‘मसरूफ़ औरत’ के बारे में
सुशील सुमन 19 मई 2024
कला-साहित्य से जुड़ी दुनिया की बात करें तो हर युग में व्यक्तिगत स्तर पर सृजन करने वालों की तुलना में युग-निर्माताओं की तादाद हमेशा कम रही है। युग-निर्माताओं से मेरी मुराद ऐसे लोगों से है जिन्होंने केवल ख़ुद के सृजन से संतोष नहीं कर लिया, बल्कि अपने युग के अन्य सर्जकों की रचनाशीलता को विस्तार देने में; उन्हें हरसंभव मंच प्रदान करने में, उनकी कला को सहृदयों तक पहुँचाने के लिए युगानुरूप विविध माध्यमों का यथासंभव सदुपयोग करने में अथक परिश्रम किया।
आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास पर यदि ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों ने—उनके बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी ने या ऐसे अन्य साहित्यसेवियों ने—केवल ख़ुद की रचनाशीलता को केंद्र में नहीं रखा, बल्कि अपने समय के अन्य लेखकों को मंच प्रदान करने और प्रेरित करने का काम किया। अन्यान्य भाषाओं और विषयों की पुस्तकों का अनुवाद किया और साथी लेखकों से करवाया। उच्चतर और वैविध्य से भरे साहित्य को उपलब्ध करवाकर पाठकों के आस्वाद बोध को बढ़ाने का काम किया।
टी.एस. एलियट का एक मशहूर कथन है कि आलोचना का काम रचना के अप्रिशिएशन के साथ-साथ पाठकों की रुचियों का परिष्कार करना भी है। अस्ल में कला-साहित्य के चुनिंदा साहित्यकारों ने ही साहित्य-धर्म को एक कार्यकर्ता के भाव से और सच्चे अर्थों में साहित्य की सहित भावना के साथ जीने का प्रयास किया है और इस प्रकार से उसे नवजीवन देने का काम किया है। सर्जक और भावक के बीच ऐसे साहित्यसेवियों की सदा ज़रूरत रहती है जो सेतु बनकर काम कर सकें।
हमारे समय में तसनीफ़ हैदर एक ऐसे ही साहित्यसेवी हैं जिन्होंने निज लेखन तक ख़ुद को महदूद नहीं रखा—जो न केवल हिंदी-उर्दू की साहित्यिक विरासत को सँजोने में दिन-रात लगे हैं—बल्कि अपने समकाल के लेखकों की रचनाओं को भी भाषा और लिपि की सीमाओं से पार ले जाकर, अमित विस्तार देने में लगे हैं।
तसनीफ़ विगत कई वर्षों से ‘अदबी दुनिया’ नामक वेबसाइट और यूट्यूब चैनल के माध्यम से निरंतर हिंदी-उर्दू की अनगिनत महत्त्वपूर्ण रचनाओं को पढ़ने और सुनने के लिए उपलब्ध करा रहे हैं। हाल-फ़िलहाल में उन्होंने ‘और’ पत्रिका के माध्यम से एक और बेहद महत्त्वपूर्ण मुहिम की शुरुआत की है जिसके माध्यम से समकालीन हिंदी साहित्य की चुनिंदा रचनाओं को वह उर्दू पाठकों तक पहुँचाने में लगे हैं।
हम सभी भली-भाँति जान-समझ रहे हैं और आए दिन तमाम उदाहरणों के माध्यम से देख भी रहे हैं कि आज सियासी लोभ-लाभ के लिए हिंदी-उर्दू को अलगाने की कोशिशें हर स्तर पर जारी हैं। हमने हाल-फ़िलहाल में अनेक ऐसी घटनाओं को देखा है, जिसमें पाठ्यक्रम से लेकर विज्ञापन तक में भाषाई फ़िरक़ापरस्ती फैलाने का प्रयास हुआ है।
ऐसे विषम समय में गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने के लिए, हिंदी-उर्दू की भाषाई एकता को बचाने के लिए, परस्पर साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए और एका बनाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से प्रतिवाद करने के लिए भाषा-सेतु बनाने की ज़रूरत है; जिसे अनुवाद और लिप्यंतरण के माध्यम से अंजाम दिया जा सकता है।
अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू-हिंदी के मामले में आसानी यह है कि बहुधा संपूर्ण अनुवाद करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि केवल लिप्यंतरण और ज़रूरी फ़ुटनोट के माध्यम से एक भाषा के साहित्य को दूसरी भाषा में पहुँचाया जा सकता है। इसे कार्यरूप देने के लिए विविध संचार और प्रकाशन माध्यमों में व्यापक स्तर पर काम करने की ज़रूरत है।
लेकिन अफ़सोस कि इन मुद्दों पर कमोबेश चिंता व्यक्त करने वाले और बात करने वाले लोग तो हैं, लेकिन मनोयोग के साथ काम करने वाले लोगों की संख्या नगण्य है। इस दिशा में सुरुचि, गुणवत्ता और निरंतरता के साथ काम करने के मामले में—इन पंक्तियों के लेखक की दृष्टि में—तसनीफ़ हैदर के स्तर का दृष्टिसंपन्न और उनके जैसा अपार मेहनती, प्रखर तथा प्रतिभाशाली साहित्यसेवी आज की तारीख़ में दूजा नहीं है।
तसनीफ़ हैदर—हिंदी-उर्दू साहित्य के बीच बने एक ऐसे नव्य-सेतु का दूसरा नाम है जिसके माध्यम से आज दोनों भाषाओं के अनेक लेखकों की रचनाएँ पूरी रवानी के साथ आवाजाही कर रही हैं। अभी तो एक तरह से तसनीफ़ हैदर का यह उद्योग शुरू ही हुआ है, आगामी दिनों में इसे और संपन्न और सुदृढ़ होता हम देखेंगे। ज़रूरत है, उनके इस कार्य में सहयोग करने की और अपने-अपने स्तर पर यथासंभव उसे आगे बढ़ाने की।
तसनीफ़ हैदर के काम के प्रति श्रद्धा तो मेरे मन में काफ़ी समय से रही है, लेकिन इन बातों को दर्ज करने से ख़ुद को मैं तब नहीं रोक सका, जब कुछ माह पूर्व मुझे ‘रेख़्ता पब्लिकेशंस’ से प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘मसरूफ़ औरत’ पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक को तसनीफ़ हैदर ने ही तैयार किया है। चयन, लिप्यंतरण और संपादन सब उन्हीं का है।
इस किताब में उर्दू की दस स्त्री-कथाकारों की एक-एक कहानी यानी दस कहानियाँ संकलित हैं। ये ऐसी लेखिकाएँ हैं जो उर्दू साहित्य का तो बड़ा नाम रही हैं, लेकिन हिंदी की दुनिया में उनका प्रवेश एक तरह से नहीं रहा है या सीमित रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी पाठकों की एक बड़ी आबादी इन स्त्री-कथाकारों की रचनाओं से अपरिचित रही है।
मुझे भी पहली बार इन कथाकारों को पढ़ने का अवसर इसी पुस्तक से मिला। हम जैसे ज़्यादातर हिंदी पाठक उर्दू साहित्य में मंटो, इस्मत चुग़ताई, कृष्ण चंदर, इंतिज़ार हुसैन, कुर्रतुल ऐन हैदर, अब्दुल्लाह हुसैन, ज़ाहिदा हिना जैसे गिनती के लेखकों को ही सिर्फ़ जानते और पढ़ते रहे हैं। इस्मत, ऐनी आपा और ज़ाहिदा हिना के अलावा उर्दू की किसी भी स्त्री-कथाकार की कहानियों या उपन्यासों को मैंने इस पुस्तक से गुज़रने से पहले नहीं पढ़ा था। संभव है कि मेरे जैसा ही अनुभव बहुतेरे हिंदी-पाठकों का हो।
तसनीफ़ हैदर ने इस किताब की भूमिका में लिखा भी है, “जब कोई मुझसे पूछता है कि उर्दू फ़िक्शन में मंटो, इस्मत, कृष्ण चंदर और ऐसे ही कुछ और नामों के अलावा क्या ख़ास है तो मुझे सोचना पड़ता है कि वाक़ई हम कितनी अहम और खरी आवाज़ों तक पहुँचने में सिर्फ़ इसलिए नाकाम हो गए; क्योंकि हमने मंटो और इस्मत को पढ़कर समझ लिया कि हम उर्दू फ़िक्शन की तह तक पहुँच गए। जबकि आप अस्ल उर्दू फ़िक्शन की दुनिया में क़दम रखें तो आपको पता चलेगा कि बहुत से मशहूर नाम तभी तक ज़्यादा असरदार हैं—जब तक हम छिपे हुए संजीदा फ़नकारों तक नहीं पहुँचते। रज़िया सज्जाद ज़हीर, रशीद जहाँ, ख़ालिदा हुसैन, रज़िया फ़सीह अहमद, नीलोफ़र इक़बाल, मुमताज़ शीरीं, निसार अज़ीज़ बट, शकीला रफ़ीक़, ज़किया मशहदी और आमना मुफ़्ती जैसे कई नाम हैं जो हमारी आँखों पर पड़े हुए जाले साफ़ कर सकते हैं।”
मैंने जब इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ीं तो तसनीफ़ हैदर की उपर्युक्त बातों का मतलब कुछ हद तक समझ में आया। वे नाम जो तसनीफ़ हैदर ने गिनाए हैं, उनमें से कई लेखिकाओं की कहानियाँ इस संग्रह में शामिल हैं। उनके अलावा कुछ अन्य लेखिकाओं की कहानियाँ भी इस संग्रह का हिस्सा हैं।
इस किताब में संकलित पहली कहानी है—ख़दीजा मस्तूर लिखित ‘सुरैया’। ख़दीजा मस्तूर की पैदाइश तो बरेली की है, लेकिन बँटवारे के बाद वह पाकिस्तान चली गईं। इस कहानी में भी भारत-पाकिस्तान विभाजन और उसके बाद के युद्ध की छाया है। यह सुरैया नामक एक लड़की की कहानी है, जो कथावाचिका के घर में घरेलू सहायक का काम करने आई है। वह काम करने में तेज़-तर्रार है, बहुत बात करती है और स्वाभिमानी है। वह अपने घर की तकलीफ़ कभी बयाँ नहीं करती, बल्कि अपने घर के सुख-चैन के बारे में अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर बताती है।
उसकी ख़ुद्दारी का आलम यह है कि एक बार उसके काम से ख़ुश होकर उसे इनाम में एक रुपए देने की जब पेशकश की गई तो उसने फ़ौरन रुपए को मेज़ पर रखते हुए कहा, “बड़ा कुछ है अपने घर में बीबी जी। बस तनख़्वाह लूँगी और कुछ नहीं चाहिए।” लेकिन यह बयान उसकी ख़ुद्दारी से निकली बात थी, उसके घर की हक़ीक़त नहीं। हालात से तंग आकर एक बार जब सुरैया की दादी पाँच रुपए पेशगी के रूप में माँगने आ जाती हैं, तब सुरैया अपनी दादी पर टूट पड़ती है। जो न कहना चाहिए, वह सब कहती है।
अस्ल स्थिति के बारे में जब कथावाचिका पूछती हैं तो उसकी दादी सब हाल बयाँ करती हैं कि कैसे युद्ध के दरमियान हमें अपना घर-बार छोड़कर लाहौर भागना पड़ा और फ़ाक़े काटने की नौबत आ गई। लेकिन ऐसे वक़्त में भी ‘सुरैया’ की यही ज़िद होती है, “किसी से कुछ न माँगो चाहे मर जाओ।” ख़दीजा मस्तूर ने सुरैया के रूप में उन सभी लोगों की कहानियाँ बयाँ की है—जिनकी ज़िंदगी आराम में कटी लेकिन युद्ध-आपदा ने अचानक से सब कुछ बदल दिया। इस कहानी को पढ़ते हुए सुरैया का स्वाभिमान और सुरैया की दादी की निरीहता पाठक के दिल पर गहरा ज़ख़्म छोड़ जाती है।
ऐसे तो इस संग्रह की सभी कहानियों पर विस्तार से बात करने की ज़रूरत है, क्योंकि ये सभी कहानियाँ स्त्री-जीवन के विविध रूपों और औरतों की ज़िंदगी की तमाम मुश्किलों को हमारे सामने बहुत संजीदगी से बयाँ करती हैं। लेकिन सभी दस कहानियों पर अलग से बात करने के लिए बहुत विस्तार में जाना पड़ेगा। बावजूद इसके एक और कहानी का ज़िक्र मैं ज़रूर करना चाहता हूँ। इस संग्रह में रज़िया फ़सीह अहमद की एक बेहद दिलचस्प कहानी है—‘जब फूफी खोई गईं’।
रज़िया फ़सीह अहमद का जन्म भी भारत में ही हुआ और उन्हें भी विभाजन के बाद पाकिस्तान जाना पड़ा। इस कहानी में उन्होंने फूफी के रूप में एक ऐसी औरत का चित्रण किया है जो क़द में काफ़ी छोटी हैं, शौहर ने दूसरी शादी कर ली है और वह ससुराल में नहीं बस सकीं तो मायके में ही रहती हैं। बाद में बेवा भी हो गईं और पढ़-लिख भी नहीं सकतीं। परिवार के सभी लोग जिन्हें नितांत बोदा समझते हैं। घर के लगभग सभी लोग—क्या बच्चे, क्या बड़े—उनका मज़ाक़ उड़ाते रहते हैं। ऐसी फूफी एक बार यात्रा में खो गईं।
अब सभी को चिंता हुई कि फूफी को तो दुनियादारी का कुछ पता नहीं—वह न किसी से रास्ता पूछ सकती हैं, न किसी से मदद ले सकती हैं। उनका क्या होगा! लेकिन वह फूफी जिन्हें लोग कमज़ोर और बेवक़ूफ़ समझते थे, जब सकुशल घर आ गईं तो सभी ताज्जुब में पड़ गए। लेखिका लिखती हैं, “...और फिर उस दिन हमें पता चला कि फूफी न इतनी बेवक़ूफ़ थीं, न डरपोक जितना हमने उन्हें समझ रखा था। सारी उम्र वो उस जोकर का पार्ट अदा करती रहीं जिसे मुँह पर भभूत मले झोला से कपड़े पहने, बड़ा-सा जूता फटफटाते न देखें तो मज़ा नहीं आता। वो पते इसलिए भूल जाती थीं क्योंकि सबने तय किया था कि वो पते याद ही नहीं रख सकतीं। वो एक जगह से दूसरी जगह इसलिए नहीं जा सकती थीं कि हमने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि वो तन्हा कहीं आ-जा सकती हैं।”
यह पुरुष वर्चस्व से संचालित समाज किस तरह से एक स्त्री को अपने हिसाब से संचालित करता है। उनके विकास को अवरुद्ध करता है, अपनी चालाकी से भरी धारणा को थोपता है कि तुम बाहरी दुनिया में गुम हो जाओगी, तुम घर के भीतर रहने के लिए बनी हो—हमारे घरों में आपूरित इस मानसिकता को यह कहानी बहुत ठीक से अभिव्यक्त करती है। साथ ही फूफी के व्यक्तित्व के छुपे हुए पक्ष को सामने लाकर यह कहानी इस बात पर ज़ोर देती है कि औरतों को ऐसा बनाए रखने के लिए पुरुष वर्चस्व वाले समाज में किस तरह के दबाव बनाए जाते हैं। उनको डरपोक, कमज़ोर और बेवक़ूफ़ समझने की अतार्किक और साजिश से भरी धारणा किस तरह से लादी जाती है।
इस संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ बेहतरीन हैं और उन पर विस्तृत चर्चा अपेक्षित है। चाहे वह हाजरा मसरूर की ‘कमीनी’ हो या ख़ालिदा हुसैन की ‘मसरूफ़ औरत’ या शकीला रफ़ीक़ की ‘दर्द का मिलाप’—जो सौतों के संबंध पर बहुत मार्मिक कहानी है—ये सभी कहानियाँ बहुत प्रभावशाली हैं।
इस संग्रह की कहानियों से गुज़रने के बाद उर्दू की स्त्री-कहानी से हमारा नए सिरे से परिचय होता है। तसनीफ़ हैदर ने इन कहानियों का पूर्णतः हिंदी अनुवाद न करके केवल लिप्यंतरण ही किया है जिससे कि भाषा की रवानी और सजीवता बनी हुई है। हिंदी पाठकों के लिहाज़ से ज़्यादा कठिन शब्दों का अर्थ सभी कहानियों के आख़िर में दे दिया गया है, जिससे पाठक को पढ़ने-समझने में किसी प्रकार की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता है। हिंदी पाठकों को तसनीफ़ हैदर के इस श्रमसाध्य और बेहद महत्त्वपूर्ण प्रयास—‘मसरूफ़ औरत’ का भरपूर स्वागत करना चाहिए।
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