Font by Mehr Nastaliq Web

'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'

यह दो अक्टूबर की एक ठीक-ठाक गर्मी वाली दोपहर है। दफ़्तर का अवकाश है। नायकों का होना अभी इतना बचा हुआ है कि पूँजी के चंगुल में फँसा यह महादेश छुट्टी घोषित करता रहता है, इसलिए आज मेरी भी छुट्टी है। मेरे सामने कल रात लाई गई एक बीयर है, लेकिन चखना नहीं है, बर्फ़ नहीं है और फ़्रीज भी नहीं। इसलिए मैंने प्रबंध कर लिया है और मैं एक बीयर पीकर कुछ लिखने बैठा हूँ। बस लिखूँ क्या? कुछ समझ आ नहीं रहा। 

मैं अचानक मेरे इलाक़े के मेरी हमउम्र एक लड़के की मृत्यु का समाचार सुनता हूँ। दहल जाता हूँ। मैं अपनी फ़ेसबुक पर उसके नहीं होने पर लिखी गईं स्मृति-शेष श्रद्धांजलियाँ पढ़ रहा हूँ। किसी के अचानक जाने के बाद उसके अपने उसे किस तरह से याद करते हैं, मुझे यह अपने संदर्भ में जानना रोचक लगा। मैं अचानक से यह सोचता हूँ कि मेरी सो कॉल्ड ‘अकाल-मृत्यु’ हो जाती है, तो मेरे परिजन-मित्रजन और परिचित मुझे कैसे और किस अर्थ में याद करेंगे? यह जानते हुए कि मैंने जन्म लेकर कोई बड़ा काम नहीं किया इन छब्बीस बरसों में।

दोस्तो! मैं मृत्यु से बहुत डरता हूँ। मेरी हमेशा सदिच्छा रही है कि मेरी मृत्यु पीड़ादायक नहीं हो। मैं तड़प-तड़प के न मरूँ। मेरे इलाक़े में मैंने कुछ किसानों और कुछ स्त्रियों के ज़हर खाने से हुई मृत्यु के दारुण क़िस्से सुने हैं। बताने वाले, बताते हैं कि वे अंत के कुछ समय तक ‘हाय मरा-हाय मरा’ कहते रहे/रहीं। मैं तो ऐसा चाहता हूँ कि मैं गहरी नींद में मरूँ। 

दरअस्ल, मैं बहुत तंग होता रहता हूँ। परिवार और मित्रों की अच्छी संख्या के समर्थन के बावजूद, मैं मरने के ख़यालों के बारे में सोचता रहता हूँ। मुझे फाँसी खाने से बेहद डर है। न ही मैं किसी दुर्घटना से मरना चाहता। न ही मैं चाक़ू-छुरे से किसी गुंडे के हाथ से मरना चाहता। ख़ैर, चाहकर कौन मरना चाहता है? यह एक पीड़ा के रियाज़ से निकला अभ्यस्त विचार है, जिसे हमारे चाहने वाले ‘अभी नहीं जाना था’ से नमन करते हैं। 

मैं इतना घटिया और क्रूर इंसान हूँ कि मैं अपनी परेशानी अपनों को बताए बिना उन्हें लगभग हर तिमाही आत्महत्या की धमकियाँ देता रहता हूँ और मुझे यह लिखते हुए बहुत शर्म आ रही है कि मेरी माँ और बहन (पिता मेरी हर चीज़ को मज़ाक में लेते हैं) रात-भर उदास रहती हैं। उनकी आँखों में आँसू झिरमिर मेह की तरह बरसते हैं। 

ऐसा मुझे लगता है कि मेरे जाने से मेरे सब प्रिय एक साथ दुखी होंगे। फ़िलहाल, अगर मैं यह मानकर चलूँ कि मेरी मृत्यु मयूर विहार वाले कमरे में होगी तो सबसे पहले मेरा रूममेट महेश मेरे घर कॉल करेगा। शायद वह कॉल मेरे मामा को जाए। वह मेरे पिता को कहेंगे। मेरे पिता बाहर होंगे तो एक वाक्य उन्हें कहा जाएगा, जो हमारे यहाँ लोक में एक ‘क्लीशै वाक्य’ है, “आप घर आ जाओ, राजेंद्र की तबीयत ठीक नहीं है।” 

पिता पूछेंगे क्या हुआ? मामा उसका ज़वाब नहीं दे पाएँगे और वह समझ जाएँगे कि कुछ हुआ है। मतलब लगभग बुरा हुआ है। पिता मेरी माँ को सीधा फ़ोन नहीं करेंगे। वह मेरी बहन को भी फोन नहीं करेंगे। वह मेरे ताऊ के बेटे को फ़ोन करेंगे या किसी और परिजन को और लगभग परिवार के सारे पुरुष औतारे (बैठक का एक भवन) में एकत्र होंगे। 

परिवार की और स्त्रियाँ मेरे घर जाएँगी। उनमें से एक मेरा नाम लेकर ‘पार’ (किसी को रोना) लेंगी। मेरी माँ सुध-बुध खो बैठेगीं। वह भी अपने बेटे से उतना ही प्रेम करती है, जितना सभी माँएँ। उसके दाँत-भींच जाएँगे।

एक लंबा समय बीतेगा, लेकिन वह मुझे हमेशा याद कर रोएँगी। जैसे मैं यह सब लिखते हुए रो रहा हूँ। मेरी बहन को पता चलेगा। वह हमसे हज़ार किलोमीटर दूर है। वह वहाँ से रोती हुई आएँगी। वह भी अपने भाई से इतना ही प्यार करती है, जितना सभी बहनें। मेरे बहनोई मुझे याद करेंगे।

यदि मैं जॉब के रहते हुए मरूँगा तो सबको ‘रेख़्ता’ के मेल के माध्यम से मेरी मौत का समाचार आएगा। दफ़्तर में पिच्चासी प्रतिशत स्टाफ़ मुझे नाम से जानता है, शायद सभी मेरी आकस्मिक मौत पर एकबार ‘ओह!’ कहेंगे। 

मेरा जिगरी महेश अकेला ही बहुत हिम्मती इंसान है। वह अकेला मयूर विहार से मेरे शव को मेरे गाँव ले जाएगा। एंबुलेंस का साइरन जब-जब मैं सुनता हूँ, मुझे उसमें तड़पते या जा चुके इंसान की छवि दिखती है और मैं तब तक उसे देखता रहता हूँ, जब तक उसे देखता रह सकता हूँ। मैं यहाँ भी, मेरा उसमें ‘जा चुका’ होना देख पा रहा हूँ। 

सात-आठ घंटे की सड़क-यात्रा के बाद मेरा शव घर पहुँचेगा। आस-पास के गाँवों दुकानों पर बैठे हमारे परिचित और रिश्तेदार लोग एक बहुउद्धृत वाक्य कहेंगे— ‘‘मोटियार माल छोकरो गयो रौ, मारया भैण्या।’’ घर में कूका-पीटे के बीच क्रिया-क्रम आदि के विधान के लिए मेरे शव को बीच आँगन में रखी मूंज और बाँस की बने सीढ़ीनुमा ढाँचे के ऊपर रखा जाएगा और फिर श्मशान के लिए रवाना। सब कुछ अग्नि के हवाले होने के बाद एक लोटे में मेरी अस्थियाँ एकत्र होंगी और लौटते वक़्त सभी प्रियजन (इतना भावुक तो हो ही रहा हूँ कि उन्हें आज तो यह शब्द दूँ) बीच रास्ते की खेजड़ी पर ‘विश्राम’ करेंगे और फिर पुनः घर। 

बारहवें दिन तक मेरे घर मेहमान आते रहेंगे। उसके बाद भी लेकिन माँ-पिता-बहन-भाई-मामा और सारा परिवार मेरे न होने का विलाप, जहाँ तक उनकी स्मृति रहेगी करते रहेंगे।

इस बीच मेरे मित्रों को पता चलेगा। उनमें से कुछ रोएँगे। कुछ यह कहेंगे कि जैसा भी था, भला था। इधर के बरसों में नए और लगभग स्थाई हो चुके दोस्तों में महेश कहेगा कि मुझे तो थिएटर और इस क्षेत्र में वही लाया था। हमारे साझे स्वप्न थे। इतनी भी क्या जल्दी थी? वह ऐसा कहेगा। चाहे चार लोगों के सामने कहे। 

एक दिन ऐसा भी आएगा कि घनश्याम, भूपा, खेता, शुभम, कबीर, महेंद्र आदि कहीं एक साथ मुझे याद करेंगे। भूपा मेरे ज़िंदा होने के समय चाहे मुझसे लड़ता था लेकिन वह कहीं बैठने पर मुझे पक्का अच्छे से याद करेगा। अभिन्न मित्र की तरह। घनश्याम, दीपक, ललित सब मुझे गोपालपुरा में बैठे हुए, कभी याद करेंगे कि चेत मानखा का स्वप्न अधूरा रह गया, चलो करेंगे हम पूरा। 

कोई बड़ी बात नहीं कि तब तक स्टार बन चुका दिग्पाल यह कहे कि देथा भले मेरा गाया हुआ पसंद नहीं करता था, लेकिन था दिलदार आदमी। भड़वा नहीं था। दिल्ली के ‘रेख़्ता’ दफ़्तर में जो मेरे दोस्त बने उनमें शुभम रॉय, अविनाश मिश्र, तौसीफ़ ख़ान, ज़ुबैर, हरि, देवीलाल गोदारा, अनंत, रुकैया, गार्गी, कुरणाल आदि शामिल हैं, मुझे यक़ीन है कि वे सब मुझे याद करेंगे—बातों में, संवादों में। 

मेरी प्रोजेक्ट हेड अनुराधा शर्मा भी मुझे याद करेंगी कि लड़-झगड़ने के बाद भी पैसा माँगने आ जाता था, कैसा तो विचित्र था। अब ‘रेख़्ता’ छोड़ चुका अतुल मुझे ज़रूर याद करेगा, अपने जल-मय संस्मरणों में। वह मेरा ‘रेख़्ता’ का पहला मित्र है। 

मेरे दो-तीन प्रेम-प्रसंग रहे हैं। बाक़ियों का नहीं पता, लेकिन जिससे मेरी सगाई होने के आसार थे, उसकी आँखों में ज़रूर आँसू आएँगे और एक प्रसंग में सगाई में आडे़ आए प्रेमिका के सारे परिजन ख़ुश होंगे। मुझे एक मीम याद आ रहा— ‘मर गया…!’

ख़ैर, मेरी हाल की विच्छेद हुई प्रेमिका भी मुझे याद करेगीं। मैंने उसे ठीक-ठाक पत्र लिखे हैं, जितने और जैसे मुझसे लिखे जा सकते थे। यह केवल दो महीने का प्रेम था, जिसमें अकूत स्नेह शेष है। उसकी आँखों में भी आँसू आएँगे, ऐसा मेरा यक़ीन।

“चंद तस्वीर-ए-बुताँ चंद हसीनों के ख़ुतूत 
बा'द मरने के मिरे घर से ये सामाँ निकला”

समय बीतता जाएगा, लेकिन कईयों का इतना प्रिय तो हूँ ही कि कामरेड विभांशु जैसा अभिन्न साथी दोस्तों के बीच भूपे को कहेगा—“यार देथो आदमी ठावकौ हतौ!” और सब दोस्त हाँ भरेंगे। विभांशु मेरे प्रेम के बारे में थोड़ी बात करेगा, सारे दोस्त ठहाकों से कमरा गूँजा देंगे—स्साले को हर आठवें दिन प्यार हो जाता था और बैठकों के बीच में खेता और महेश मेरे चैट-प्रेम का मज़ाक उड़ाने लग जाएँगे। 

ख़ैर... मेरे वे मित्र जो मुझसे उम्र में बड़े हैं, पग और पद में भी। वे सभी मुझे आत्मीयता से याद करेंगे। मेरे एक मित्र डॉ. रेवंतदान, वह अब पीते तो हैं नहीं, लेकिन बिना पिए भी वह जहाँ-कहीं बैठेंगे, मेरी बात चलने पर अच्छा ही कहेंगे, चाहे एक दफ़े मैं उनके बारे में अच्छा नहीं कह पाया हूँ। क्षमा करेंगे वह मुझे। 

उधर सीयू से पढ़े तीन युवा अध्येता—संजय दान, ओपी सूंडा और शंकर चौधरी मेरी मौत पर दुःख जताएँगे। जब कभी वे राजस्थान के थोड़े-बहुत पढ़ने-लिखने वाले लड़कों को याद करेंगे, यक़ीन है मुझे कि वे राजेंद्र देथा को भूलेंगे नहीं। मुझे यह भी यकीन है कि शुभम रॉय मेरे मरने के बाद थोड़ा कम चिड़चिड़ा होगा।

अपनी शेष उदास-उम्र के किसी रोज़—गाँव या रिश्तेदारी में कोई शादी देख मेरे माँ-पिता मेरी सगाई-शादी के टूटे हुए सपने को याद कर रोएँगे। मैंने अपनी माँ को असंख्य बार रोते देखा है, लेकिन पिता को कभी नहीं। वह रोते हुए कैसे दिखेंगे, यह भी मैं नहीं देख पाऊँगा। मेरे माँ-पिता और बहन की बड़ी इच्छा है, हम दो भाइयों का ब्याह देखने की, जैसे हर गाँव के परिजन की होती है। उन्हें मेरे काम में कोई रुचि नहीं है। पिता चाहते हैं—दादा बनूँ, माँ चाहती हैं—दादी बनूँ और बहन चाहती हैं— भुआ। मेरे जाने के बाद उनके परिवार को आगे बढ़ाने का ज़िम्मा और सब कुछ मेरे बड़े भाई पर होगा। वह उसे फूल की तरह रखेंगे, इतनी हिफ़ाज़त से वह एक दिन बहुत तंग हो जाएगा। 

ख़ैर, इतना सब होने के बाद क्या होगा आगे? सोचता हूँ जी-भर। होने को कोई बड़ा मसअला नहीं कि मैं भौमिया बनूँ। ‘राजियो जी’ नाम से। यदि मैं वह बना तो मैं बहुत अराजक भौमिया होऊँगा। भौमिया मतलब ‘पितृ’। मेरी आदतें और ग़ुस्से से परेशान परिजन जानते हैं कि मेरी पुण्यतिथि को मुझे समय से प्रसाद नहीं चढ़ाया गया तो मैं कितना क्रूर हो सकता हूँ। होने को यह हो सकता कि मेरे पाळिये (देवालय) पर मेले लगें। होने को यह भी हो सकता है कि मैं कहूँ उसके संतान हो तो हो, कहूँ नहीं तो नहीं। मैं कहूँ तो बीमार हॉस्पिटल जाए, नहीं कहूँ तो नहीं। मैं कहूँ तो घर का मुहूर्त नहीं तो नहीं।

आए-हाए क्या ही कमाल! इतनी सत्ता जब आ ही जाए तो मौत मुझे आज ही मिल जाए!

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

हान कांग (जन्म : 1970) दक्षिण कोरियाई लेखिका हैं। वर्ष 2024 में, वह साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली पहली दक्षिण कोरियाई लेखक और पहली एशियाई लेखिका बनीं। नोबेल से पूर्व उन्हें उनके उपन

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ :  हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ : हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की नई लीक पर चलने वाले कवि हैं। वह वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’, माता प्रसाद ‘मितई’, विकल गोंडवी, बेकल उत्साही, ज

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

...मैं इससे सहमत नहीं। यह संभव है कि काम का ख़ात्मा किया जा सकता है। काम की जगह ढेर सारी नई तरह की गतिविधियाँ ले सकती हैं, अगर वे उपयोगी हों तो।  काम के ख़ात्मे के लिए हमें दो तरफ़ से क़दम बढ़ाने

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास 'कई चाँद थे सरे-आसमाँ' को पहली बार 2019 में पढ़ा। इसके हिंदी तथा अँग्रेज़ी, क्रमशः रूपांतरित तथा अनूदित संस्करणों के पाठ 2024 की तीसरी तिमाही में समाप्त किए। तब से अब

बेला लेटेस्ट

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए