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'ऐसे भी तो संभव है मृत्यु'

‘वनिका’ एक कमज़ोर उपन्यास है, जब मैं कमज़ोर कह रहा हूँ तो इसका यह मतलब नहीं कि यह एक ख़राब या सतही क़िस्म का कोई उपन्यास है। इसे इस तरह देखना चाहिए कि लवली गोस्वामी जो मेरी नज़र में बुनियादी तौर पर एक कवि हैं और जिन्होंने कुछ उम्दा कविताएँ लिखी हैं, नस्र या गद्य में कुछ चीज़ों में सुस्त पड़ती मालूम होती हैं।

वनिका की कहानी बयान करना मेरा मक़सद नहीं है, मैं बस उसके हवाले से तीन-चार बिंदुओं पर अपनी बात रखूँगा—जो किताब पढ़ते वक़्त मुझे महसूस हुई हैं। भारत में अच्छे उपन्यास लिखे गए हैं, हिंदी में विशेष रूप से ऐसे कई उपन्यास हैं, जिन्हें हम ज़बान-ओ-बयान, किरदार-निगारी या फिर क़िस्सा-कहानी सभी के लिहाज़ से भारतीय उपन्यास की परंपरा के बेहतरीन नमूने क़रार दे सकते हैं। 

‘वनिका’ से मेरी शिकायत यह है कि एक अच्छे-ख़ासे और मज़बूत क़िस्से को कुछ चीज़ों ने कमज़ोर किया है। अगर हम इस किताब को साइंस फ़िक्शन या फ़ंतासी का ही कोई हिस्सा मान रहे हैं, तब भी हमें देखना चाहिए कि यह किताब कहाँ तक पढ़ने वाले के ज़ेहन पर अपना एक ऐसा तिलिस्म बनाने में कामयाब हुई है, जिसे तोड़ना बहुत समय तक न सही मगर कुछ वक़्त के लिए मुश्किल हो। मैं हैरी पॉटर या दूसरे जादुई उपन्यासों की मिसाल नहीं दूँगा, मेरे नज़दीक अच्छाई और बुराई या सफ़ेद-ओ-सियाह की जंग के लिहाज़ से लिखे गए ऐसे उपन्यासों में एक सामने की मिसाल सलमान रुश्दी का उपन्यास ‘हारून एंड दि सी ऑफ़ स्टोरीज़’ है। जब आप किसी अहम अदबी शख़्सियत की लिखी हुई तहरीर पढ़ते हैं तो उससे कुछ थोड़ी बहुत अपेक्षा करना ग़लत नहीं है। 

लवली गोस्वामी अपने उपन्यास के पहले सौ पन्नों में पाठक को बाँधने में असमर्थ रही हैं, ये पहले सौ पन्ने निहायत फ़िल्मी और लचर हैं और किसी किताब को पढ़ने से रोकने के लिए यह वजह काफ़ी से बहुत ज़्यादा है। इन पन्नों में जो मारधाड़, चोरी, किडनैपिंग, धमकी और दुनिया को तबाह करने की कोशिश से जुड़ी कच्ची वारदातें हैं; वे इक्कीसवीं सदी के किसी दस साल के बच्चे के लिए भी आख़िरी हद तक उबाऊ साबित होंगी, इस बात को इसी तरह व्यक्त करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि—एक्शन, थ्रिल और स्टंट से लबरेज़ फ़िल्मों और वेब-सीरीज़ की इस दुनिया में कोई ऐसा उपन्यास पढ़ना जारी क्यों रखेगा जिसकी हर दूसरी वारदात मिथुन की किसी थर्ड ग्रेड फ़िल्म के मंज़रों की याद दिलाए, ये पन्ने न तो जज़्बाती और न ही अदबी सतह पर इतने भी कारगर हैं कि आपको बस रोके रख सकें, आपका धैर्य बनाए रख सकें और यक़ीन जानिए ये उपन्यास इस सिलसिले में बुरी तरह नाकाम होता नज़र आता है, इसे अगर 'यंग अडल्ट लिटरेचर' की श्रेणी में भी रखा जाए, तब भी यह मानना ही पड़ेगा कि यह उससे भी बहुत इंसाफ़ नहीं कर सका है।

इस उपन्यास की दूसरी बड़ी ख़ामी इसके बे-जान और ठस मुकालमे यानी संवाद हैं। मैं नहीं समझ सका हूँ कि किसी भी कहानी में लिखे हुए इस तरह के निहायत सस्ते और जाली क़िस्म के संवाद को ख़ुद लेखक ने क्यों नज़रअंदाज़ कर दिया, इसकी मिसाल में यहाँ मैं कुछ ऐसे डायलॉग्स पेश करता हूँ, जिन्हें पढ़कर यक़ीन है कि आप मेरी बात से कुछ इत्तिफ़ाक़ कर सकेंगे, पहली ही नज़र में आप यह मानने पर मजबूर हो जाएँगे कि इस तरह के मुकालमों से यह उपन्यास भरा हुआ है :

अगर तुम आँखें नहीं खोलोगी, तो मजबूरन हमें तुमको पैर में गोली मारनी पड़ेगी! शायद इससे तुम अपना यह नाटक बंद कर दो।

क्योंकि अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो इससे तुम्हारे परिवार पर ख़तरा आएगा। ये देखो।

हम धरती के अंतिम आदमी से भी वह लॉकिट हासिल कर लेंगे। इसकी चिंता तुम मत करो। बस, हमसे झूठ बोलने की कोशिश मत करना।

मैं समझ नहीं पा रही उस मामूली से लॉकेट के लिए तुम इतने बेचैन क्यों हो? और तुम मेरी माँ को कैसे जानते हो?

ये एक ही चैप्टर से लिए गए कुछ नमूने हैं। एक चीज़ होती है हैरानी, एक बात होती है इंसान की ज़ेहनी हालत और उस वक़्त इंसान के मुँह से निकली हुई बातों को दर्शाने के लिए बड़ी एहतियात और समझ की ज़रूरत होती है, क्या ऊपर दिए हुए संवादों से इंसानों के बारे में, उनकी मनोदशा की पुख़्ता समझ के बारे में लेखक की तरफ़ से कोई भी इशारा मिलता है? ये तो ऐसा मालूम हो रहा है कि जैसे परदे पर कोई घिसी-पिटी फ़िल्म चल रही है। 

इन मुकालमों को ज़ोर से पढ़ते हुए पाठक को एक दफ़ा ख़ुद पर ही ओवर-एक्टिंग का गुमान होने लगेगा। मैं हैरान हूँ कि इस किताब को लिखने के बाद क्या लेखक ने एक दफ़ा भी ड्राफ़्ट को दुबारा देखने की ज़हमत नहीं की? या चेख़व का हवाला देने वाली लेखक को संवादों के इस कच्चे घड़े की मिट्टी घुलने का थोड़ा-सा भी एहसास नहीं हुआ? सिर्फ़ साइंस फ़िक्शन के नाम पर किसी भी ऐसे साहित्य को क्या गवारा किया जा सकता है, जो किसी आम-सी बाज़ारी ज़रूरत के हिसाब से लिखी गई कॉमिक बुक का भी ठीक से मुक़ाबला न कर सके?

अब आते हैं इस कहानी की एक दूसरी बड़ी कमज़ोरी की तरफ़। मुझे कहानी पढ़ते वक़्त बार-बार यह एहसास हो रहा था कि इस उपन्यास-लेखक बहुत जल्दी में सब कुछ निपटा देना चाहती हैं—एक घटना अभी ठीक से घटी भी नहीं होती, उससे जुड़े किरदारों की कोई सोच हम पर खुलती नहीं कि उससे पहले ही एक दूसरी घटना का विस्फोट हो जाता है। ये सब इतनी तेज़ी, इतनी जल्दी से घटता चला जाता है कि पाठक कई जगह इसकी वजह से बहुत झल्लाया-सा महसूस कर सकता है। फिर किरदार ग़ायब हो जाते हैं, इस कहानी में अनुभा, रोहन, समर्थ, सुप्रभ, मोहिनी, सरला, अनूप सब ही एक तरह की जल्दबाज़ी में हैं। 

यहाँ तक कि अनूप और सरला तो एक समय के बाद ऐसे छू-मंतर होते हैं, जो वो इस कहानी में सिर्फ़ बंदी बनाने के लिए पैदा किए गए थे। फिर सरला की कहानी, उसका अपने पति से अलगाव और घर का क्लेश, सब कुछ एक बेमानी और ग़ैरज़रूरी—कहानी से किसी भी तरह न जुड़े होने के सबब में—अर्थहीन मालूम होने लगता है। 

दूसरी तरफ़ रोहन एक मशीन है, वह अनुभा से प्रेम भी करता है और बहुत तेज़ी से उसकी किसी और से शादी को स्वीकार करके उसके इर्द-गिर्द भी मँडलाता रहता है, अनुभा ख़ुद बाप से अलग होकर पति के साथ कैसे समय गुज़ारती है और किस तरह एक अनजान आदमी के प्रेम में निहायत फ़िल्मी ढंग से सिर्फ़ इसलिए पड़ जाती है, क्योंकि उसने उसे मरने से बचा लिया है। न किसी किरदार की अपनी कोई गहरी जज़्बाती समझ उभरकर आ पाई है और न पहचान बन पाई है, ऐसा लगता है कि जैसी ज़रूरत लगी वैसे उस किरदार से काम ले लिए गया और उसी तेज़ी से उसको मरवा दिया गया, बंदी बना दिया गया, मंज़र से हटा दिया गया, और ये सारी बातें किसी उपन्यास को कमज़ोर और बहुत उबाऊ बनाने के लिए काफ़ी हैं। 

ये सब इस तरह घटता हुआ मालूम होता है कि जैसे लेखिका ने इस इच्छा से क़लम उठाया कि उन्हें कोई मसालेदार, एक्शन और पॉपुलर क़िस्म की साई-फ़ाई मूवी की स्क्रिप्ट लिखनी है, और वह बग़ैर सोचे-समझे, किसी भी किरदार या हालात में गहरे उतरे बस धड़ाधड़ क़लम पीटती जा रही हैं। इस तरह अगर उपन्यास लिखे जाएँ और भारतीय परंपरा की कड़ी से जोड़कर देखा जाए तो हम इसे अपनी जड़ों को कमज़ोर करने के अलावा और क्या कह सकते हैं, क्या उपन्यास के बारे में हमारी इतनी समझ अभी तक पनप नहीं सकी है कि हम समझ सकें कि यह काम इतने हल्के हाथों से करने का नहीं है, इसमें बड़ी बारीकी और होशियारी की ज़रूरत है।

किताब के पहले पन्ने पर लेखक ने लिखा है कि यह कोई फ़िल्म नहीं है, यह बात आपको ऐसा तास्सुर दे सकती है कि यह उपन्यास फ़िल्म से कोई बहुत अलग एक खरी और सच्ची दुनिया का दर्शन आपको करवाएगा, मगर कुछ समय बाद पता चलता है कि यह कोई उपन्यास नहीं बल्कि एक ख़ासी सी-ग्रेड फ़िल्म ही है, जहाँ सब कुछ अटर-बटर एक ही थाली में परोसकर आपको दे दिया गया है। 
आख़िरी बात के तौर पर यह कहना चाहूँगा कि चिनुआ अचीबे के उपन्यास ‘थिंग्स फ़ॉल अपार्ट’ में एक मंज़र है, जहाँ एक आदमी को अपने मुँह बोले बेटे की हत्या करनी होती है, उस मंज़र को अचीबे ने जिस तरह लिखा है, वह पढ़ने वाले को अंदर तक झंझोड़ देता है, उस हत्या का कारण भी बहुत हद तक उसकी एक बड़ी मजबूरी होती है, मगर ‘वनिका’ में जिस तरह समर्थ अपनी पत्नी और बेटी दोनों को क़त्ल करके बस एक आम से ‘विलन’ में कन्वर्ट होता हुआ छायादूत नज़र आता है, उससे मालूम होता है कि हमारे समाज में क़त्ल या मौत जैसी चीज़ को लेखक किस तरह और किस सामान्य रूप से देखते हैं। सारी कड़ियों को ठीक-ठीक मिला देने से कोई बाज़ारी क़िस्म का जासूसी उपन्यास लिखना तो संभव है, मगर ज़िंदा रहने वाले और भीतर उतर जाने वाले उपन्यासों में सबसे पहले इस तरह की चीज़ों से बचने की ज़रूरत होती है। 

अब एक और आख़िरी बात यह कि मैंने शुरुआत में कहा था कि एक कमज़ोर उपन्यास है, ख़राब नहीं। उसकी वजह यह है कि सौ पन्नों के बाद उसकी भाषा, शैली और हालात कुछ हद तक क़ाबिल-ए-बर्दाश्त कहे जा सकते हैं; बल्कि रोहन द्वारा सुनाई गई सुप्रभ और मोहिनी की इश्क़िया दास्ताँ और वनिकाओं द्वारा बताई गई मौत की ईजाद की कहानी काफ़ी हद तक दिलचस्प है, इसीलिए मैंने कहा था कि जल्दबाज़ी से अच्छे और कहे जा सकने वाले क़िस्सों को हम ख़राब कर सकते हैं, जैसा कि इस उपन्यास में हुआ। मेरे नज़दीक वनिका अगर उपन्यास के बजाय कहानी के रूप में होती तो शायद लेखक इसमें अपनी बात ज़्यादा एहतियात और तवज्जोह के साथ रख पातीं।

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