“इसमें कोई संदेह नहीं,” बूढ़े सज्जन श्री कारास ने कहा, “अगर कोई अपने अतीत का लेखा-जोखा करे, तो उसे अपनी ज़िंदगी में ही अलग-अलग क़िस्म की ज़िंदगियों के सूत्र मिल सकते हैं। यह संयोग की ही बात है कि किसी एक दिन वह ग़लती से—या शायद अपनी इच्छा से—एक ख़ास क़िस्म की ज़िंदगी चुन लेता है और आख़िर तक उसे निभाए ले जाता है। सबसे शोचनीय बात यह है कि वे दूसरी ज़िंदगियाँ—जिन्हें उसने नहीं चुना...मरती नहीं। किसी-न-किसी रूप में वे उसके भीतर जीवित रहती हैं। हर आदमी को उनमें एक अजीब-सी पीड़ा महसूस होती है...जैसे टाँग के कट जाने पर पीड़ा होती है।
“मेरी उम्र कोई दस वर्ष की रही होगी, जब मैंने टिकट जमा करने शुरू कर दिए। मेरे पिता को मेरा यह शौक एक आँख नहीं सुहाता था। वह शायद सोचते थे कि एक बार मुझे यह लत पड़ गई तो पढ़ाई-लिखाई के प्रति मेरा ध्यान उखड़ जाएगा। किंतु मेरा एक मित्र था—लोयजीक चेपेल्का। मेरी तरह उसे भी विदेशी टिकट जमा करने का बेहद शौक था। लोयजीक के पिता ‘बैरल ऑर्गान’ बजाकर परिवार का पालन-पोषण करते। वह एक आवारा क़िस्म का लड़का था—मुँह पर चेचक के दाग़ थे, किंतु मेरा उसके प्रति गहरा लगाव था...कुछ उसी तरह जैसा स्कूली लड़कों का एक-दूसरे के प्रति लगाव होता है। आप जानते हैं, मैं बूढ़ा आदमी हूँ। बीबी-बच्चों का स्नेह मुझे मिला है, किंतु मुझे लगता है कि दो दोस्तों की मैत्री से अधिक ख़ूबसूरत कोई दूसरा संबंध नहीं हो सकता। किंतु इस तरह की मैत्री छुटपन में ही संभव हो सकती है। बाद में वह ताज़गी नहीं रहती...उस पर हमारे स्वार्थों की मैली परत जमा हो जाती है। मेरा मतलब उस ख़ास क़िस्म की मैत्री से है, जिसमें एक गहरा उत्साह और आकर्षण छिपा रहता है—आत्मशक्ति और स्नेह भावना का उमड़ता, छलछलाता ज्वार। वह अपने में इतना अधिक इतना मुक्त और उच्छल होता है कि जब तक आदमी उसका एक अंश दूसरे को नहीं दे देता, उसे शान्ति नहीं मिलती। मेरे पिता वकालत करते थे—शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में उनका विशिष्ट स्थान था। उनका रोब और दबदबा सब मानते थे। लेकिन मेरी दोस्ती एक ऐसे लड़के से थी, जिसका पिता एक पियक्कड़ बैंड मास्टर था और जिसकी माँ दूसरे लोगों के कपड़े धोकर घर की रोटी चलाती थी। इसके बावजूद लोयजीक के प्रति मेरे दिल में गहरी श्रद्धा और आदर का भाव था, क्योंकि वह मुझसे कहीं अधिक चालाक और चतुर था। वह आत्मनिर्भर था और उसमें हर प्रकार के जोखिम का सामना करने का साहस था। उसकी नाक पर चेचक के दाग़ थे और वह बाएँ हाथ से पत्थर फेंक सकता था। आज मुझे वे सब चीज़ें याद नहीं रहीं, जिनके कारण उसके प्रति मेरा इतना अटूट और गहरा लगाव उत्पन्न हो गया था। लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि वैसा लगाव ज़िंदगी में किसी अन्य व्यक्ति के प्रति कभी उत्पन्न नहीं हो सका।
“उन दिनों जब मुझपर टिकट जमा करने की धुन सवार हुई थी। लोयजीक ही मेरा एक विश्वासपात्र मित्र था, जिससे मैं कभी कुछ नहीं छिपाता था। मेरे विचार में मनुष्य में संग्रह करने का शौक आदि-काल से चला आ रहा है। जब अपने शत्रुओं के मस्तक, लड़ाई में लूटी हुई चीज़ें, रीछों की खालें, हिरणों के सींग—इत्यादि जिस चीज़ पर उसका हाथ पड़ जाता था, उसे वह अपने ख़ज़ाने में जमा कर लेता था। किंतु टिकट-संग्रह करने की अपनी एक विशेषता है...हमें उसमें एक अजीब-सा रोमाँचकारी अनुभव होता है। लगता है हम किसी सुदूर-देश को अपनी अँगुलियों से छू रहे हैं—भूटान, बोलेविया, केप और गुड होप! इन टिकटों के सहारे हम अपने और इन अजाने देशों के बीच एक गहरी आत्मीयता-सी महसूस करने लगते हैं। टिकट-संग्रह का नाम लेते ही हमारी आँखों के सामने ज़मीन और समुद्र की रोमाँचकारी यात्राएँ, जोखिम और साहस के कारनामे घूम जाते हैं। यह कुछ उतना ही रोचक और सनसनीखेज जान पड़ता है, जितना मध्ययुग में किए जाने वाले ईसाइयों के धर्म-अभियान।
“मैं आपसे अभी कह रहा था कि मेरे पिता को मेरा यह शौक ज़्यादा पसंद नहीं था। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि वास्तव में अधिकांश लोग यह नहीं चाहते कि उनके पुत्र कोई ऐसा काम करें, जिसे उन्होंने स्वयं कभी नहीं किया। ख़ुद मेरा अपने पुत्रों के प्रति भी ऐसा ही व्यवहार रहा है। पुत्र के प्रति पिता की भावना अंतर्विरोधों से भरी रहती है...स्नेह तो उसमें अवश्य होता है, किंतु उसमें एक हद तक पूर्वाग्रह, अविश्वास और विरोध के तत्व भी मिले होते हैं। आप अपने बच्चों को जितना अधिक प्यार करते हैं, उतनी ही मात्रा में विरोध भी... और यह विरोधी भावना स्नेह के साथ-साथ बढ़ती जाती है। ख़ैर...मैंने अपने टिकटों का संग्रह गोदाम के एक कोने में छिपाकर रखा था, ताकि पिता की नज़र उन पर न पड़ सके। हम दोनों चूहों की तरह लुक-छिप कर उस गोदाम में एक-दूसरे के टिकटों को देखा करते थे। अलग-अलग देशों के टिकट...नीदरलैंड, मिस्र, स्वेरिज, स्वीडन...उन्हें देखते हुए हमारी आँखें नहीं भरती थीं। हमने अपना ख़ज़ाना छिपाकर रखा था। अत: उसमें ‘पाप’ की एक गोपनीय भावना भी भरी थी, जो हमें अजीब-सा आनंद देती थी। मैंने जिस तरह के टिकट जमा किए थे, वह भी अपने में कम रोमाँचकारी और दुर्गम काम नहीं था। मैं जाने-अजाने परिवारों का चक्कर लगाया करता था और आरज़ू-मिन्नत करके उनकी पुरानी चिट्ठियों के टिकट उतार कर अपने पास जमा कर लेता था। कभी-कभार मुझे ऐसे लोग मिल जाते थे, जिनकी मेज़ों की दराज़ें ठसाठस पुराने काग़ज़ों से भरी रहती थीं। तब मेरी, ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था। मैं फ़र्श पर बैठ कर बड़े इत्मीनान से पुराने काग़ज़ के कूड़े-करकट का निरीक्षण करता और चुन-चुन कर वे टिकट निकालता जाता जो मेरे पास नहीं थे। मैंने कभी एक जैसे ही दो टिकट जमा नहीं किए...इसे मेरी बेवकूफ़ी ही समझ लीजिए। किंतु जब कभी अचानक लोम्बार्डी या किसी छोटे से जर्मन-राज्य या यूरोप के किसी स्वतंत्र नगर का टिकट मेरे हाथ लग जाता तो मेरी ख़ुशी पीड़ा की सीमा तक जा पहुँचती—शायद हर बड़ी ख़ुशी में पीड़ा का मधुर स्पर्श छिपा रहता है। इस दौरान लोयजीक बाहर मेरी प्रतीक्षा करता रहता। बाहर निकलते ही मैं दबे स्वर में उसके कानों में फुसफसा कर कहता—“लोयजीक, लोयजीक...वहाँ हैनोवर का एक टिकट था।” “तुमने उतार लिया?” “हाँ।” और तब हम लूटी हुई संपत्ति को जेब में दबोच कर सरपट घर की ओर भागने लगते, जहाँ हमारा ख़ज़ाना छिपा था।
“हमारे शहर में बहुत से कारख़ाने थे, जहाँ हर क़िस्म का अल्लम-गल्लम तैयार किया जाता था—कपास, रूई, घटिया क़िस्म का ऊन। यह सड़ा-गला माल दुनिया भर की वर्ण-जातियों को भेजा जाता था। मुझे अक्सर वहाँ रद्दी काग़ज़ों की टोकरियाँ मिल जाती थीं...या यों कहिए, मेरे लिए लूट-खसोट करने का वह सबसे बढ़िया स्थान था। वहाँ मुझे प्राय: स्याम, दक्षिणी अफ़्रीका, चीन, लिबोरिया, अफगानिस्तान, बोर्नियो, ब्राजील, न्यूलीजैंड, इंडिया और कॉन्गो के टिकट मिल जाते थे। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन मुझे इन नामों की ध्वनि मात्र से एक अजीब-सा रहस्य और आकर्षण महसूस होता है। मैं आपको बता नहीं सकता कि उस क्षण मुझे कितनी ख़ुशी होती थी, जब अचानक मेरे हाथ में स्ट्रेट्स सैटलमेंट या कोरिया या नेपाल या न्यू गिनी या सियरालियोने या मैडागास्कर का कोई टिकट पड़ जाता था। आपसे सच कहता हूँ कि वैसी ख़ुशी सिर्फ़ किसी शिकारी या ख़ज़ाना-ख़ोजी या ज़मीन की खुदाई करने वाले पुरातत्व-अन्वेषी को ही उपलब्ध हो पाती है। किसी चीज़ को ख़ोजना और पाना—मेरे ख़याल ज़िंदगी में इससे बड़ा सुख और रोमाँच कोई नहीं। हर आदमी को कोई-न-कोई चीज़ ख़ोजनी चाहिए—अगर टिकट नहीं तो सत्य या स्वर्ण-पंख या कम से कम नुकीले पत्थर और राखदानियाँ।
“वे मेरी ज़िंदगी के सबसे सुखद वर्ष थे—लोयजीक के साथ मेरी दोस्ती और मेरा टिकट-संग्रह। फिर अचानक एक दिन मुझे बुखार आ गया। लोयजीक को मेरे पास आने की इजाज़त नहीं थी। इसलिए वह कभी-कभी नीचे दहलीज़ में खड़ा होकर सीटी बजाया करता था, ताकि मैं उसकी आवाज़ सुन सकूँ। एक दोपहर जब घर के लोग मेरी ओर से बेख़बर थे। मैं सबकी आँख बचाता हुआ ऊपर गोदाम में अपने टिकट देखने चला आया। बुखार के कारण मैं इतना कमज़ोर हो गया था कि बड़ी मुश्किल से सन्दूक का ढक्कन उठा पाया। संदूक़ ख़ाली पड़ा था, जिस बक्से में मैंने टिकट जमा किए था, वह वहाँ नहीं था।
“उस क्षण मेरे हृदय पर कितना गहरा, मर्मान्तक आघात पहुँचा था, मैं आपको बता नहीं सकता। कुछ देर तक पत्थर की मूर्ति-सा ख़ाली संदूक़ के सामने खड़ा रहा। मैं रो भी नहीं सका, मानो कोई गोला मेरे गले में अटक गया हो। मेरे लिए यह विश्वास करना असंभव था कि मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी—टिकटों का संग्रह—ग़ायब हो गया था, किंतु इससे अधिक बात यह थी कि उसे चुराने वाला कोई और न होकर मेरा अधिक भयानक मित्र लोयजीक था; मेरी बीमारी के दिनों में वह उसे चोरी-चुपके उठा ले गया था। मैं कितना विह्वल, कातर और बेबस हो गया था, कहना मुश्किल है। यह आश्चर्य की बात है कि बच्चे कितनी दुर्दमनीय पीड़ा भोग सकते हैं। पता नहीं, मैं गोदाम से कैसे बाहर आया? किंतु उसके बाद मुझे दोबारा तेज़ बुखार चढ़ आया। चेतना के क्षणों में मैं निराश भाव से अपने टिकटों के बारे में सोचने लगता। मैंने इस बारे में एक शब्द भी अपने पिता या बुआ से नहीं कहा। मेरी माँ अर्सा पहले गुज़र चुकी थीं। मैं जानता था कि वे मेरी अंतर्पीडा नहीं समझ सकेंगे। मेरी इस खामोशी ने मेरे और उनके बीच एक दीवार-सी खड़ी कर दी। मुझे लगता है, उस घटना के बाद उनके प्रति मेरा बालसुलभ स्नेह हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। लोयजीक के विश्वासघात ने मेरे दिल पर भयानक असर किया था—यह पहला अवसर था जब मैंने ज़िंदगी में धोखा खाया था। ‘लोयजीक भिखमंगा है।’ मैंने अपने से कहा, ‘तुमने भिखमंगे के साथ दोस्ती की और उसका फल तुम्हें मिल गया।’ इस अनुभव ने मेरे दिल को काफ़ी कठोर बना दिया। उस दिन से मैं आदमी और आदमी के बीच भेद करने लगा। समाज के प्रति मेरी सहज निर्दोष दृष्टि नष्ट हो गई। यह मैं आज सोचता हूँ—उन दिनों मुझे गुमान भी न था कि इस घटना ने किस हद तक मुझे हिला दिया है। न कभी यह कल्पना की थी कि इसकी चोट मेरी ज़िंदगी पर हमेशा के लिए एक खरोंच छोड़ जाएगी।”
“बुखार उतरने के साथ ही टिकट-संग्रह के खो जाने का शोक भी मेरे मन से उतर गया। किंतु जब कभी मैं लोयजीक को नए मित्रों के साथ हँसते-बोलते देखता था, मेरा घाव फिर हरा हो जाता था। बीमारी के बाद वह मेरे पास भागता हुआ आया था—उसके चेहरे पर हल्की-सी झेंप थी, क्योंकि हम इतने दिनों बाद मिले थे। किंतु मैंने रूखे स्वर में उसे दुरदुरा दिया था। ‘अपना रास्ता पकड़ो...मेरा-तुम्हारा रिश्ता ख़त्म!’ मेरे इन शब्दों को सुन कर उसका चेहरा लाल हो गया था और उसने हकलाते हुए कहा था ‘अच्छा—ठीक है।’ उस दिन से वह जी-जान से मुझसे नफ़रत करने लगा था। ऐसी नफ़रत, जो सिर्फ़ निम्नवर्गीय लोग ही कर सकते हैं।”
“हाँ...उस घटना ने मेरी समूची ज़िंदगी को बदल दिया था। मुझे आसपास की दुनिया दूषित और अपवित्र जान पड़ने लगी। लोगों में मेरी आस्था नष्ट हो गई। मैं हर व्यक्ति को घृणा और हिकारत की नज़र से देखने लगा। उसके बाद मेरा कोई मित्र नहीं था। बड़ा होने पर भी मैं अपने को अपने तक सीमित रखने लगा। मुझे किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी—और न ही मैं किसी के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करता था। फिर मैंने अनुभव किया कि दूसरे लोग भी मुझे पसंद नहीं करते। मैंने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि मैं स्वयं दूसरों के स्नेह और भावुकता को हिकारत की दृष्टि से देखता हूँ। मैं अपने में अलग-थलग रहने लगा...एक ऐसे व्यक्ति की तरह जो अपने लक्ष्य की साधना करने में जुटा हो।”
आत्मनिष्ठ कर्मशील एक ऐसा व्यक्ति जो कभी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता। अपने नीचे काम करने वालों के प्रति मेरा व्यवहार बेहद चिड़चिड़ा और कठोर हो गया। जिस स्त्री से मैंने विवाह किया, उसे कभी अपना प्रेम नहीं दे सका। अपने बच्चों का पालन-पोषण भी इस ढंग से किया कि वे कभी मेरे आगे अँगुली न उठा सकें। मेरी कर्मनिष्ठा और कर्त्तव्यपरायणता की धाक सब पर अच्छी तरह बैठ गई। बस, यही मेरी ज़िंदगी थी। मेरी सारी ज़िंदगी। —मेरी आँखों के आगे सिर्फ़ कर्त्तव्य था...और कुछ नहीं। मैं जानता हूँ, जब मैं नहीं रहूँगा, अख़बारों में मेरे महत्वपूर्ण कार्यों और उज्जवल चरित्र के बारे में काफ़ी चर्चा होगी। काश! लोग जान पाते कि इस सबके पीछे कितना अकेलापन, कितना अविश्वास, कितना आत्म-संकल्प दबा पड़ा है।”
“तीन वर्ष पहले मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी। उस दिन मुझे कितना क्लेश हुआ। यह बात मैं आज तक अपने से और दूसरों से छिपाता रहा हूँ। शोक में विह्वल-सा होकर मैं अपने परिवार के स्मृति-चिह्न उलटने-पलटने लगा—चीज़ें—जिन्हें मेरे माता-पिता पीछे छोड़ गए थे। फोटोग्राफ, ख़त, मेरी पुरानी स्कूल की कापियाँ...मेरे पिता काफ़ी गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति थे, किंतु जिस लगन के साथ उन्होंने इन सब चीजों को सँभाल कर रखा था उसे देख कर मेरा गला भर आया। उस क्षण मुझे लगा, मानो सचमुच वह मुझसे काफ़ी स्नेह करते थे। गोदाम की अलमारी इन सब चीज़ों से भरी थी। अलमारी की सबसे निचली दराज़ में पिता ने अपना संदूक़ मुहर लगा कर रखा था। जब मैंने उसे खोला, मेरी आँखों के सामने वह टिकट-संग्रह पड़ गया, जिसे मैंने पचास वर्ष पहले जमा किया था।”
“मैं आपसे कोई बात छिपाकर नहीं रखूँगा। मेरे आँसू फूट पड़े और मैं टिकटों के बक्से को इस तरह दबाकर अपने कमरे में ले आया, मानो मुझे कोई ख़ज़ाना मिल गया हो। मेरे मस्तिष्क में सारी बात बिजली की तरह कौंध गईं। जब मैं बीमार था, पिता के हाथों में मेरा टिकट-संग्रह पड़ गया होगा। उन्होंने उसे संदूक में छिपा लिया था, ताकि मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई मन लगा कर करता रहूँ। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, किंतु यह उन्होंने मेरे प्रति स्नेह और लगाव से उत्प्रेरित होकर ही किया था। पता नहीं क्यों—उस क्षण मुझे अपने पिता और अपने पर रोना आने लगा।”
“फिर सहसा मुझे याद आया—लोयजीक ने आख़िर मेरे टिकट नहीं चुराए थे। मैंने उसके प्रति कितना घोर अन्याय किया था। यह सोचकर ही मेरा दिल काँप उठा। चेचक के दाग़ों से भरा उस आवारा लड़के का मैला-कुचैला चेहरा अपनी आँखों के सामने घूम गया। न जाने वह अब कहाँ होगा...पता नहीं वह जीवित भी होगा या नहीं? आपसे सच कहता हूँ जितना ही मैं अतीत की उस घटना के बारे में सोचता था। उतनी ही अधिक अपने पर शर्म और ग्लानि महसूस होती थी। एक झूठे संदेह के कारण मैंने अपने एकमात्र अभिन्न मित्र को खो दिया था...मेरा समूचा जीवन तबाह हो गया था। उसके कारण ही मैं इतना आत्मकेंद्रित हो गया था। उसके कारण ही मैंने दूसरे लोगों से अपने सब संबंध तोड़ लिए थे। महज़ उसके कारण डाक टिकट को देखते ही मेरा मन खीज और झुँझलाहट से भर उठता था। उसके कारण ही मैंने अपनी पत्नी को—विवाह से पूर्व या उसके बाद—कभी कोई पत्र नहीं लिखा, क्योंकि मैं अपने को इन छोटी-मोटी भावुकताओं से ऊपर मानता था...हालाँकि मेरी पत्नी को यह बात काफ़ी चुभती थी।”
“उसके कारण ही मैं इतना कठोर था और सबसे नाता तोड़कर अलग-थलग रहने लगा था। उसके कारण और सिर्फ़ उसके कारण ही मेरा जीवन इतना आदर्शनीय इतना कर्त्तव्यनिष्ठ हो गया था।”
“उस दिन मैंने अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से देखा और तब सहसा मुझे लगा मानो मैं एक बिल्कुल दूसरी ज़िंदगी जी रहा था। अगर वह घटना न होती, तो शायद मैं एक दूसरे क़िस्म का व्यक्ति होता—एक ऐसा व्यक्ति जिसका दिल हमेशा जोश और उत्साह, स्नेह, साहस, जिन्दादिली और हाजिरजवाबी से फड़कता रहता है...मुक्त और विचित्र...आकांक्षाओं में छलछलाता रहता है। मैं कुछ भी हो सकता था...अन्वेषक, अभिनेता, सैनिक। ज़रा देखिए...मैं तब एक ऐसा आदमी होता जो दूसरों के प्रति हमदर्दी महसूस कर सकता है...उनके साथ मिल कर शराब पी सकता है। उन्हें समझ सकता है। आह! मैं क्या कुछ नहीं कर सकता था! और तब उस क्षण मुझे लगा जैसे मेरे भीतर बरसों से दबी बर्फ़ धीरे-धीरे पिघलने लगी हो। मैं अपने टिकट-संग्रह को देखने लगा...बारी-बारी से हर टिकट को। सब पुराने टिकट वहाँ मौजूद थे...लोम्बार्डी, क्यूबा, स्याम, हैनोवर, निकारागुआ, फिलीपीन्स—वे सब देश और शहर जहाँ मैं जाना चाहता था और जिन्हें अब मैं कभी नहीं देख सकूँगा। उनमें से हर टिकट पर किसी अज्ञात चीज़ का टुकड़ा चिपका था। जो हो सकता था और हुआ नहीं था। मैं रात-भर उन टिकटों के सामने बैठा रहा और अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचता रहा। मुझे लगा कि मैं अब तक एक बनावटी, अजनबी और पराई ज़िंदगी जी रहा था...जो मेरी असली ज़िंदगी थी। वह कभी पैदा न हो सकी।” श्री कारास ने उदास भाव से सिर हिलाते हुए कहा। “आह...जब कभी उन चीज़ों के बारे में सोचता हूँ, जो मैं कर सकता था...या अपने उस अपराध के बारे में सोचता हूँ जो मैंने लोयजीक के प्रति किया था... ।”
श्री कारास के इन शब्दों को सुन कर फादर बोंस बहुत गमगीन और उदास हो गए—बहुत संभव है, उन्हें अपनी ज़िंदगी की कोई घटना याद आ गई हो। “कारास साहब!” उन्होंने करुणा-भरे स्वर में कहा, “आप इसके बारे में अधिक न सोचिए। अब कोई फ़ायदा नहीं है... भला-बुरा जो हो चुका है, वह हो चुका है। ज़िंदगी को नए सिरे से शुरू नहीं किया जा सकता...।”
“आप ठीक कहते हैं।” श्री कारास ने लंबी साँस लेते हुए कहा—उनका चेहरा हल्का-सा गुलाबी हो गया था। “लेकिन मैं आपसे कहना चाहता था कि मैंने...फिर से टिकट जमा करने शुरू कर दिए हैं।”
“ismen koi sandeh nahin,” buDhe sajjan shri karas ne kaha, “agar koi apne atit ka lekha jokha kare, to use apni zindagi mein hi alag alag qism ki zindagiyon ke sootr mil sakte hain. ye sanyog ki hi baat hai ki kisi ek din wo ghalati se—ya shayad apni ichchha se ek khaas qism ki zindagi chun leta hai aur akhir tak use nibhaye le jata hai. sabse shochaniy baat ye hai ki ve dusri zindagiyan—jinhen usne nahin chuna. . . marti nahin. kisi na kisi roop mein ve uske bhitar jivit rahti hain. har adami ko unmen ek ajib si piDa mahsus hoti hai. . . jaise taang ke kat jane par piDa hoti hai.
“meri umr koi das varsh ki rahi hogi, jab mainne tikat jama karne shuru kar diye. mere pita ko mera ye shauk ek ankh nahin suhata tha. wo shayad sochte the ki ek baar mujhe ye lat paD gai to paDhai likhai ke prati mera dhyaan ukhaD jayega. kintu mera ek mitr tha—loyjik chepelka. meri tarah use bhi videshi tikat jama karne ka behad shauk tha. loyjik ke pita ‘bairal aurgan’ bajakar parivar ka palan poshan karte. wo ek avara qism ka laDka tha—munh par chechak ke daag the, kintu mera uske prati gahra lagav tha. . . kuch usi tarah jaisa skuli laDkon ka ek dusre ke prati lagav hota hai. aap jante hain, main buDha adami hoon. bibi bachchon ka sneh mujhe mila hai, kintu mujhe lagta hai ki do doston ki maitri se adhik khubsurat koi dusra sambandh nahin ho sakta. kintu is tarah ki maitri chhutpan mein hi sambhav ho sakti hai. baad mein wo tazgi nahin rahti. . . us par hamare svarthon ki maili parat jama ho jati hai. mera matlab us khaas qism ki maitri se hai, jismen ek gahra utsaah aur akarshan chhipa rahta hai—atmashakti aur sneh bhavna ka umaDta, chhalachhlata jvaar. wo apne mein itna adhik itna mukt aur uchchhal hota hai ki jab tak adami uska ek ansh dusre ko nahin de deta, use shanti nahin milti. mere pita vakalat karte the—shahr ke pratishthit vyaktiyon mein unka vishisht sthaan tha. unka rob aur dabdaba sab mante the. lekin meri dosti ek aise laDke se thi, jiska pita ek piyakkaD bainD mastar tha aur jiski maan dusre logon ke kapDe dhokar ghar ki roti chalati thi. iske bavjud loyjik ke prati mere dil mein gahri shraddha aur aadar ka bhaav tha, kyonki wo mujhse kahin adhik chalak aur chatur tha. wo atmanirbhar tha aur usmen har prakar ke jokhim ka samna karne ka sahas tha. uski naak par chechak ke daagh the aur wo bayen haath se patthar phenk sakta tha. aaj mujhe ve sab chizen yaad nahin rahin, jinke karan uske prati mera itna atut aur gahra lagav utpann ho gaya tha. lekin itna zarur kah sakta hoon ki vaisa lagav zindagi mein kisi anya vyakti ke prati kabhi utpann nahin ho saka.
“un dinon jab mujhpar tikat jama karne ki dhun savar hui thi. loyjik hi mera ek vishvasapatr mitr tha, jisse main kabhi kuch nahin chhipata tha. mere vichar mein manushya mein sangrah karne ka shauk aadi kaal se chala aa raha hai. jab apne shatruon ke mastak, laDai mein luti hui chizen, richhon ki khalen, hirnon ke sing—ityadi jis cheez par uska haath paD jata tha, use wo apne khajane mein jama kar leta tha. kintu tikat sangrah karne ki apni ek visheshata hai. . . hamein usmen ek ajib sa romanchkari anubhav hota hai. lagta hai hum kisi sudur desh ko apni anguliyon se chhu rahe hain—bhutan, boleviya, kep aur guD hop! in tikton ke sahare hum apne aur in ajane deshon ke beech ek gahri atmiyata si mahsus karne lagte hain. tikat sangrah ka naam lete hi hamari ankhon ke samne zamin aur samudr ki romanchkari yatrayen, jokhim aur sahas ke karname ghoom jate hain. ye kuch utna hi rochak aur sanasnikhej jaan paDta hai, jitna madhyayug mein kiye jane vale iisaiyon ke dharm abhiyan.
“main aapse abhi kah raha tha ki mere pita ko mera ye shauk zyada pasand nahin tha. ye svabhavik bhi hai kyonki vastav mein adhikansh log ye nahin chahte ki unke putr koi aisa kaam karen, jise unhonne svayan kabhi nahin kiya. khud mera apne putron ke prati bhi aisa hi vyvahar raha hai. putr ke prati pita ki bhavna antarvirodhon se bhari rahti hai. . . sneh to usmen avashya hota hai, kintu usmen ek had tak purvagrah, avishvas aur virodh ke tatv bhi mile hote hain. aap apne bachchon ko jitna adhik pyaar karte hain, utni hi matra mein virodh bhi. . . aur ye virodhi bhavna sneh ke saath saath baDhti jati hai. khair. . . mainne apne tikton ka sangrah godam ke ek kone mein chhipakar rakha tha, taki pita ki nazar un par na paD sake. hum donon chuhon ki tarah luk chhip kar us godam mein ek dusre ke tikton ko dekha karte the. alag alag deshon ke tikat. . . nidarlainD, misr, sverij, sviDan. . . unhen dekhte hue hamari ankhen nahin bharti theen. hamne apna khazana chhipakar rakha tha. atah usmen ‘paap’ ki ek gopaniy bhavna bhi bhari thi, jo hamein ajib sa anand deti thi. mainne jis tarah ke tikat jama kiye the, wo bhi apne mein kam romanchkari aur durgam kaam nahin tha. main jane ajane parivaron ka chakkar lagaya karta tha aur aarzu minnat karke unki purani chitithyon ke tikat utaar kar apne paas jama kar leta tha. kabhi kabhar mujhe aise log mil jate the, jinki mezon ki darazen thasathas purane kaghzon se bhari rahti theen. tab meri, khushi ka thikana nahin rahta tha. main farsh par baith kar baDe itminan se purane kaghaz ke kuDe karkat ka nirikshan karta aur chun chun kar ve tikat nikalta jata jo mere paas nahin the. mainne kabhi ek jaise hi do tikat jama nahin kiye. . . ise meri bevakuphi hi samajh lijiye. kintu jab kabhi achanak laumbaDi ya kisi chhote se jarman rajya ya yurop ke kisi svtantr nagar ka tikat mere haath lag jata to meri khushi piDa ki sima tak ja pahunchti shayad har baDi khushi mein piDa ka madhur sparsh chhipa rahta hai. is dauran loyjik bahar meri prtiksha karta rahta. bahar nikalte hi main dambe svar mein uske kanon mein phusaphsa kar kahta—“loyjik, loyjik. . . vahan hainovar ka ek tikat tha. ’ ‘tumne utaar liya?’ ‘haan. ’ aur tab hum luti hui sampatti ko jeb mein daboch kar sarpat ghar ki or bhagne lagte, jahan hamara khazana chhipa tha.
“hamare shahr mein bahut se karkhane the, jahan har qism ka allam gallam taiyar kiya jata tha—kapas, rui, ghatiya qism ka uun. ye saDagla maal duniya bhar ki varn jatiyon ko bheja jata tha. mujhe aksar vahan raddi kaghzon ki tokariyan mil jati theen. . . ya yon kahiye, mere liye loot khasot karne ka wo sabse baDhiya sthaan tha. vahan mujhe prayah syaam, dakshini afrika, cheen, liboriya, aphganistan, borniyo, brajil, nyulijainD, inDiya aur kaungo ke tikat mil jate the. aapke bare mein mujhe malum nahin, lekin mujhe in namon ki dhvani maatr se ek ajib sa rahasya aur akarshan mahsus hota hai. main aapko bata nahin sakta ki us kshan mujhe kitni khushi hoti thi, jab achanak mere haath mein strets saitalment ya koriya ya nepal ya nyu gini ya siyraliyone ya maiDagaskar ka koi tikat paD jata tha. aapse sach kahta hoon ki vaisi khushi sirf kisi shikari ya khazana khoji ya zamin ki khudai karne vale puratatv anveshi ko hi uplabdh ho pati hai. kisi cheez ko khojna aur pana—mere khayal zindagi mein isse baDa sukh aur romanch koi nahin. har adami ko koi na koi cheez khojni chahiye—agar tikat nahin to satya ya svarn pankh ya kam se kam nukile patthar aur rakhdaniyan.
“ve meri zindagi ke sabse sukhad varsh the—loyjik ke saath meri dosti aur mera tikat sangrah. phir achanak ek din mujhe bukhar aa gaya. loyjik ko mere paas aane ki ijazat nahin thi. isliye wo kabhi kabhi niche dahliz mein khaDa hokar siti bajaya karta tha, taki main uski avaz sun sakun. ek dopahar jab ghar ke log meri or se bekhbar the. main sabki ankh bachata hua uupar godam mein apne tikat dekhne chala aaya. bukhar ke karan main itna kamzor ho gaya tha ki baDi mushkil se sanduk ka Dhakkan utha paya. sanduq khali paDa tha, jis bakse mein mainne tikat jama kiye tha, wo vahan nahin tha.
“us kshan mere hriday par kitna gahra, marmantak aghat pahuncha tha, main aapko bata nahin sakta. kuch der tak patthar ki murti sa khali sanduq ke samne khaDa raha. main ro bhi nahin saka, manon koi gola mere gale mein atak gaya ho. mere liye ye vishvas karna asambhav tha ki meri sabse baDi khushi—tikton ka sangrah—ghayab ho gaya tha, kintu isse adhik baat ye thi ki use churane vala koi aur na hokar mera adhik bhayanak mitr loyjik tha; meri bimari ke dinon mein wo use chori chupke utha le gaya tha. main kitna vihval, katar aur bebas ho gaya tha, kahna mushkil hai. ye ashcharya ki baat hai ki bachche kitni durdamniy piDa bhog sakte hain. pata nahin, main godam se kaise bahar aaya? kintu uske baad mujhe dobara tez bukhar chaDh aaya. chetna ke kshnon mein main nirash bhaav se apne tikton ke bare mein sochne lagta. mainne is bare mein ek shabd bhi apne pita ya bua se nahin kaha. meri maan arsa pahle guzar chuki theen. main janta tha ki ve meri antarpiDa nahin samajh sakenge. meri is khamoshi ne mere aur unke beech ek divar si khaDi kar di. mujhe lagta hai, us ghatna ke baad unke prati mera balasulabh sneh hamesha ke liye khatm ho gaya. loyjik ke vishvasghat ne mere dil par bhayanak asar kiya tha—yah pahla avsar tha jab mainne zindagi mein dhokha khaya tha. ‘loyjik bhikhmanga hai. ’ mainne apne se kaha, ‘tumne bhikhmange ke saath dosti ki aur uska phal tumhein mil gaya. ’ is anubhav ne mere dil ko kafi kathor bana diya. us din se main adami aur adami ke beech bhed karne laga. samaj ke prati meri sahj nirdosh drishti nasht ho gai. ye main aaj sochta hun—un dinon mujhe guman bhi na tha ki is ghatna ne kis had tak mujhe hila diya hai. na kabhi ye kalpana ki thi ki iski chot meri zindagi par hamesha ke liye ek kharonch chhoD jayegi.
“bukhar utarne ke saath hi tikat sangrah ke kho jane ka shok bhi mere man se utar gaya. kintu jab kabhi main loyjik ko ne mitron ke saath hanste bolte dekhta tha, mera ghaav phir hara ho jata tha. bimari ke baad wo mere paas bhagta hua aaya tha—uske chehre par halki si jhemp thi, kyonki hum itne dinon baad mile the. kintu mainne rukhe svar mein use duradura diya tha. ‘apna rasta pakDo. . . mera tumhara rishta khatm!’ mere in shabdon ko sun kar uska chehra laal ho gaya tha aur usne haklate hue kaha tha ‘achchha—thik hai. ’ us din se wo ji jaan se mujhse nafrat karne laga tha. aisi nafrat, jo sirf nimnvargiy log hi kar sakte hain.
“haan. . . us ghatna ne meri samuchi zindagi ko badal diya tha. mujhe asapas ki duniya dushit aur apavitr jaan paDne lagi. logon mein meri astha nasht ho gai. main har vyakti ko ghrina aur hikarat ki nazar se dekhne laga. uske baad mera koi mitr nahin tha. baDa hone par bhi main apne ko apne tak simit rakhne laga. mujhe kisi anya vyakti ki avashyakta nahin thi—aur na hi main kisi ke prati apni sahanubhuti pradarshit karta tha. phir mainne anubhav kiya ki dusre log bhi mujhe pasand nahin karte. mainne isse ye nishkarsh nikala ki main svayan dusron ke sneh aur bhavukta ko hikarat ki drishti se dekhta hoon. main apne mein alag thalag rahne laga. . . ek aise vyakti ki tarah jo apne lakshya ki sadhana karne mein juta ho.
atmanishth karmashil ek aisa vyakti jo kabhi naak par makkhi nahin baithne deta. apne niche kaam karne valon ke prati mera vyvahar behad chiDchiDa aur kathor ho gaya. jis stri se mainne vivah kiya, use kabhi apna prem nahin de saka. apne bachchon ka palan poshan bhi is Dhang se kiya ki ve kabhi mere aage anguli na utha saken. meri karmnishtha aur karttavyaprayanta ki dhaak sab par achchhi tarah baith gai. bas, yahi meri zindagi thi. meri sari zindagi. —meri ankhon ke aage sirf karttavya tha. . . aur kuch nahin. main janta hoon, jab main nahin rahunga, akhbaron mein mere mahatvpurn karyon aur ujjval charitr ke bare mein kafi charcha hogi. kaash! log jaan pate ki is sabke pichhe kitna akelapan, kitna avishvas, kitna aatm sankalp daba paDa hai.
“teen varsh pahle meri patni ki mrityu hui thi. us din mujhe kitna klesh hua. ye baat main aaj tak apne se aur dusron se chhipata raha hoon. shok mein vihval sa hokar main apne parivar ke smriti chihn ulatne palatne laga—chizen—jinhen mere mata pita pichhe chhoD ge the. photograph, khat, meri purani skool ki kapiyan. . . mere pita kafi gambhir svbhaav ke vyakti the, kintu jis lagan ke saath unhonne in sab chijon ko sanbhal kar rakha tha use dekh kar mera gala bhar aaya. us kshan mujhe laga, manon sachmuch wo mujhse kafi sneh karte the. godam ki almari in sab chizon se bhari thi. almari ki sabse nichli daraz mein pita ne apna sanduq muhr laga kar rakha tha. jab mainne use khola, meri ankhon ke samne wo tikat sangrah paD gaya, jise mainne pachas varsh pahle jama kiya tha.
“main aapse koi baat chhipakar nahin rakhunga. mere ansu phoot paDe aur main tikton ke bakse ko is tarah dabakar apne kamre mein le aaya, manon mujhe koi khazana mil gaya ho. mere mastishk mein sari baat bijli ki tarah kaundh gain. jab main bimar tha, pita ke hathon mein mera tikat sangrah paD gaya hoga. unhonne use sanduk mein chhipa liya tha, taki main apni paDhai likhai man laga kar karta rahun. unhen aisa nahin karna chahiye tha, kintu ye unhonne mere prati sneh aur lagav se utprerit hokar hi kiya tha. pata nahin kyon us kshan mujhe apne pita aur apne par rona aane laga.
“phir sahsa mujhe yaad aya—loyjik ne akhir mere tikat nahin churaye the. mainne uske prati kitna ghor anyay kiya tha. ye sochkar hi mera dil kaanp utha. chechak ke daghon se bhara us avara laDke ka maila kuchaila chehra apni ankhon ke samne ghoom gaya. na jane wo ab kahan hoga. . . pata nahin wo jivit bhi hoga ya nahin? aapse sach kahta hoon jitna hi main atit ki us ghatna ke bare mein sochta tha. utni hi adhik apne par sharm aur glani mahsus hoti thi. ek jhuthe sandeh ke karan mainne apne ekmaatr abhinn mitr ko kho diya tha. . . mera samucha jivan tabah ho gaya tha. uske karan hi main itna atmkendrit ho gaya tha. uske karan hi mainne dusre logon se apne sab sambandh toD liye the. mahz uske karan Daak tikat ko dekhte hi mera man kheej aur jhunjhlahat se bhar uthta tha. uske karan hi mainne apni patni ko—vivah se poorv ya uske bad—kabhi koi patr nahin likha, kyonki main apne ko in chhoti moti bhavuktaon se uupar manata tha. . . halanki meri patni ko ye baat kafi chubhti thi.
“uske karan hi main itna kathor tha aur sabse nata toDkar alag thalag rahne laga tha. uske karan aur sirf uske karan hi mera jivan itna adarshniy itna karttavynishth ho gaya tha.
“us din mainne apni zindagi ko ne sire se dekha aur tab sahsa mujhe laga manon main ek bilkul dusri zindagi ji raha tha. agar wo ghatna na hoti, to shayad main ek dusre qism ka vyakti hota—ek aisa vyakti jiska dil hamesha josh aur utsaah, sneh, sahas, jindadili aur hajirajvabi se phaDakta rahta hai. . . mukt aur vichitr. . . akankshaon mein chhalachhlata rahta hai. main kuch bhi ho sakta tha. . . anveshak, abhineta, sainik. zara dekhiye. . . main tab ek aisa adami hota jo dusron ke prati hamdardi mahsus kar sakta hai. . . unke saath mil kar sharab pi sakta hai. unhen samajh sakta hai. aah! main kya kuch nahin kar sakta tha! aur tab us kshan mujhe laga jaise mere bhitar barson se dabi barf dhire dhire pighalne lagi ho. main apne tikat sangrah ko dekhne laga. . . bari bari se har tikat ko. sab purane tikat vahan maujud the. . . lambarDi, kyuba, syaam, hainovar, nikaragua, philipins ve sab desh aur shahr jahan main jana chahta tha aur jinhen ab main kabhi nahin dekh sakunga. unmen se har tikat par kisi agyat cheez ka tukDa chipka tha. jo ho sakta tha aur hua nahin tha. main raat bhar un tikton ke samne baitha raha aur apni zindagi ke bare mein sochta raha. mujhe laga ki main ab tak ek banavati, ajnabi aur parai zindagi ji raha tha. . . jo meri asli zindagi thi. wo kabhi paida na ho saki. ” shri karas udaas bhaav se sir hilate hue kaha. “aah. . . jab kabhi un chizon ke bare mein sochta hoon, jo main kar sakta tha. . . ya apne us apradh ke bare mein sochta hoon jo mainne loyjik ke prati kiya tha. . .
shri karas ke in shabdon ko sun kar phadar bons bahut gamgin aur udaas ho ge—bahut sambhav hai, unhen apni zindagi ki koi ghatna yaad aa gai ho. “karas sahab!” unhonne karuna bhare svar mein kaha, “aap iske bare mein adhik na sochiye. ab koi fayda nahin hai. . . bhala bura jo ho chuka hai, wo ho chuka hai. zindagi ko ne sire se shuru nahin kiya ja sakta. . . . ”
“aap theek kahte hain. ” shri karas ne lambi saans lete hue kaha—unka chehra halka sa gulabi ho gaya tha. “lekin main aapse kahna chahta tha ki mainne. . . phir se tikat jama karne shuru kar diye hain. ”
“ismen koi sandeh nahin,” buDhe sajjan shri karas ne kaha, “agar koi apne atit ka lekha jokha kare, to use apni zindagi mein hi alag alag qism ki zindagiyon ke sootr mil sakte hain. ye sanyog ki hi baat hai ki kisi ek din wo ghalati se—ya shayad apni ichchha se ek khaas qism ki zindagi chun leta hai aur akhir tak use nibhaye le jata hai. sabse shochaniy baat ye hai ki ve dusri zindagiyan—jinhen usne nahin chuna. . . marti nahin. kisi na kisi roop mein ve uske bhitar jivit rahti hain. har adami ko unmen ek ajib si piDa mahsus hoti hai. . . jaise taang ke kat jane par piDa hoti hai.
“meri umr koi das varsh ki rahi hogi, jab mainne tikat jama karne shuru kar diye. mere pita ko mera ye shauk ek ankh nahin suhata tha. wo shayad sochte the ki ek baar mujhe ye lat paD gai to paDhai likhai ke prati mera dhyaan ukhaD jayega. kintu mera ek mitr tha—loyjik chepelka. meri tarah use bhi videshi tikat jama karne ka behad shauk tha. loyjik ke pita ‘bairal aurgan’ bajakar parivar ka palan poshan karte. wo ek avara qism ka laDka tha—munh par chechak ke daag the, kintu mera uske prati gahra lagav tha. . . kuch usi tarah jaisa skuli laDkon ka ek dusre ke prati lagav hota hai. aap jante hain, main buDha adami hoon. bibi bachchon ka sneh mujhe mila hai, kintu mujhe lagta hai ki do doston ki maitri se adhik khubsurat koi dusra sambandh nahin ho sakta. kintu is tarah ki maitri chhutpan mein hi sambhav ho sakti hai. baad mein wo tazgi nahin rahti. . . us par hamare svarthon ki maili parat jama ho jati hai. mera matlab us khaas qism ki maitri se hai, jismen ek gahra utsaah aur akarshan chhipa rahta hai—atmashakti aur sneh bhavna ka umaDta, chhalachhlata jvaar. wo apne mein itna adhik itna mukt aur uchchhal hota hai ki jab tak adami uska ek ansh dusre ko nahin de deta, use shanti nahin milti. mere pita vakalat karte the—shahr ke pratishthit vyaktiyon mein unka vishisht sthaan tha. unka rob aur dabdaba sab mante the. lekin meri dosti ek aise laDke se thi, jiska pita ek piyakkaD bainD mastar tha aur jiski maan dusre logon ke kapDe dhokar ghar ki roti chalati thi. iske bavjud loyjik ke prati mere dil mein gahri shraddha aur aadar ka bhaav tha, kyonki wo mujhse kahin adhik chalak aur chatur tha. wo atmanirbhar tha aur usmen har prakar ke jokhim ka samna karne ka sahas tha. uski naak par chechak ke daagh the aur wo bayen haath se patthar phenk sakta tha. aaj mujhe ve sab chizen yaad nahin rahin, jinke karan uske prati mera itna atut aur gahra lagav utpann ho gaya tha. lekin itna zarur kah sakta hoon ki vaisa lagav zindagi mein kisi anya vyakti ke prati kabhi utpann nahin ho saka.
“un dinon jab mujhpar tikat jama karne ki dhun savar hui thi. loyjik hi mera ek vishvasapatr mitr tha, jisse main kabhi kuch nahin chhipata tha. mere vichar mein manushya mein sangrah karne ka shauk aadi kaal se chala aa raha hai. jab apne shatruon ke mastak, laDai mein luti hui chizen, richhon ki khalen, hirnon ke sing—ityadi jis cheez par uska haath paD jata tha, use wo apne khajane mein jama kar leta tha. kintu tikat sangrah karne ki apni ek visheshata hai. . . hamein usmen ek ajib sa romanchkari anubhav hota hai. lagta hai hum kisi sudur desh ko apni anguliyon se chhu rahe hain—bhutan, boleviya, kep aur guD hop! in tikton ke sahare hum apne aur in ajane deshon ke beech ek gahri atmiyata si mahsus karne lagte hain. tikat sangrah ka naam lete hi hamari ankhon ke samne zamin aur samudr ki romanchkari yatrayen, jokhim aur sahas ke karname ghoom jate hain. ye kuch utna hi rochak aur sanasnikhej jaan paDta hai, jitna madhyayug mein kiye jane vale iisaiyon ke dharm abhiyan.
“main aapse abhi kah raha tha ki mere pita ko mera ye shauk zyada pasand nahin tha. ye svabhavik bhi hai kyonki vastav mein adhikansh log ye nahin chahte ki unke putr koi aisa kaam karen, jise unhonne svayan kabhi nahin kiya. khud mera apne putron ke prati bhi aisa hi vyvahar raha hai. putr ke prati pita ki bhavna antarvirodhon se bhari rahti hai. . . sneh to usmen avashya hota hai, kintu usmen ek had tak purvagrah, avishvas aur virodh ke tatv bhi mile hote hain. aap apne bachchon ko jitna adhik pyaar karte hain, utni hi matra mein virodh bhi. . . aur ye virodhi bhavna sneh ke saath saath baDhti jati hai. khair. . . mainne apne tikton ka sangrah godam ke ek kone mein chhipakar rakha tha, taki pita ki nazar un par na paD sake. hum donon chuhon ki tarah luk chhip kar us godam mein ek dusre ke tikton ko dekha karte the. alag alag deshon ke tikat. . . nidarlainD, misr, sverij, sviDan. . . unhen dekhte hue hamari ankhen nahin bharti theen. hamne apna khazana chhipakar rakha tha. atah usmen ‘paap’ ki ek gopaniy bhavna bhi bhari thi, jo hamein ajib sa anand deti thi. mainne jis tarah ke tikat jama kiye the, wo bhi apne mein kam romanchkari aur durgam kaam nahin tha. main jane ajane parivaron ka chakkar lagaya karta tha aur aarzu minnat karke unki purani chitithyon ke tikat utaar kar apne paas jama kar leta tha. kabhi kabhar mujhe aise log mil jate the, jinki mezon ki darazen thasathas purane kaghzon se bhari rahti theen. tab meri, khushi ka thikana nahin rahta tha. main farsh par baith kar baDe itminan se purane kaghaz ke kuDe karkat ka nirikshan karta aur chun chun kar ve tikat nikalta jata jo mere paas nahin the. mainne kabhi ek jaise hi do tikat jama nahin kiye. . . ise meri bevakuphi hi samajh lijiye. kintu jab kabhi achanak laumbaDi ya kisi chhote se jarman rajya ya yurop ke kisi svtantr nagar ka tikat mere haath lag jata to meri khushi piDa ki sima tak ja pahunchti shayad har baDi khushi mein piDa ka madhur sparsh chhipa rahta hai. is dauran loyjik bahar meri prtiksha karta rahta. bahar nikalte hi main dambe svar mein uske kanon mein phusaphsa kar kahta—“loyjik, loyjik. . . vahan hainovar ka ek tikat tha. ’ ‘tumne utaar liya?’ ‘haan. ’ aur tab hum luti hui sampatti ko jeb mein daboch kar sarpat ghar ki or bhagne lagte, jahan hamara khazana chhipa tha.
“hamare shahr mein bahut se karkhane the, jahan har qism ka allam gallam taiyar kiya jata tha—kapas, rui, ghatiya qism ka uun. ye saDagla maal duniya bhar ki varn jatiyon ko bheja jata tha. mujhe aksar vahan raddi kaghzon ki tokariyan mil jati theen. . . ya yon kahiye, mere liye loot khasot karne ka wo sabse baDhiya sthaan tha. vahan mujhe prayah syaam, dakshini afrika, cheen, liboriya, aphganistan, borniyo, brajil, nyulijainD, inDiya aur kaungo ke tikat mil jate the. aapke bare mein mujhe malum nahin, lekin mujhe in namon ki dhvani maatr se ek ajib sa rahasya aur akarshan mahsus hota hai. main aapko bata nahin sakta ki us kshan mujhe kitni khushi hoti thi, jab achanak mere haath mein strets saitalment ya koriya ya nepal ya nyu gini ya siyraliyone ya maiDagaskar ka koi tikat paD jata tha. aapse sach kahta hoon ki vaisi khushi sirf kisi shikari ya khazana khoji ya zamin ki khudai karne vale puratatv anveshi ko hi uplabdh ho pati hai. kisi cheez ko khojna aur pana—mere khayal zindagi mein isse baDa sukh aur romanch koi nahin. har adami ko koi na koi cheez khojni chahiye—agar tikat nahin to satya ya svarn pankh ya kam se kam nukile patthar aur rakhdaniyan.
“ve meri zindagi ke sabse sukhad varsh the—loyjik ke saath meri dosti aur mera tikat sangrah. phir achanak ek din mujhe bukhar aa gaya. loyjik ko mere paas aane ki ijazat nahin thi. isliye wo kabhi kabhi niche dahliz mein khaDa hokar siti bajaya karta tha, taki main uski avaz sun sakun. ek dopahar jab ghar ke log meri or se bekhbar the. main sabki ankh bachata hua uupar godam mein apne tikat dekhne chala aaya. bukhar ke karan main itna kamzor ho gaya tha ki baDi mushkil se sanduk ka Dhakkan utha paya. sanduq khali paDa tha, jis bakse mein mainne tikat jama kiye tha, wo vahan nahin tha.
“us kshan mere hriday par kitna gahra, marmantak aghat pahuncha tha, main aapko bata nahin sakta. kuch der tak patthar ki murti sa khali sanduq ke samne khaDa raha. main ro bhi nahin saka, manon koi gola mere gale mein atak gaya ho. mere liye ye vishvas karna asambhav tha ki meri sabse baDi khushi—tikton ka sangrah—ghayab ho gaya tha, kintu isse adhik baat ye thi ki use churane vala koi aur na hokar mera adhik bhayanak mitr loyjik tha; meri bimari ke dinon mein wo use chori chupke utha le gaya tha. main kitna vihval, katar aur bebas ho gaya tha, kahna mushkil hai. ye ashcharya ki baat hai ki bachche kitni durdamniy piDa bhog sakte hain. pata nahin, main godam se kaise bahar aaya? kintu uske baad mujhe dobara tez bukhar chaDh aaya. chetna ke kshnon mein main nirash bhaav se apne tikton ke bare mein sochne lagta. mainne is bare mein ek shabd bhi apne pita ya bua se nahin kaha. meri maan arsa pahle guzar chuki theen. main janta tha ki ve meri antarpiDa nahin samajh sakenge. meri is khamoshi ne mere aur unke beech ek divar si khaDi kar di. mujhe lagta hai, us ghatna ke baad unke prati mera balasulabh sneh hamesha ke liye khatm ho gaya. loyjik ke vishvasghat ne mere dil par bhayanak asar kiya tha—yah pahla avsar tha jab mainne zindagi mein dhokha khaya tha. ‘loyjik bhikhmanga hai. ’ mainne apne se kaha, ‘tumne bhikhmange ke saath dosti ki aur uska phal tumhein mil gaya. ’ is anubhav ne mere dil ko kafi kathor bana diya. us din se main adami aur adami ke beech bhed karne laga. samaj ke prati meri sahj nirdosh drishti nasht ho gai. ye main aaj sochta hun—un dinon mujhe guman bhi na tha ki is ghatna ne kis had tak mujhe hila diya hai. na kabhi ye kalpana ki thi ki iski chot meri zindagi par hamesha ke liye ek kharonch chhoD jayegi.
“bukhar utarne ke saath hi tikat sangrah ke kho jane ka shok bhi mere man se utar gaya. kintu jab kabhi main loyjik ko ne mitron ke saath hanste bolte dekhta tha, mera ghaav phir hara ho jata tha. bimari ke baad wo mere paas bhagta hua aaya tha—uske chehre par halki si jhemp thi, kyonki hum itne dinon baad mile the. kintu mainne rukhe svar mein use duradura diya tha. ‘apna rasta pakDo. . . mera tumhara rishta khatm!’ mere in shabdon ko sun kar uska chehra laal ho gaya tha aur usne haklate hue kaha tha ‘achchha—thik hai. ’ us din se wo ji jaan se mujhse nafrat karne laga tha. aisi nafrat, jo sirf nimnvargiy log hi kar sakte hain.
“haan. . . us ghatna ne meri samuchi zindagi ko badal diya tha. mujhe asapas ki duniya dushit aur apavitr jaan paDne lagi. logon mein meri astha nasht ho gai. main har vyakti ko ghrina aur hikarat ki nazar se dekhne laga. uske baad mera koi mitr nahin tha. baDa hone par bhi main apne ko apne tak simit rakhne laga. mujhe kisi anya vyakti ki avashyakta nahin thi—aur na hi main kisi ke prati apni sahanubhuti pradarshit karta tha. phir mainne anubhav kiya ki dusre log bhi mujhe pasand nahin karte. mainne isse ye nishkarsh nikala ki main svayan dusron ke sneh aur bhavukta ko hikarat ki drishti se dekhta hoon. main apne mein alag thalag rahne laga. . . ek aise vyakti ki tarah jo apne lakshya ki sadhana karne mein juta ho.
atmanishth karmashil ek aisa vyakti jo kabhi naak par makkhi nahin baithne deta. apne niche kaam karne valon ke prati mera vyvahar behad chiDchiDa aur kathor ho gaya. jis stri se mainne vivah kiya, use kabhi apna prem nahin de saka. apne bachchon ka palan poshan bhi is Dhang se kiya ki ve kabhi mere aage anguli na utha saken. meri karmnishtha aur karttavyaprayanta ki dhaak sab par achchhi tarah baith gai. bas, yahi meri zindagi thi. meri sari zindagi. —meri ankhon ke aage sirf karttavya tha. . . aur kuch nahin. main janta hoon, jab main nahin rahunga, akhbaron mein mere mahatvpurn karyon aur ujjval charitr ke bare mein kafi charcha hogi. kaash! log jaan pate ki is sabke pichhe kitna akelapan, kitna avishvas, kitna aatm sankalp daba paDa hai.
“teen varsh pahle meri patni ki mrityu hui thi. us din mujhe kitna klesh hua. ye baat main aaj tak apne se aur dusron se chhipata raha hoon. shok mein vihval sa hokar main apne parivar ke smriti chihn ulatne palatne laga—chizen—jinhen mere mata pita pichhe chhoD ge the. photograph, khat, meri purani skool ki kapiyan. . . mere pita kafi gambhir svbhaav ke vyakti the, kintu jis lagan ke saath unhonne in sab chijon ko sanbhal kar rakha tha use dekh kar mera gala bhar aaya. us kshan mujhe laga, manon sachmuch wo mujhse kafi sneh karte the. godam ki almari in sab chizon se bhari thi. almari ki sabse nichli daraz mein pita ne apna sanduq muhr laga kar rakha tha. jab mainne use khola, meri ankhon ke samne wo tikat sangrah paD gaya, jise mainne pachas varsh pahle jama kiya tha.
“main aapse koi baat chhipakar nahin rakhunga. mere ansu phoot paDe aur main tikton ke bakse ko is tarah dabakar apne kamre mein le aaya, manon mujhe koi khazana mil gaya ho. mere mastishk mein sari baat bijli ki tarah kaundh gain. jab main bimar tha, pita ke hathon mein mera tikat sangrah paD gaya hoga. unhonne use sanduk mein chhipa liya tha, taki main apni paDhai likhai man laga kar karta rahun. unhen aisa nahin karna chahiye tha, kintu ye unhonne mere prati sneh aur lagav se utprerit hokar hi kiya tha. pata nahin kyon us kshan mujhe apne pita aur apne par rona aane laga.
“phir sahsa mujhe yaad aya—loyjik ne akhir mere tikat nahin churaye the. mainne uske prati kitna ghor anyay kiya tha. ye sochkar hi mera dil kaanp utha. chechak ke daghon se bhara us avara laDke ka maila kuchaila chehra apni ankhon ke samne ghoom gaya. na jane wo ab kahan hoga. . . pata nahin wo jivit bhi hoga ya nahin? aapse sach kahta hoon jitna hi main atit ki us ghatna ke bare mein sochta tha. utni hi adhik apne par sharm aur glani mahsus hoti thi. ek jhuthe sandeh ke karan mainne apne ekmaatr abhinn mitr ko kho diya tha. . . mera samucha jivan tabah ho gaya tha. uske karan hi main itna atmkendrit ho gaya tha. uske karan hi mainne dusre logon se apne sab sambandh toD liye the. mahz uske karan Daak tikat ko dekhte hi mera man kheej aur jhunjhlahat se bhar uthta tha. uske karan hi mainne apni patni ko—vivah se poorv ya uske bad—kabhi koi patr nahin likha, kyonki main apne ko in chhoti moti bhavuktaon se uupar manata tha. . . halanki meri patni ko ye baat kafi chubhti thi.
“uske karan hi main itna kathor tha aur sabse nata toDkar alag thalag rahne laga tha. uske karan aur sirf uske karan hi mera jivan itna adarshniy itna karttavynishth ho gaya tha.
“us din mainne apni zindagi ko ne sire se dekha aur tab sahsa mujhe laga manon main ek bilkul dusri zindagi ji raha tha. agar wo ghatna na hoti, to shayad main ek dusre qism ka vyakti hota—ek aisa vyakti jiska dil hamesha josh aur utsaah, sneh, sahas, jindadili aur hajirajvabi se phaDakta rahta hai. . . mukt aur vichitr. . . akankshaon mein chhalachhlata rahta hai. main kuch bhi ho sakta tha. . . anveshak, abhineta, sainik. zara dekhiye. . . main tab ek aisa adami hota jo dusron ke prati hamdardi mahsus kar sakta hai. . . unke saath mil kar sharab pi sakta hai. unhen samajh sakta hai. aah! main kya kuch nahin kar sakta tha! aur tab us kshan mujhe laga jaise mere bhitar barson se dabi barf dhire dhire pighalne lagi ho. main apne tikat sangrah ko dekhne laga. . . bari bari se har tikat ko. sab purane tikat vahan maujud the. . . lambarDi, kyuba, syaam, hainovar, nikaragua, philipins ve sab desh aur shahr jahan main jana chahta tha aur jinhen ab main kabhi nahin dekh sakunga. unmen se har tikat par kisi agyat cheez ka tukDa chipka tha. jo ho sakta tha aur hua nahin tha. main raat bhar un tikton ke samne baitha raha aur apni zindagi ke bare mein sochta raha. mujhe laga ki main ab tak ek banavati, ajnabi aur parai zindagi ji raha tha. . . jo meri asli zindagi thi. wo kabhi paida na ho saki. ” shri karas udaas bhaav se sir hilate hue kaha. “aah. . . jab kabhi un chizon ke bare mein sochta hoon, jo main kar sakta tha. . . ya apne us apradh ke bare mein sochta hoon jo mainne loyjik ke prati kiya tha. . .
shri karas ke in shabdon ko sun kar phadar bons bahut gamgin aur udaas ho ge—bahut sambhav hai, unhen apni zindagi ki koi ghatna yaad aa gai ho. “karas sahab!” unhonne karuna bhare svar mein kaha, “aap iske bare mein adhik na sochiye. ab koi fayda nahin hai. . . bhala bura jo ho chuka hai, wo ho chuka hai. zindagi ko ne sire se shuru nahin kiya ja sakta. . . . ”
“aap theek kahte hain. ” shri karas ne lambi saans lete hue kaha—unka chehra halka sa gulabi ho gaya tha. “lekin main aapse kahna chahta tha ki mainne. . . phir se tikat jama karne shuru kar diye hain. ”
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 222)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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