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बंगाली, बैशाख और रवींद्रनाथ

बांग्ला नव वर्ष का पहला वैशाख वास्तव में बंगालियों के प्राणों का उत्सव है। इस उत्सव में कोई विदेशीपन नहीं है; बल्कि इसमें बंगाली परंपरा, आत्म-परिचय और संस्कृति है। इस दिन नए परिधान में, नए साज में, रंगीन मंगल-यात्रा में, अशुभ को दूर कर—कल्याण की कामना में, असांप्रदायिक चेतना में, पुरानी थकान मिटाकर, आगामी नए को सुंदर बनाने के महा आयोजन चलते हैं। छोटे-बड़े सभी के कंठ से रवींद्रनाथ की रची पंक्तियाँ निकलती हैं : ‘‘एसो हे बैशाख / एसो एसो...’’ (आओ हे वैशाख / आओ आओ...) और ‘‘हे नूतन... देखा दिक आर बार...’’

रवींद्रनाथ का जन्मदिन बैसाख माह में ही होता और मनाया जाता है—25 बैशाख। रवींद्रनाथ एक जाति के गुरु हैं। इसलिए ही पहला बैशाख की शुरुआत उनके गीत-संगीत से होती है... और यह शुरुआत पूरे महीने चलती है। ये लहरियाँ बंगाल की सड़कों पर, हवा में और आकाश में गूँज उठती हैं।

संगीत! सुर!! धुन!!!

बंगाली चेतना की धारा को कौन रोक सकता है? कालवैशाखी (आँधी-तूफ़ान) भी इस चेतना को, इस गति को नहीं रोक सकती; क्योंकि रवींद्रनाथ ने अपनी अमर वाणी के माध्यम से वैशाख के चेहरे को प्रकाशमय बना दिया है। बंगाली क्या इस वाणी को कभी भूल पाएँगे? मैं इन गीतों की व्याख्या में नहीं जाऊँगी। मैं चेतना की बात करूँगी। चेतना आंतरिक विषय है। यह कृष्णचूड़ा की तरह चमकदार है।

जब मैं छोटी थी, वैशाख का मतलब था—रवींद्रनाथ को जानना और रवींद्रनाथ का मतलब था वैशाख को जानना। मेरे मन में इस बारे में कोई संदेह नहीं था। बचपन के दिन हमारे लिए सुंदर, सरल और शांत थे। उन दिनों में हम बड़े होने की इच्छा रखते थे। हम दुनिया की ओर आश्चर्य से देखते थे या यूँ कहें कि दुनिया से इतना प्यार कर बैठते कि प्यार ही एक रहस्यमय वस्तु बन जाता!

मैं अपने बचपन के दिनों में जैसे ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के रहस्यमय प्राचीन भारत का एक चित्र स्पष्ट देख सकती थी, वैसे ही रवींद्रनाथ ने मुझे अपने आस-पास के वातावरण को समझाया। ‘छोट नदी’ के मोड़-मोड़ चलते जाने का दृश्य या बड़ी भाभी के चावल पकाने का सरल दृश्य... मेरे शिशु मन में बहुत आसानी से मिल जाता था। इतनी सरलता, इतनी सुंदरता से शायद रवींद्रनाथ से पहले किसी साहित्यकार ने शिशु-मनोविज्ञान के पहलू को नहीं देखा था। रवींद्रनाथ का हाथ पकड़कर साहित्य जगत का जो बड़ा दिगंत खुला, उसमें बाल-साहित्य की दिशा भी अति महत्त्वपूर्ण है। मैंने अपने शिशु-मन से रवींद्रनाथ की रचनाओं को समझा और महसूस किया कि कैसे उन्होंने मेरे आस-पास की दुनिया को जीवंत बनाया।

मैं जब मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थी और हमारे घर में मूर्ति-पूजा निषिद्ध थी, तब भी मैं ईश्वर के रूप में केवल रवींद्रनाथ टैगोर (टैगोर/ठाकुर मतलब भगवान) से परिचित थी। मैं जब बड़ी हुई, तब समझी कि जो जीवन-साधक है, वही तो ईश्वर है! आज जब सब तरफ़ हिंसा, कलंक, लोभ, अत्याचार और भय से भरे दृश्य हैं; रवींद्रनाथ का जीवन-दर्शन और प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हो गया है।

रवींद्रनाथ टैगोर ने इस आशंका को व्यक्त करते हुए कहा था, ‘‘यह नया वर्ष हमारे जीवन में आया है, लेकिन क्या यह हमारे हृदय में प्रवेश कर पाया है? क्या हमारे जीवन में आज नया वर्ष वास्तव में शुरू हुआ है? वैशाख का पहला सूर्योदय आज आकाश में आया है, कहीं कोई दरवाज़ा खोलने की आवाज़ नहीं आई, आकाश भर का अंधकार पूरी तरह से शांतिपूर्वक हट गया, जैसे कली खिलती है, वैसे ही प्रकाश विकसित हुआ—इसके लिए कहीं कोई दर्द नहीं बजा! क्या नए वर्ष का प्रकाश हमारे अंदर ऐसे ही स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है?’’

कविकुलगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर के लिए हर सूर्योदय एक नए वर्ष की शुरुआत का प्रतीक था, न कि केवल एक निश्चित दिन। मृत्यु और विषाद से घिरे जीवन को नए तरीके से जीने का वादा निभाने के दिन के रूप में उन्होंने इसे देखा।

प्रत्येक जाति, समूह और समुदाय को अलग करती है उनकी अपनी संस्कृति, उनकी अपनी विचारधारा, चेतना, इतिहास और परंपरा। इस दृष्टिकोण से हमारी बांग्ला जाति को भी एक अलग पहचान देने वाले कई तत्त्व हैं। इन सभी तत्त्वों में से एक प्रमुख तत्त्व है—पहला वैशाख या बंगाली नव वर्ष। हालाँकि इस बंगाली नव वर्ष और हमारे बांग्लापन को लेकर भी हज़ारों सवाल उठाए गए हैं। इन सवालों को उठाने का सही अवसर भी हमने अपने आचरण के माध्यम से दिया है।

फिर भी हम यह मानते हैं कि बंगालियों के लिए पहला वैशाख केवल आडंबर का नहीं, आत्मशुद्धि का भी है और यह हमें रवींद्रनाथ टैगोर ने ही सिखाया है।

बैशाख के खेत की दरार में
यह दुनिया असमान है

और कोई वादा नहीं...
केवल दो या तीन मील घास के ढेर हैं

फिर भी यह सोने जैसा नहीं है
हँसिये की आवाज़ ही भूल जाती है

धरती की तोप को—
करुण, निर्दोष और असहाय...

— जीवनानंद दास

विशाखा नक्षत्रों के नाम से ही बैशाख है। प्रकृति का रूद्र रूप ही इस महीने का स्वाभाविक चरित्र है। बैशाख महीना बांग्ला कैलेंडर में एक ज़रूरी और पवित्र महीना है। बैशाख के पहले दिन से बांग्ला साल की शुरुआत होती है। इस महीने को पवित्रतम मानने की वजह इसके आरंभ का शुभ और सुंदर होना है... और यह कई वजहों से है। पहला बैशाख में बांग्ला भाषा में बहुत सारी नई पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ और उनके नए अंक प्रकाशित होते हैं। नई पंजी (बही, रजिस्टर)—भी सामने आती है जिसे देखकर बंगाली जन अपने शुभ कामों की शुरुआत और तैयारी करते हैं।

पहला बैशाख या बांग्ला नव वर्ष के उत्सव से पहले चैत के आख़िरी दिन चैत-संक्रांति मेले की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। शुरू में चैत संक्रांति को प्रजा द्वारा जमींदारों-तालुकदारों को लगान देने के दिन के रूप में मनाया जाता था। बाद में धीरे-धीरे इस अवसर पर मेला भी स्थापित हो गया। शहरी बंगालियों की तुलना में ग्रामीण बंगाली इसमें अधिक रुचि रखते हैं, इसलिए चैत्र संक्रांति मेला अभी भी पहला बैशाख मेले की तुलना में ग्रामीण क़स्बों में अधिक लोकप्रिय और व्यापक है।

चैत्र संक्रांति त्योहारों में ‘गजन’ सबसे मशहूर है। ‘गजन’ और ‘चड़क’ के दिन हर समय ढाक-बादी गूँजती रहती थी। बाक़ी सभी त्योहार संपन्न लोगों के लिए हैं, लेकिन गजन और चड़क आम लोगों के हैं। इसकी शुरुआत भक्तों की गर्जना के बीच होती है। इसलिए इसे गजन—शिव का गजन—कहा जाता है। बाज़ार में, खेत में, पड़ोस में इस गजन-पर्व के माध्यम से शिव की उपासना करते हुए (शिव—सत्य और सुंदर की साधना) सब नए वर्ष की ओर जाते हैं।

बांग्ला नव वर्ष का मुख्य विषय होता है—‘हालखाता’। यह कहना मुश्किल है कि हालखाता कब प्रयोग में आया, लेकिन यह कहना नहीं कि हालखाता शब्द मुस्लिम-शासन से जुड़ा है। ‘हाल’ और ‘खाता’— दोनों शब्द—अरबी-फ़ारसी से आए हैं और इसका अर्थ है—नया खाता। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि बंगाली बोलचाल में अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग 16वीं शताब्दी से पहले नहीं हुआ था। इसलिए यह माना जाता है कि ‘हालखाता’ 16वीं शताब्दी में किसी समय बंगाल में लोकप्रिय होगा। ‘हालखाता’ देश में व्यापारिक खाते रखने वालों के लिए नया खाता खोलने का औपचारिक त्योहार है। ‘हाल’ का मतलब—नया या चालू। इसलिए साल के पहले दिन को नए खाते सहेजने का समारोह भी माना जाता था। व्यापारिक प्रतिष्ठानों में सिंदूर-मोतियों से सजे मंगलघट स्थापित कर सगे-संबंधियों, मित्रों, सभी का मुँह मीठा कराया जाता है। इस प्रकार सांसारिक समाज का नवीनीकरण भी होता है। निःसंदेह, यह बांग्ला का अतीत/इतिहास है। उस समय ‘अमानी उत्सव’ यानी खेतों में जाकर चावल में पानी डालकर खाना—भूमिवासियों द्वारा पहला बैशाख का एक हिस्सा माना जाता था। स्त्रियाँ इस मौक़े पर रंग-बिरंगी नई साड़ियाँ पहनकर ख़ुशियाँ मनाती थीं।

पहले बंगाली नव वर्ष की गिनती अग्रहायण (अगहन) माह से शुरू होती थी, बाद में उस समय के बादशाह अकबर ने कर-संग्रह की सुविधा के लिए और बंगाल में फ़सल के मौसम को ध्यान में रखते हुए बैशाख माह से फ़सल-वर्ष की शुरुआत की। इसी क्रम में प्रथम बैशाख से नए वर्ष की गिनती शुरू होती है। इसके अलावा बंगाली जमींदारों ने जो ‘पुण्य’ समारोह के अनुसार लगान-गणना करने की प्रथा शुरू की, उसने शायद बंगाल के व्यापारी समुदाय को प्रभावित किया। यह याद किया जा सकता है कि बंगाल में जमींदारी काल के दौरान हिसाब के लिए एक नए खाता खोलना ज़रूरी था। यही ‘हालखाता’ बैशाख के पहले दिन खोला जाता है। धागे से बँधी लाल रंग की मोटी पंजी इस खाता की मुख्य सामग्री है। इसमें व्यापारी अपने लेन-देन, शेष राशि और हर चीज़ पर नज़र रखते हैं।

नवाब मुर्शिद क़ुली ख़ान ने सामाजिक उत्सवों के बीच बैशाख के महीने में बंगाल में कर वसूलना शुरू किया था। जमींदारी काल में पहला बैसाख की मुख्य घटनाएँ कर-वसूली के मौक़े पर होने वाला ‘राजपुण्य’ और व्यापारियों का ‘हालखाता’ था। जमींदारी-प्रथा के ख़त्म होने के बाद ‘राजपुण्य’ भी ग़ायब हो गया और राजपुण्य-केंद्रित इस मेले में फ़सल-व्यापारियों का आवागमन भी कम हो गया।

एक बात साफ़ है कि जो भावना बंगालियों को नए साल का दीवाना बनाती है, वह मूलतः उत्तर-आधुनिक युग की भावना है; क्योंकि इतिहास से ज्ञात होता है कि यह नव वर्ष या पहला बैशाख या ‘हालखाता’ कुछ और नहीं, एक विशेष वर्ग के धनाढ्यों या व्यापारियों की सुविधा के लिए बनाया गया त्यौहार है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थव्यवस्था इस पर्व से सीधे जुड़ी होती है और शासक की उपस्थिति सीधे उस अर्थव्यवस्था से जुड़ी होती है। उस समय सत्ता-संरचना को उन्हें जवाबदेह ठहराने के लिए ऐसे पर्वों की ज़रूरत थी। इसलिए इस पर्व की उत्पत्ति हुई।

लेकिन बंगाली संस्कृति जो वास्तव में नव वर्ष या नया साल मनाती है—वह नवान्न काल है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम पहला बैशाख को वर्ष की शुरुआत के रूप में सोचने की वजह के बारे में कितना काव्यात्मक रूप से सोचते हैं, जबकि इस सिलसिले में अर्थशास्त्र कहीं अधिक प्रासंगिक है। चैत संक्रांति के बाद नया साल बंगालियों के दरवाज़े पर आता है।

दरअस्ल, बात यह है कि कैसे कोई संस्कृति या अनुष्ठान अपने ऐतिहासिक कारणों को भूल जाता है और एक मिथक बन जाता है। शायद यह बंगाल की विशेषता है कि हम किसी अनुष्ठान के पीछे के कारण की जाँच किए बिना उसे आसानी से एक बड़े संदर्भ में फेंक देते हैं। इसका हमारे अपने अवलोकनों से एक संबंध बनता है। इसे पर्व का व्यक्तिगत सामाजीकरण कहा जा सकता है। यह व्यक्तिगत सामाजीकरण एक सामाजिक परिघटना बन जाता है और इस प्रकार एक पर्व के धार्मिक स्वरूप कितनी आसानी से बन जाते हैं। उन सभी धार्मिक स्वरूपों को लेकर कविताएँ लिखी जाने लगती हैं। बाबू समुदाय के लोगों ने कलकत्ता शहर में इस पर्व के चारों ओर एक प्रकार का नया पर्व बनाया। अगर हम सोचें कि वास्तव में यह नव वर्ष किसका है तो प्रतीत होता है कि नव वर्ष का इतिहास कुछ भी हो, हम यह कहने पर मजबूर हो जाएँगे कि यह नव वर्ष कलकत्ता का है। यह कलकत्ता से लेकर पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के विभिन्न हिस्सों तक फैला हुआ है, क्योंकि जब हम बंगाल के शुरुआती नए साल के बारे में सोचते हैं, तो हमें नवान्न के बारे में सोचना पड़ता है, अग्रहायण महीने में कटाई के मौसम के बारे में सोचना पड़ता है... वहाँ स्वाभाविक रूप से बैशाख को ऋतु-सूचक या नव वर्ष का सूचक मानने की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन हम एक ऐसे राष्ट्र हैं जो इतिहास की बहुत कम परवाह करता है। हमें केवल संस्कृति की परवाह है। उस संस्कृति की जिसके पीछे का इतिहास खो गया है। मैं यह नहीं कह रही हूँ कि जो इतिहास खोदा जा सके वही इतिहास है। लेकिन यह खुदाई अब हमारी ज़िंदगियों से ग़ायब है। जो है, वह एक तारीख़ है, जश्न मनाने का एक अवसर है।

फिर भी बैशाख महीना बंगालियों के लिए एक पवित्र महीना है। यह महीना जहाँ एक ओर प्रकृति के रूद्र रूप को स्पष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर बंगाली जीवन में कला-साहित्य का पहलू भी लेकर आया है।

बंगाली त्योहार है और खाना-पीना नहीं होगा—यह हो सकता है क्या! खीर, मिठाई, रसगुल्ला, हिलसा, पुलाव के साथ कई और व्यंजन। इसके साथ में भावों का आदान-प्रदान—छोटे का बड़े के सामने झुकना, प्रणाम करना, बड़े-बूढ़े का बच्चों को स्नेह और प्यार से गले लगाना, आशीर्वाद देना। लाल किनारी वाली साड़ियों में स्त्रियों का पवित्र पेड़ों को पानी देना; कल्याण, सुख और समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना करना... सब कुछ सुंदर सजीवता है। इस अवसर पर गाँव के रास्तों के किनारों पर शीतल पानी, चना और गुड़ रखा जाता है; ताकि कोई भी बैशाख महीने में प्यासा और भूखा न रह जाए। यह मंगल-कामना का कीर्तन है—जो इस पर्व में भीतर और बाहर दोनों तरफ़ हो रहा है।

इस नए साल में हम बंगालियों को उम्मीद है कि शुभ बुद्धि जागेगी। राजनीति के नाम पर आम लोगों की बलि नहीं ली जाएगी। पेड़ों को काटने पर रोक लगाई जाएगी। सबको उनकी स्वतंत्र आवाज़ मिलेगी। शिक्षा और उसके बाद सेवा के नए रास्ते नज़र आएँगे। अंधविश्वास और विकृत इतिहास का बोझ हम और नहीं ढोएँगे। प्रत्येक जन को प्रश्न पूछने का अधिकार होगा और सहज ढंग से जीने का... अंत में सब तरफ़ यह समझ जन्म लेगी कि जनता ही जनता की भगवान है... और कोई और नहीं है...

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