आज़ादी मिथ है... हम किसके ग़ुलाम हैं !
कुमार मंगलम
18 जनवरी 2025
तुम्हारी अधेड़ नादानियों को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? इस नुक़्ते पर सोचते हुए घृणा या नफ़रत नहीं होती। अगर मैं कहूँ कि तरस आता है तुम पर, तो यह तुमसे अधिक अपने आप पर ज़्यादती होगी क्योंकि बहुत दिन नहीं बचे हैं; जब मैं भी इसी कतार में अपने को शामिल होते पाता हूँ। हालाँकि मैं इससे कम या अधिक क्रूर हो सकता हूँ। चलो यह वक़्त की बात है। मैं तुम्हारी मजबूरीपरस्त समझौते पर सोचते हुए तुम्हारे लिजलिजे और दोग़ले व्यक्तित्व से हर बार मात खा जाता हूँ।
जब अभिन्नता का व्याकरण बदल जाता है, तब हम अपनी परछाई से भी अपरिचितों-सा व्यवहार करने लगते हैं और ऐसी स्थिति में किसी अन्य की स्थिति भी शायद ही बर्दाश्त हो।
मैं कई बार सोचता हूँ कि मैं जैसा हूँ शायद ऐसा होना भी अपना ही चुनाव है। सामाजिक व्याकरणों में नितांत फिसड्डी होते हुए भी अप्रासंगिक होने के हद तक अपने होने को सही साबित करने की ज़िद और इससे उपजा दुख भी नितांत अपना है। फिर क्या है जो मुझे ही स्वीकार नहीं। हम सभी अपनी ही धूरी से अपदस्थ हो चुके हैं। जो हैं, जहाँ हैं वहाँ से थोड़े खिसक गए हैं और तमाम प्रयासों के बावजूद अपने होने को साबित नहीं कर पा रहे हैं।
सत्ता के साथ मेरे संबंध कभी मधुर नहीं हो सकता—मैं ऐसा कर भी नहीं पाता—एक आदिम अवरोध है भीतर। कुछ-कुछ तुलसी की तरह, “तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार” और जब तुम सत्ता के क़रीब और क़रीब जाने लगते हो, तमाम हिंसाओं को अपने जीवन का अभिन्न बनाते हुए, अमानवीय होते हुए, असंवेदित और ट्रोल बनते हुए तो एक हिंसक-अहिंसक ग़ुस्से से मन भर जाता है। और उस दिन को कोसते हैं जब हम तुमसे और तुम्हारी रचनाओं से मिले थे। काश! हम कभी मिले ही नहीं होते। तुम्हारे कहे और होने की बीच की दूरी कभी न ख़त्म होने वाली दूरी है, अब जिसे पाटा नहीं जा सकता है। कभी नहीं ख़त्म हो सकने जैसी दूरी।
मैं कई आवरणों में रहता हूँ। आपका भी रहवास है वहाँ। कभी अपने से मिल पाता तो अपने एकाकी और वध्य होने का पता चलता। तब हम जान पाते हमारी सुरक्षाएँ कितनी असुरक्षित हैं।
तुम जो आज हो उससे प्रभावित हुए बग़ैर बेहतर है कि तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया जाए। शिकायतें अपनी मानी खो चुके हैं। इस युद्ध का अभिमन्यु पराजित और अकेला है। यह तुम्हारा समय है। क्या वाक़ई यही समय तुम्हारा है?
हम बौने और कुंद होते गए हैं। एक व्यक्ति मार दिया जाता है और हम अपनी बेचैन संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ जाते हैं। ग़ुस्साते हुए अपनी दिनचर्या में लौट पड़ते हैं। यह नख-दंत विहीन ग़ुस्सा आख़िरकार किस काम का। बालखिल्य ऋषि की संताने हैं हम और हमारा कद अँगूठे बराबर।
हम जो हैं उससे भागते हैं। जो नहीं है उसे पाना चाहते हैं। जो खो गया उसका अफ़सोस जताते हैं और जो है उसका मख़ौल उड़ाते हैं। जीवन की सार्थकता अपने होने की तलाश नहीं अपने होने की स्वीकार्यता के बोध में है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि भक्तिकाल के कवियों ने अपने यूटोपियाई समाज की क़ीमत कैसे चुकाई होगी। कबीर का अमर देसवा, तुलसी का रामराज्य, जायसी का सिंघलद्वीप, सूरदास का वृंदावन स्वप्न था, स्वप्न है। यथार्थ किसी भी कल्पना में अभिव्यक्त नहीं होता। इसे स्वीकृति नहीं मिलती। त्रासदियाँ अनवरत रूप बदलती हैं, फ़रेबी।
एक नुक़्ते पर रुकता हूँ—सामर्थ्य क्या है?
जितना बर्दाश्त होता है, दर्द झेलिए। अंत में जब दर्द झेलने के अभ्यासी हो जाएँ बिल्कुल मोटी चमड़ी की तरह, फिर सामर्थ्य की सीमा समाप्त हो जाती है।
अकेलेपन को निर्ममता के साथ ही अर्जित किया जा सकता है। पर यह डरावना है। एक की निर्मिति आपको ज्ञानेंद्रपति बनाती है और दूसरी आलोकधन्वा। एक बेहद अनुशासित, जटिल, कठोर, अवेद्य, किसी अन्य के लिए कोई जगह नहीं, किसी भी जतन से सेंध नहीं लगाया जा सकता और दूसरा अराजक, मुलायम, सबके सामने अपने एकांत को जीता हुआ, बल्कि उसे तमग़े की तरह पहने हुए। एक अनुशासित जीवन कितना अराजक हो सकता है? अंदाज़ना मुश्किल है।
कह देना, दर्ज कर लेना विरेचन है तो कुछ नहीं कर पाने की बेचैन विवशता क्या है? और जब आपके व्यक्तित्व का दुश्मन आपका मुँह हो, आप और कुछ नहीं बेहद लापरवाह वाचाल हैं। ऐसे में आपको सांस्थानिक दबावों के तहत चुप्पा बना दिया जाता है।
मेरे मैं का प्रतिद्वंद्वी मैं ही। इतने मैं के बीच मेरा मैं कहाँ, कहीं दबा कुचला हुआ सड़क पर मिले या अपने काग़ज़ी महल में तानाशाह के मानिंद सबको फ़तवे सुनाता हुआ, क्रूर और असंवेदित।
उन स्थितियों का क्या जो आपके अनुकूल नहीं, भागो, लड़ो, जूझो, मर जाओ, खप जाओ। स्थितियाँ कभी अनुकूल नहीं होती हम अनुकूलित हो जाते हैं।
एक सुरक्षा घेरा में जीता हुआ, डरा और डराया हुआ, विवश, लाचार, हताश कभी घेरे को नहीं तोड़ पाता। आज़ादी मिथ है। हम किसके ग़ुलाम हैं... अपने विकारों के।
हमारे सुरक्षा घेरे की जो यांत्रिकता है वह बासी हो चुकी है, वे जगहें, स्मृतियाँ, जीवन भी सुकून नहीं देते जहाँ कभी जीवन था। हताशा ने, पलायन वृत्ति ने क्या कुछ निर्मित नहीं किया। हम वहीं हैं मोमिन-ए-मुब्तला लेकिन पहचान का सिरा बदल गया है। हमारी पहचान खो गई, मिट्टी बदल गई। कोहरे में लिपटे फूल ज्योतित नहीं होते, वे होते हैं और खोए हुए।
अंत में जुनूँ में बकना, बग़ैर इस उम्मीद में कि इस बड़बड़ाहट के कोई मानी है, अगर कोई अर्थ निकले तो वह आपका। अन्यथा वाक्यों का स्वेटर है जो भाषाई ऊन से तैयार है, पर पहनने योग्य नहीं है। बेरोज़गारी मुबारक, अपने आयातित दुख मुबारक और नए साल के फ़रेबी बातों में टूटन की सीख मुबारक। अपनी लाश अपने कंधे पर ढोते रहिए, कोई हम कांधा नहीं।
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