नामवर सिंह के उद्धरण
आज भी आलोचना, आलोचना के प्रत्ययों, अवधारणाओं और पारंपरिक भाषा से इतनी जकड़ी हुई है कि वह नई बन ही नहीं सकती।
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के पहले आलोचक थे। उनके पहले समीक्षक हुआ करते थे, जो पुस्तकों की समीक्षा या टिप्पणियाँ लिखते थे।
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यदि साहित्य को आप अनुभव की वस्तु मानेंगे तो उसका अनिवार्य नतीजा होगा कि आलोचना उपभोक्ता के लिए सहायक वस्तु होगी, उस आलोचना का अपना कोई अस्तित्व नहीं होगा।
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संबंधित विषय : साहित्य
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आलोचना औज़ारों का बक्सा नहीं, जिसे पाकर कोई आलोचक न बन जाए। अक़्ल हो तो एक पेचकश ही काफ़ी है।
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आलोचकों में वह आदमी बहुत गुस्ताख़ समझा जाता है जो किसी कृति के मूल्यांकन की बात करे।
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साहित्यकार की स्वतंत्रता अन्य आदमियों की स्वतंत्रता से थोड़ी भिन्न होती है।
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कवि अपने बारे में कहे तो कविता हो सकती है, पर आलोचना तो तभी होती है जब रचना के बारे में कहा जाए। आलोचक को अपने बारे में कहने की छूट नहीं है।
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यह बहुत भारी विडंबना है कि किसी आलोचक से उसकी रचना-प्रक्रिया के बारे में पूछा जाए। वह दूसरों की रचना-प्रक्रिया के बारे में बताता है।
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आलोचना एक रचनात्मक कर्म है, यह दोयम दर्जे का काम नहीं है। यदि आप में सर्जनात्मकता नहीं है तो आप आलोचना नहीं कर सकते।
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आलोचना के इतिहास के बारे में जितनी पुस्तकें लिखी गई हैं, वे अपूर्ण-अधूरी ही नहीं हैं, बल्कि उनकी जो मूल दृष्टि है, वह अभावों का दुर्दांत उदाहरण है।
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किसी कृति की अंतर्वस्तु का विश्लेषण नहीं करना चाहिए, बल्कि अंतर्वस्तु के रूप का विश्लेषण करना चाहिए।
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आलोचना का कार्य अतीत की रक्षा के साथ-साथ यह भी है कि वह समकालीनता में हो, अर्थात् वह समकालीन रचनाओं को जाँचे-परखे, मूल्य-निर्णय दे।
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आलोचक सही अर्थों में वह है जिसके पास लोचन है। वह लोचन किसी दृष्टि से और साहित्य से ही प्राप्त होता है, रचना से प्राप्त होता है—किसी दर्शन से प्राप्त हो, संभव नहीं है।
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शास्त्र में प्रसंगवश आलोचना होती है, जबकि आलोचना में सिद्धांत-चर्चा प्रसंगवश की जाती है।
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कोई रचना अच्छी लगे, लेकिन ठीक-ठीक वजह का पता न चल पाए तो भी आलोचक में यह कहने का साहस होना चाहिए कि रचना अच्छी है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere