चीकू साथ-साथ पीड़ा में हैं और पीड़ा उनमें है। “घटित बदलाओं में घूसखोरी का भयावह रूप देश की आत्मा में सेंध लगाकर कुंडली जमाकर बैठ गई थी। हिंसा और भ्रष्टाचार रेशा-दर-रेशा फैल चुका था। संचरित भ्रष्टाचार का वायरस पूरे सिस्टम को संक्रमित करने लगा।” 

परिस्थितियों की चक्की में पिसता चीकू का जीवन और परिवार बाल मनोदशा की कई परतें दर्ज हैं। लेखकीय ईमानदारी मूलतः धनात्मक स्थानांतरण (Positive Transference) है जो कि घटनात्मक संस्मरण का प्राणवायु है। साहसी व वैश्विक दृष्टि संपन्न संस्मरण ‘द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट विथ ट्रूथ’—महात्मा गांधी, ‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’—ऐन फ्रैंक, ‘लॉग बॉक्स टू फ़्रीडम’—नेल्सन मंडेला, ‘जलती हुई नदी’—कमलेश्वर, ए लाइफ़ इन वर्ड्स : मेमोयर्स’—इस्मत चुगताई, और ‘पिंजरे की मैना’—चंद्रकिरण सोनरेक्सा बार-बार कौंधती रहीं।

नींद, भूख, भय, स्पर्श, पनाह और विराट त्रासदी से उपजे अतिक्रमण के केंद्र में नदी है। नदी के केंद्र में तत्कालीन समय-समाज और समस्याएँ हैं। अबोली नदी गवाह है। दोहन, पर्यावरण संकट पार्श्व से वर्चस्व की जंग ‘सूखा और बाढ़’ का प्रतीक है, जिसमें विनाश विन्यस्त है। विस्मृति की कोंख में स्मृति का नक्शा किऊल नदी की हृदयस्थली में उठने वाली तरंगों के वेग-आवेग का मार्मिक दृश्य देश के हालता का शिनाख्त है। 

व्यथा-कथा में संघर्ष, शरारत और चंचल ख़ुराफ़ात से उपजे ‘हँसी और रुदन’ पुस्तक के विशिष्ट पक्ष है। अदृश्य सूत्र संस्मरण में साँस लेते हैं। पूर्वार्ध बेहद मार्मिक तो उत्तरार्ध सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक, आर्थिक और पारंपरिक परिवर्तन से परिपूर्ण। चीकू की आत्मवृत कथा ‘युक्त से मुक्त’ शैली की है। चीकू के वैयक्तिक कोलाज से झाँकते देश के हालात, बदलते करवटों की सघन आहटें संग-संग चलती हैं। 

विचलित वक़्त में पनपे कोमल परिदृश्य ‘हरी घास पर सफ़ेद कफ़न’ के दरिंदे दृश्य आँसुओं की नदी का अमानवीय प्रतिसंसार है। आइये चेतस, प्रखर, प्रतिरोधी बालक चीकू अर्थात् यतीश कुमार से मिलते हैं और पुस्तक परिदृश्य पर फैले ग़रीबी, अवसाद, विद्रोह, प्रेमिल सनक की ख़ास बीमारी से परदा उठाने का प्रयास करते हैं...

डॉ. सुनीता : संस्मरण लिखना अतीत की खिड़की पर लेजुर से लटकते बेली के गरल को पीना है। आपने कविता से सीधे संस्मरण का चयन किया। संस्मरण लिखने के पीछे की क्या ठोस वजह है?

यतीश कुमार : सच कहूँ तो वर्ष 2015 के आस-पास जब हिंदी पढ़ने-लिखने की ओर दोबारा लौट रहा था, तब अधिकतर कविताएँ ही लिख रहा था। हाँ, छपने की शुरुआत संस्मरण से हुई। ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका में छपा। साहित्यिक ब्लॉग्स और दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका ‘अहा! ज़िंदगी’ से विस्तार हुआ। लेखन की शृंखला चल निकली। संस्मरण और यात्रा-वृतांत के समानांतर दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। 

संस्मरणों के पुराने पाठक गद्य लिखने को निरंतर प्रेरित करने लगे। दो मुख्य शख़्सियत हमारी प्रिय साहित्यकार ममता कालिया और दूसरे दिवंगत प्रो. आशुतोष सिंह। हालाँकि इन कारणों से ही गद्य-विधा से सीधे संस्मरण में नहीं उतरा। बड़ी वजह कोविड के पश्चात भूलने की बीमारी है। अंदर से कचोट उठी कि मैंने जो बचपन जिया है वह असामान्य था। 

असामान्य परिस्थितियों का दस्तावेज़ीकरण नहीं कर पाया तो बड़ी नाइंसाफ़ी होगी। सत्तर- अस्सी और नब्बे के दस्तक के बिहार की राजनीतिक, सामाजिक और जातीय समीकरण का आज की युवा पीढ़ी को इल्म नहीं है। युवाओं के मानस में उन दशकों के दरवाज़ा खोलने की समझ ने ज़ोर मारा। असल में भूलने के डर ने मुझसे वो सब करवाया जिसका जिक्र ‘स्मृतियों की तपन’ वाले हिस्से में व्यापकता से दर्ज है। 

जहाँ तक ‘लेजुर से लटकती बेली’ की बात है, अनुभव के बल पर यही कहूँगा कि ‘बचपन जितना नाज़ुक होता है उसकी स्मृति उतनी ही सबल होती है’। अक्सर उन यादों को सपरकर लिखना असंभव होता है। अनायास अतीत की यात्रा से गुज़रना, यादों की बौछार में भीगने से रुलाई का रेला बहता है। रुदन ज्यों-का-त्यों भीतर ठहरा जाता है, जिसे टघराने के लिए अनचीन्ही यादों से अचानक टकराते हैं। फिर सब कुछ याद आने लगता है। लगता है कि अरे कल ही तो घटा था। हाँ! बस कल ही। यह कल भी क्या चीज़ है, झट भविष्य को वर्तमान कर देता है। 

कल-आज के घालमेल वाली दुर्लभ यात्रा से स्मृतियों के पन्ने पुराने नहीं होते। ठिठकी स्मृतियाँ समय के हर मोड़ पर मुस्कुराती, झिलमिलाती हैं। सारांश यह कि तमाम वजहों में ठोस वजह ख़ुद को हल्का करना था जो सिर्फ़ लिखकर ही मुमकिन था।

डॉ. सुनीता : संस्मरण लेखन की आपकी रचना प्रक्रिया क्या रही?

यतीश कुमार : (फीकी मुस्कान फिर भावों का कोलाज) लेखन प्रक्रिया का सच मुझे नहीं पता, हाँ बस इतना जानता हूँ कि ‘एक हूक उठती है और वह हूक चाहे जो करवा ले’। सौ बात की एक बात असल में मन एक अजायबघर है, जहाँ स्मृतियाँ बहुरंग-रूप में पनाह लेती हैं। एकांत रात्रि में अर्द्ध-चैतन्य से बाहर, चेतना के मनोभाव पर नृत्य करती हैं। कभी-कभी सुबह-स्वप्न में ढल जाती हैं। कुछ स्मृतियाँ चुप और स्थिर रहती हैं, लेकिन असमय टीस से जेहन में कौंधती हैं। अंततः संस्मरण का हिस्सा बन जाती हैं जिसे लिखने से दिल को सुकून मिलता है। सुकून की चाह ने लिखवाया। मैं सच में किसी ‘प्रोसेस या प्रक्रिया’ से वाक़िफ़ नहीं हूँ जिसके तहत संस्मरण लिखा जाता है।

मुझे लिखने की जल्दी थी क्योंकि विस्मृति पैंतरे दिखाने लगी थी और यह कोरोना संक्रमण के बाद ज़्यादा ही चालाक हुई। बंद स्मृतियों के दरवाज़े नहीं खुलते, कौंध से झरोखा ही खुलता है। झाँकना शुरू करो तो खिड़कियों की शृंखला खुलने लगती है। बेसोच जगाता आकाश स्मृतियों की दुनिया में प्रवेश करते ही बेआवाज़, अबोला, बेजान ढूँढता है। 

आकाश के चंदोवे तले एकांत हमेशा सुखद लगता है। वहीं बैठ याददाश्त का टेप-रिकार्डर रिवाइंड करूँ, लेकिन डर लगता है कि कहीं अचानक बंद न हो जाए। स्मृतियों के उद्दंड बच्चे बारी-बारी जेहन में घुसते हैं। बच्चों की हरकतें क़ैद करते ही घटनाओं का असर मन- मस्तिष्क पर गहराने लगता है। मैंने दर्ज करने की कोशिश की है। तकलीफ़ों को उकेरने वाले सटीक शब्द मेरे शब्दकोश में कितने हैं? नहीं पता, बावजूद कोशिश बदस्तूर जारी है।

स्मृतियों के तार कटीले होते हैं, जिनमें अनगिनत लम्हें फँसे-फँसे फड़फड़ाते हैं। संघर्ष की यंत्रणा मन के भीतर तीखा दर्द पैदा करते हैं। यादों के दृश्य फ़ॉरवर्ड-रिवर्स होने लगते हैं। अंदर से तेज भँवर-सी उमेठती है, तभी भाव वमन की चंद पंक्तियाँ काग़ज़ पर पसरते हैं। चित्त शांति की अनुभूति करता है। होलोकास्ट यात्रा से मुक्ति संस्मरण लिखने से सुकून संभव हुआ। अब आप इसे ही ‘प्रक्रिया या प्रोसेस’ जो चाहे मान लें।

डॉ. सुनीता : पीड़ा का पाठ कल्पना नहीं यथार्थ को पुनः जीना होता है। आपका संस्मरण ज़िंदगी के सूक्ष्म जीवों की तरह कंक्रीट के काँटे दिल, दिमाग और पीठ पर उभरे हैं। सहज प्रवाह का संतुलन कैसे बनाया?

यतीश कुमार : यक़ीन मानिए, (दृढ़ आभा से चमकती आँखें थीं सजल) एक भी पंक्ति सायास नहीं है, यही इस किताब की आंतरिक शक्ति है जो शायद पाठ और लेखनी के प्रवाह को बनाती है। जमा खूरंट खुरचने की बजाए शब्द-हूक में अंकित होते ही प्रस्फुटित लावा पिघलता है। अबाध को न बाँधने की कोशिश में प्रवाह लाज़िमी है। यह संस्मरण ‘अतीत में झांकने की सैरबीन’ है। स्मृतियों के दरवाज़े खुलते ही परिदृश्य की सूक्ष्मता ज़्यादा साफ़ दिखती है। लिखते वक़्त मन में झिझक नहीं, एक ज़िद थी। दिल से की गई अभिव्यक्ति अपना प्रवाह ख़ुद ढूँढ लेती है। ज़रूरी था इस प्रवाह में संतुलन जिसके लिये उन किरदारों से मिलना, दीदी से बार-बार बातें करना ताकि कुछ रह न जाए या कुछ ग़लत न लिखा जाए जो यथार्थ और कल्पना के संतुलन को बिगाड़ दे। अब कितना सफल हुआ यह समय और पाठक ही तय कर सकते हैं। किताब सफ़र में है।

डॉ. सुनीता : संस्मरण लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? पाठकों से अपने पसंदीदा संस्मरण या लेखक के संदर्भ में अनुभव साझा करना चाहेंगे?

यतीश कुमार : मैं पिछले पाँच साल से अनवरत कथेतर पढ़ रहा हूँ। मेरे ख़याल से कथेतर में ईमानदारी का पुट अधिक होता है जो मुझे आकर्षित करता रहा है। उपन्यास या कहानी में काल्पनिक किरदार में प्रेरणा का अंश थोड़ा कम होता है। कथेतर किरदार यथार्थ में पगे होते हैं, जिससे स्वयं को सीधे जोड़ पाते हैं। किताबें जिन्होंने मुझमें संस्मरण के बीज बोए हैं—अजीत कौर : ‘खानाबदोश’, इजाडोरा डंकन : ‘माय लाइफ़’ (‘इज़ाडोरा की प्रेम कथा’), रवींद्र कालिया : ‘ग़ालिब छुटी शराब’, काशीनाथ सिंह : ‘काशी का अस्सी’, मीर तक़ी 'मीर' : ‘जिक्रे- मीर’, विंसेंट वान गॉग की आत्मकथा, अक्षय मुकुल : ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ़ अज्ञेय’, कृष्णनाथ : ‘किन्नर धर्मलोक’, ‘स्पीती में बारिश’, विश्वनाथ त्रिपाठी : ‘स्मृति- आख्यान’ ‘नंगातलाई का गाँव’, राजेंद्र यादव : ‘मुड़-मुड़ के देखता हूँ’, मन्नू भंडारी : ‘एक कहानी ये भी’, निदा फ़ाज़ली : ‘दीवारों के बीच’ और ‘दीवारों के बाहर’, तुलसी राम : मुर्दहिया और मणिकर्णिका, शरण कुमार लिंबाले : अक्करमाशी इत्यादि किताबें इस विधा में उतरने का माध्यम बनीं। इन किरदारों की सरगोशी सिरहाने प्रेरित कर लिखवाती रहीं। 

आजकल विद्यार्थी बहुत जल्द टूट जाते हैं। यह ख़याल मन-मस्तिष्क को मथता रहा। मेरा आत्मवृत संस्मरण एक भी इंसान के कमज़ोर पल में मददगार बना तो लिखना सफल हो जाएगा।

डॉ. सुनीता : आपने संस्मरण के माध्यम से अपने जीवन संघर्ष को दुनिया के समक्ष रखा है। माता श्री की प्रतिक्रिया क्या रही? उन्हें प्रकाशन से पूर्व पाठ कराया?

यतीश कुमार : माँ! (स्थिर साँस फिर शब्द शैलाब) किताब के प्रत्येक हिस्से से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अवगत हैं। माँ को शुरू से यह बात पता थी कि मैं लिख कर स्वयं को स्मृतियों से आज़ाद कर रहा हूँ। लिखने के क्रम में माँ दिशा-निर्देशक की भूमिका में रहीं, इसे यूँ समझें कि भटकन से बचने के लिए वो दिशा सूचक यंत्र बनीं। असल में स्मृतियों की भी कई फाँके होती हैं, जो पूरी तरह एक बार में नहीं दिखती। बार-बार टटोलने पर भी हर बार कुछ हिस्सा छूट ही जाता है। 

विस्मृति के बादल घने होते तो उसे छाँटने के लिए मैं, माँ और दीदी दोनों के पास जाता। उनसे अनसुलझा साझा किया। वे बातें जो मेरे ज़्यादा छुटपन की हैं उसे ख़ासकर समझा। लिखने के बाद पांडुलिपि का शुरुआती हिस्सा माँ ने पढ़ा और फिर आगे पढ़ नहीं पाईं। दीदी, भाई और उर्मिला मौसी वाला हिस्सा माँ को टुकड़ों में सुनाया, ताकि समझता चलूँ कि यथार्थ और कल्पना के बीच भटक तो नहीं रहा। माँ ने ही पुष्टि की। यह भी सच है कि माँ उस दर्द को दोबारा नहीं जीना चाहती थीं। 

छपने के बाद माँ के मन में भय था, इसलिए पहली बार दो माह में पढ़ा। गर्व की अनुभूति में दुबारा पढ़ा। अभी हाल ही में मैंने देखा कि तीसरी बार पढ़ रही हैं। इसबार पढ़ते हुए वो बहुत ख़ुश हैं। स्मिता पढ़ने से कतराती रही क्योंकि फिर से पढ़ते हुए वह मेरे दर्द को यूँ नहीं जी सकतीं। 

यूँ समझ लीजिए कि माँ मेरे लिए स्मृति के शीशे पर चलने वाली वाइपर रहीं। जब भी धूल जमता वाइपर असर दिखाता। आपको यह पंक्तियाँ याद होगी—“मैंने माँ की अँगुली बहुत तेज़ पकड़ ली। आज भी स्मृति में माँ अँगुली थामे खड़ी हैं। उनके चेहरे की रेखाएँ दृश्य में अब भी तनी हुई हैं। हम आज भी परिदृश्य में उस दृश्य को जीते रहते हैं।” मेरे लिए यही सबसे बड़ा सच है।

डॉ. सुनीता : युवा यतीश कुमार कवि और अफ़सर दोनों हैं। अति व्यस्तता के मध्य कलम हेतु और ढेरों पुस्तकों के पठनीयता के बीच संतुलन कैसे बिठाते हैं?

यतीश कुमार : प्राथमिकता और समर्पण ये दो बेहद ज़रूरी टूल्स हैं। इसी कंपार्टमेंट में जीना है और जब जो भूमिका है उसमें सौ प्रतिशत देना भी है। ऑफ़िस में अधिकारी यतीश कुमार है तो साहित्य दूसरे कंपार्टमेंट में रहता है। किसी कार्यक्रम में साहित्यकार यतीश कुमार है तो अधिकारी अदृश्य होता है। ज़िंदगी कला है। जब आप दोनों से प्रेम करते हैं, संतुलन मुमकिन है। संतुलन का ज़िक्र करना ज़रूरी है जो मैंने माँ से सीखा। संस्मरण में बार-बार ज़िक्र आता है। संतुलन साधने में अनुशासन की महत्ता बड़ी होती है। जब साहित्य की तरफ़ दुबारा लौटा तो समझ रहा था कि बहुत पढ़ना शेष है, बिना पढ़े शब्द सहेजना और बरतना नहीं आएगा। 

एक दशक से प्रतिदिन लगभग 50 पन्ने सुबह साढ़े पाँच से सात या फिर साढ़े सात तक का समय सिर्फ़ पढ़ना अनिवार्य किया है। प्रिय खेल गोल्फ़ का मोह त्यागना पड़ा। मेरे पास सीखने के लिए किताबों को छोड़ कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अकादमिक पृष्ठभूमि से हिंदी की सतरंगी दुनिया में क़दम नहीं रखा इसलिए किताबों को सघनता से पढ़ने का प्रतिरुप ‘आविर्भाव’ है। कविताई किताब की तह में उतरने का सुंदर मार्ग है। ठोस के तरल-गरल को समझा। यह समझिए कि संतुलन का कारक बिंदु प्राथमिकता, समर्पण और अनुशासन है। क़लम इसी भरोसे चल रही है।

डॉ. सुनीता : ‘बोरसी भर आँच’ में चित्रों के माध्यम से वस्तुस्थिति को बेहद ख़ूबसूरती से उकेरा गया है। कला का पारखी चित्रों से पाठ कर सकते हैं। शब्द विज्ञ अनुरागी शब्दों की यात्रा में शामिल हो सकते हैं। दोनों के बीच की कड़ी में आप स्वयं किसे संप्रेषणीय मानते हैं?

यतीश कुमार : (स्फीत मुस्कान से खिले अधर) यहाँ मामला किसी एक को मज़बूत करने का है ही नहीं। यहाँ तो परस्पर विस्तार है। साझी संस्कृति के असीमित वितान पर ध्यान दिया गया है। अपनी तीनों किताबों को मैंने कभी अकेले की किताब नहीं कहा, सदैव साथी चित्रकारों की किताब कहा है। तीनों किताबों में चित्रों की बारीकी पर विशेष ध्यान रहा। मूल कारण यह भी है कि मैं चित्रकला की महत्ता से अवगत रहा हूँ। 

प्रथम पुस्तक ‘अंतस की खुरचन’ का कवर और बैक कवर पेज संजू जैन के चित्रों से सजा है। चित्र किताब के मिज़ाज को दर्शाते हैं। दूसरी किताब ‘आविर्भाव’ पर भी संजू जैन की छाप है। संग्रह में संकलित 11 कृतियों पर कविताएँ हैं। विनय अंबर के उकेरे रेखाचित्र कविता का प्रतिबिंब हैं। यह एक साझा प्रयोग है जो भाई विनय से विमर्श के पश्चात आकार लिया। तीसरी किताब पर मुझे पोर्ट्रेट स्टाइल का कवर चाहिए था। स्याह-सुनी आँख को भाई संजय हरमलकर ने अपनी कूची से ‘बोरसी भर आँच’ में निरूपित किया। अब पुस्तक प्रतिबिंबित हो रही है। स्मृतियाँ आँच लिए मिलती हैं, यही सच है। 

‘जलना या पिघलना’ हमारे ऊपर निर्भर है। भाई विनय अंबर ने किताब के हर अध्याय पर अपनी कूचे से समानांतर संसार गढ़ा है। सारतत्व रूप में रेखाचित्र अंकित है। संजू जी ने तो अपनी सौ से ज़्यादा पेंटिंग्स मेल कर दी पूरी आज़ादी के साथ कि जो चाहो चुन लो। कभी- कभी मैं सोचता हूँ कितना ख़ुशनसीब हूँ जो तीन महान् प्रसिद्ध चित्रकारों का असीम स्नेह मिला जबकि संजू जी से तो मैं अभी तक प्रत्यक्ष रूप से मिल भी नहीं पाया।

अब फिर प्रश्न पर आता हूँ मेरा मानना है कि चित्रकला या लेखनी अंततः अनुभव से सिंचित संवेदनाओं का संप्रेषण है। कलाकार, चित्रकार या लेखक रचकर बस हल्का होता है। दिव्य पल का साक्षी बनता है। हम सब निमित्त हैं ईश्वर के और हमें उसने चुना। जिसके लिए हमें उन्हें बारंबार धन्यवाद देना चाहिए। अपनी तीनों किताबों में मैंने पाठक को प्राथमिकता दी। पाठक दोनों माध्यम में मिलते हैं तो संप्रेषण की मात्रा और दायरा बढ़ता है। चित्रों में छूटे, शब्दों में उभरते हैं। यूँ कहें कि यह प्रयोग डबल बोनांजा है।

संवाद के माध्यम से अग्रज चित्रकारों को हृदयतल से धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मुझे स्नेहाशीष रुप में कला- प्रेम सौंपा, निश्छल स्नेह के बदले मैं सिर्फ़ अपना सृजन ही दे पाया। जिसे मूल्य चुकाकर पाना असंभव है। एक कला दूसरे को परस्पर संभालती है, इसका सुंदर उदाहरण तीनों किताबें हैं। हिंदी-साहित्य जगत में सकारात्मक रिश्तों ने संभाला। बेहद प्यारे लोगों ने मेरा हाथ या यूँ कहूँ मेरी अँगुली एक बच्चे की तरह पकड़ी। मेरी सृजन यात्रा के अभिभावक, मित्र और मार्गदर्शक हैं। मैं उन सब के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। मेरी हार्दिक इच्छा है कि यह आपबीती, परबीती की तरह सबसे मिले, यथासंभव बतियाये! जिन प्रश्नों में जिज्ञासा कम पछतावा ज़्यादा है, जिन्हें कुरेदने से डरता रहा उन उत्तरों को लिख देने से असीम सुकून मिला है। चर- अचर सृष्टि के बीच ख़ुद को संस्मरण के बहाने छोड़ जाने के सायास में मन प्रेरणा पुंज बना रहा, जिसके रौशनी में लिखने की यात्रा जारी है …जिसे मैं आप सबके हवाले कर चुका हूँ।

डॉ. सुनीता : यतीश कुमार जी आज आपसे पुस्तक के बरक्स मा'ना-ख़ेज़ वार्तालाप हुई। आपके सहज, सौम्य, ईमानदार लेखन से जुड़े संवाद व प्रतिक्रिया हमारे पाठकों के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का कार्य करेंगे। चीकू की चंचल शरारत से झाँकता भारत खासकर बिहार परिक्षेत्र से परिचित होते युवा अतीत की खिड़की से वर्तमान का ठोस चित्र खींच सकेंगे। संतुलित, सुरुचिपूर्ण वार्ता से साहित्यप्रेमी निश्चित ही लाभान्वित होंगे। भविष्य में संवाद बना रहे। आपकी क़लम चलती रहे। इस उम्मीद के साथ इजाज़त चाहूँगी। आप लेखन में अग्रसित रहें। शुभकामनाओं के साथ विदा।

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