सन् 1932-33 तक, जब कि मैं सेंट जान्स कॉलिज आगरा में बी० ए०—प्रथम वर्ष में पढ़ता था, हिंदी कविता से मेरा घनिष्ठ परिचय हो चुका था। मेरा यह अध्ययन केवल स्वांत सुखाय ही न होकर एक विशेष क्रम से योजनाबद्ध रूप में चल रहा था—और उस समय तक मैं हिंदी के प्रायः समस्त नए पुराने प्रतिनिधि कवियों के प्रमुख ग्रंथों का विधिवत् अवलोकन कर चुका था। चूँकि मेरा लक्ष्य हिंदी के (साथ ही अँग्रेज़ी तथा संस्कृत के भी) अभिजात काव्य का विधिवत् अध्ययन करना था, अंत मेरे मन मे अति-नवीन काव्य वे प्रति कई विशेष आग्रह नहीं था। आगरा का साहित्य रत्न भंडार हमारे छात्रावास के पास ही था जहाँ मैं नियमित रूप से जाकर नई पुस्तकें देखता और ख़रीदता था। प्राचीन ग्रंथों के संस्करण जहाँ भाड़े और सस्ते होते थे, वहाँ नए काव्य ग्रंथ वाह्य रूप-सज्जा की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक होते थे—उनका मुद्रण और मुखपृष्ठ कलापूर्ण होते थे और जिल्द प्राय रेशमी रहती थी, परंतु अभिजात (क्लासिक) काव्य की शोध में प्रवृत्त मेरा किशोर मन अनायास ही इस वाह्य आकर्षण का सवरण कर प्राय प्राचीन ग्रंथों के संग्रह का ही प्राथमिकता देता था। अंत जब एक दिन विक्रेता ने 'रसराज' और 'नीहार' दोनों एक साथ मेरे सामने रखे तो मैंने 'रसराज' ख़रीदना ही आवश्यक समझा—क्योंकि मेरे अध्ययन श्रम मे 'रसराज' का तो अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था पर एक उदीयमान कवि की प्रथम रचना होने के कारण 'नीहार' वा कोई महत्व नहीं था।
यह प्रबंध धीरे-धीरे शिथिल होने लगा, प्राचीन काव्य के साथ-साथ नवीन काव्य की ओर मेरा आकर्षण बढ़ने लगा और चूँकि में स्वयं भी कुछ रोमानी कविता लिखता था, इसलिए छायावाद वे कवियों के साथ में एक विशेष तादात्म्य का अनुभव करने लगा। 'परिमल', 'पल्लव' और 'ग्रंथि' के साथ 'नीहार' भी एक वर्ष के भीतर मेरे पुस्तकालय वे अलंकार बन गए। तब तक 'नीहार' की अनेक पंक्तियाँ मुझे कंठस्थ हो चुकी थी—'जो तुम आ जाते एक बार' को मैं प्रगीत काव्य का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण मानता था। अंत 'रश्मि' के प्रकाशित होते ही मैं तुरंत उसे ख़रीद लाया—और एक दिन जब कोई फेरी वाला हॉस्टल में आया तो मैंने संगमरमर का एक छोटा-सा फ़्रेम लेकर 'रश्मि' में संकलित महादेवी जी का चित्र उसमें लगाकर पढ़ने की मेज़ पर रख लिया। कुछ समय के बाद हिंदी वे एक स्थानीय कवि मेरे पास आए और उस चित्र को देखकर अचानक पूछ बैठे यह आपकी बड़ी बहन की तस्वीर है? उनके इस अनुमान के लिए कोई विशेष आधार तो नहीं था और मन ही मन उनके अल्पबोध का उपहास करते हुए मैंने तुरंत इसका प्रतिवाद भी कर दिया। परंतु इस गौरवमय संबंध की एक विचित्र महत्वाकांक्षा मेरी चेतना में जग गई जो वर्षों के बाद एक दिन महादेवी जी का स्नेह पाकर अनायास फलवती हुई।
महादेवी जी के दर्शन मैंने पहली बार शायद 1939-40 के आपास किया। उस समय तक 'नीरजा' प्रकाशित हो चुकी थी और वे हिंदी के आधुनिक कवियों की प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उधर मैं भी 'सुमित्रानंदन पंत' तथा 'साकेत एक अध्ययन' लिख चुका था और वे मुझे नाम से जानती थी। मैंने एक मित्र के माध्यम से उनसे भेंट करने की योजना बनाई और कुछ ऐसा सयोग हुआ कि मुझे अपने स्थान पर लौटने का अवसर न मिला। मैं या ही शहर में घूमने निकल पड़ा था और जब मित्र ने तुरंत ही महादेवी जी के पास चलने का प्रस्ताव वर दिया तो मैं कुछ दुविधा में पड़ गया। मुझे लगा जैसे मेरी वस्त्रभूषा मे उन जैसी गौरवास्पदा महिला के पास जाने लायक संजीदगी नहीं थी। मैं शायद जर्सी पहने हुए था। मैंने सुन रखा था कि वे लोगो से प्रायः कम ही मिलती है—और मर्यादा की बड़ी कायल है। अंत मेरे मन में बार-बार कालिदास को यह उक्ति गूँजने लगी—'विनीतवेपेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि।’ और मैं सहमा हतप्रभ-सा हो गया। परंतु अपने मन की इस दुविधा को मित्र के सामने व्यक्त करने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी और उधर मित्र ने भी मुझे इसका अवसर नहीं दिया।—हम लोग एलगिन रोड पर स्थित उनके आवाम की ओर चल दिए।
रास्ते में आते हुए 'छायावाद की मीरा' में व्यक्तित्व के बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ मेरे मन में उठने लगी। एन क्षीण-कल्पना धूमिल चित्र मेरी आँखों के सामने आने लगा और मैं बार-बार अपने उस अकाव्यमय अविनीत देश के प्रति सचेत-सा होने लगा। ऐसी ही विचित्र कल्पनाओ और धारणाओं को लेकर मैंने महादेवी जी के वार्ताकक्ष में प्रवेश किया। उस कमरे की साज-सज्जा अत्यंत कलापूर्ण थी।—दीवारों पर अजंता शैली वे भव्य चित्र अंकित थे, एक कोने में कृष्ण की सुंदर मूत्ति खड़ी हुई थी, फ़र्श पर कालीन बिछे हुए थे और कुर्सियों तथा आसन्दियों पर रेशम की गद्दियाँ थी संपूर्ण कक्ष में कला का वातावरण व्याप्त था जिसमें छायावाद का रंग-वैभव तो यथावत् था, परंतु मुझे लगा जैसे इसकी व्यजनाएँ कुछ अधिक मूर्त थी। मैं बड़े ध्यान से भित्तिचित्र आदि को देख रहा था कि इतने में महादेवी जी ने प्रवेश किया। हम लोगों ने उठकर विनयपूर्वक अभिवादन किया और अत्यंत संभ्रम के साथ अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। महादेवी जी शुभ्र खादी के वस्त्र धारण किए हुए थी जो कमरे में विकीर्ण रंग-वैभव से सर्वथा भिन्न होते हुए भी उसमें विसंगति उत्पन्न नहीं करते थे जैसे शारदा की श्वेत प्रतिमा रंग बिरंगे फूलों के बीच किसी प्रकार असंगत प्रतीत नहीं होती। कक्ष का वतावरण कुछ औपचारिक-सा होने लगा था—परंतु महादेवी जी ने तुरंत अपने मुक्त हास्य और उसी में अनुरूप सहज व्यावहार से उसे मगर दिया। मुझे देखकर सहसा कह उठी—अरे तुम हो नगेंद्र : तुम्हारे लेख पढ़ कर तो मैं समझती थी कि कोई भरकम आदमी होंगे। मैंने कहा : नहीं तो अभी दो वर्ष पूर्व ही एम० ए० किया है। मित्र बोले 'क्या उम्र है आपकी? ' मैंने कहा : '24 वर्ष।' इस पर तुरंत ही महादेवी जी बोल उठी 'तब तो हम तुम्हारी बड़ी दीदी है। मैंने इस अपरिचित स्नेह के लिए आभार व्यक्त किया और लगभग 6-7 वर्ष पहले घटित होस्टल अनायस ही मेरी स्मृति में मूर्तित हो गई।—हम लोग कोई घंटा-डेढ़-घंटा बातचीत करते रहे। थोड़ी देर में मेरे-घरबार के बारे में बातें करती रही जो महज़ आत्मीयता से भीगी हुई थी। बीच में प्रगतिवाद की चर्चा चल पड़ी मैंने देखा कि उनकी वाणी सहसा उद्दीप्त हो उठी और छायावाद-विरोधी तर्कों का वे अपूर्व दृढ़ता से खंडन करने लगी। इतने में ही चाय आ गई और उनके स्वर में फिर वही सहज मार्दव आ गया, जैसे किसी साहित्यिक मन को छोड़कर वे तुरंत ही परिवार के सहज स्निग्ध वातावरण में लौट आई हो। चाय पीतक अत्यंत कृतज्ञ भाव से मैंने उनसे विदा ली और मित्र के साथ अपने आवास की ओर चल दिया। रास्ते में स्वभावतः मैं महादेवी जी के विषय में ही सोचता आ रहा था मुझे लगता था कि मैंने 'अतीत के चलचित्र' की ममतामयी विधात्री के दर्शन तो कर लिए—'शृंखला की कड़ियाँ’ की लेखिका तेजस्वी रूप भी देख लिया परंतु छायावाद की जिस विरहदग्ध कवयित्री को देखने में गया था वह अपने साधना-कक्ष से बाहर नहीं आई।
—और, महादेवी जी के विषय में आज भी यही सत्य है। उनके व्यक्तित्व के तीन रूप हैं एक—ममतामयी भारतीय महिला का जो बड़ों से छोटी बहन और छोटी से बड़ी बहन की तरह व्यवहार करती है, दूसरा—राष्ट्र की जाग्रत मेधाविनी नारी का जिसके विचारों में दृढ़ता और वाणी मे अपूर्व तेज़ है, और तीसरा—रहस्य कल्पनाओं की भावप्रवण कवयित्री का जिसने मधुरतम छायावादी गीतों की सृष्टि की है। इनमें पहला उनका पारिवारिक रूप है जो साहित्यिक बंधुओं के सीमित वृत्त में प्रकट होता है, दूसरा सामाजिक रूप है जो सार्वजनिक मंचों पर दीप्त हो उठता है और तीसरा काव्य की मधुर-साधना मे लीन ऐकांतिक रूप है जो सामने नहीं आता।
(दो)
इस स्नहाश्वासन के बाद में महादेवी जी के प्रति एक श्रद्धामय नैकट्य का अनुभव करने लगा और इलाहाबाद जाने पर नियमित रूप से उनसे मिलता। सन् 1940 में उनकी प्रसिद्ध कृति 'दीपशिखा' प्रकाशित हुई और मैंने पूर्ण मनोयोग के साथ उसकी समीक्षा लिखकर 'आकाशवाणी' से प्रसारित की जो बाद में प्रकाशित भी हुई। उन दिन हिंदी-साहित्य में प्रगतिवाद का आंदोलन ज़ोर पर था। जैसा कि आज नवलेखन में सूत्रधार कर रहे हैं, उसी तरह सन् 40 के आस-पास साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित लेखन मी संगठन बनाकर सिद्धांत का व्यवसाय कर रहे थे और उन्होंने भी नए लेखकों की तरह अपनी सीमा की रक्षा करने के लिए कुछ छोटे-बड़े प्रहरी छोट रखे थे जो उनकी अपनी चौहद्दी से बाहर चलने वालो पर अवारण ही झपटते रहते थे। सांस्कृतिक परंपरा के प्राय सभी कवि लेखक उनके शिकार बन चुके थे। सिद्धांत और व्यवहार दोनों की दृष्टि से प्रगतिवाद के आंदोलन के प्रति मेरे मन में आस्था नहीं थी—मुझे लगता था और आज भी लगता है कोई भी जीवन-दृष्टि जैसे-जैसे वह आंदोलन का सहारा लेती है, साहित्य से दूर हटने लगती है। इस प्रकार के आंदोलनवादी साहित्य में भौतिक सिद्धियाँ प्रमुख हो जाती हैं और कला की साधना गौण। फिर भी, एक हल्ला तो मंच ही गया था। पंत जी को काव्य कल्पना जीवन में मूलभूत साम्य का अनुसंधान करती हुई मार्क्स के सिद्धांतों की ओर आकृष्ट हो गई थी और वे अपनी प्रत्या को सायास उधर मोड़ रहे थे। प्रगतिवाद को इससे बड़ा बल मिल रहा था और उसके प्रचारक पंत जी की मूल दृष्टि को न पकड़ कर उनकी बाह्य अभिव्यंजनाओं में आत्म-समर्थन ढूँढ़ते हुए 'ग्राम-युवती' या 'कहारों का नृत्य' का कविता के आदर्शरूप में विज्ञापित कर रहे थे। इधर निराला की उत्तम कविताओं की उपेक्षा कर वे ऐसी रचनाओं को फ़तवे दे रहे थे जिनमें उनकी दृष्टि से, शोषण के विरुद्ध क्रांति का स्वर प्रमुख था। मैं काव्य के क्षेत्र में बढ़ती हुई इस अराजकता पर क्षुब्ध था। तभी 'दीपशिखा' का प्रकाशन हुआ और मैंने मुक्त हृदय से उसका अभिनंदन करते हुए लिखा-
'इस युग में 'दीपशिखा' का प्रकाशन एक घटना है। महादेवी जी के ही शब्द उधार लेकर हम कहेंगे कि 'जीवन और मरण इन तूफ़ानी दिनों में रची हुई यह कविता ठीक ऐसी ही है जैसे झझा और प्रलय के बीच में स्थित मंदिर में जलने वाली निष्कम्प दीपशिखा।'
इस पुस्तक का महत्व एक और दृष्टि से भी है। आज छह-सात वर्षों के बाद महादेवी जी के साधना मंदिर का द्वार खुला है और करुणा के स्नेह से जलती हुई इस दीपक की लौ को अब भी एकाकीपन में तन्मय और विश्वास में मुस्कराती हुई देखकर हिंदी के विद्यार्थी का सशक भन उत्फुल्ल हो उठा है।
परंतु आगे 'दीपशिखा' ने प्रगीत तत्व का विश्लेषण करते हुए मैंने निराशा व्यक्त की।
अब हमें यह देखना है कि दीपशिखा को जिस अनुभूति से प्रेरणा मिली है, उसमें कितनी तीव्रता है। इस दृष्टि से हमें निराश होना पड़ेगा। कारण स्पष्ट है। इस अनुभूति के मूल में जो 'काम' का स्पंदन है, उसके ऊपर कवि ने चिंतन और कल्पना के इतने आवरण चढ़ा रखे है कि स्वभावत उनकी तीव्रता दब गई है और उसका टटोलने पर बहुत नीचे गहरे में एक हल्की सी धड़कन मिलती है। साथ ही अनुभूति की पुंजीभूत होने का अवसर नहीं मिला। उसका वितरण प्रयत्नपूर्वक किया गया है, इसलिए वह तीव्र न रहकर हल्की-हल्की बिखर गई है। स्पष्ट शब्दों में, इन गीतों में लोकगीतों की जैसी मास की उष्ण गंध प्रायः निशेष हो गई है। दूसरी ओर बुद्धिजीवी महादेवी जी में संत या भक्त कवियों का-सा विश्वास और समर्पण भी संभव नहीं हो सका। इसलिए उनके हृदय में अज्ञात के प्रति भी जिज्ञासा ही उत्पन हो सकी है, पीड़ा नहीं। कुल मिलाकर यह कहना होगा कि दीप शिखा की प्रेरक अनुभूति छाँह सी सूक्ष्म और मोम-सी मृदुल तो है, परंतु हक-सी तीव्र नहीं।
मैंने अपनी धारणा पूरी ईमानदारी और उतने ही आदर के साथ व्यक्त की थी और महादेवी जी पर मेरी भावना अव्यक्त नहीं रही थी, फिर भी उक्त वक्तव्य में ऐसा कुछ अवश्य था जो उनको ग्राह्य नहीं हो सकता था। अगली बार जब मैं उनसे मिला तो यह बात मेरे मन में थी। उन्होंने सहज-स्नेह से मेरा स्वागत किया और घर की—बाहर की—बहुत सी बातें करती रही। तभी मेरे मना करने पर भी भगतिन चाय ले आईं और यद्यपि मैं सवेरे अच्छी तरह खा पीकर निकला था, फिर भी मुझे दीदी के आदेश का पालन करना पड़ा। भूख एकदम न होने से मैंने एकाध चीज़ लेकर तश्तरी सामने से हटा दी। इस पर उन्हे मौक़ा मिल गया—शायद वे उसकी तलाश में ही थी, और बोली बात करने हो कविता में भी मास की, मुँह में सेव तक नहीं चलते। मैं इसके लिए तैयार था, पर यह झिड़की इतने स्निग्ध रूप में मिलेगी, ऐसी आशा नहीं थी। मैंने बात को टालते हुए कहा—भोजन में, दीदी, में पूरा आयसमाजी हूँ। फिर भी, उस स्नेहसिक्त व्यंग्य ने मुझे अपने निर्णय पर पुनर्विवचार करने के लिए बाधित किया और यह प्रश्न आज भी मेरे सामने है कि क्या महादेवी की या सामान्यत छायावाद की कविता का इस आधार पर अवमूल्यन किया जा सकता है कि वह मासल नहीं है?
वास्तव में अपने अध्ययन और चिंतन-मनन के आधार पर मेरी यह निर्भ्रांत धारणा बन गई है कि काव्य का प्राणतत्त्व रागात्मक अनुभूति है—और परिणामत काव्य के मूल्यांकन का आधार भी में अनुभूति को ही मानता हूँ। अनुभूति के अतिरिक्त मानव चेतना की एक और प्रमुख वृत्ति है कल्पना जो जीवन के समस्त क्षेत्रों में—विशेषकर काव्य में सक्रिय रहती है—काव्य में अनुभूति को रूपायित करने का सबसे प्रमुख साधन कल्पना ही है। इन दोनों वृत्तियों का यो तो अविच्छिन संबंध है, फिर भी स्थूल रूप से दोनों में कल्पना की अपेक्षा अनुभूति सत्य के अधिक निकट है—अतएव सामान्यतः अनुभूति मानव मन के लिए अपेक्षाकृत सहजग्राह होती है। इस तर्क से, जिस कविता में अनुभूति का तत्त्व अधिक है—अर्थात् जिसका अर्थ (सवेद्य) हमारी इंद्रियाँ और उनके माध्यम से मन को अधिक प्रभावित करता है, वह अधिक मूल्यवान है। उक्त तथ्य का अनेक बार और अनेक रूपों मे प्रतिपादन हो चुका है भारतीय रस-सिद्धांत में इसकी स्पष्ट स्वीकृति है, मिल्टन की बहुमान्य परिभाषा का भी सार यही है—कविता सरल, ऐंद्रिय और संवेगप्रवण होती है, वर्ड्सवर्थ ने इसी आधार पर कविता को प्रबल मनोवेगो का सहज उच्छलन माना है—आदि आदि। छायावाद की कविता पर विशेषकर महादेवी और पंत की कविता पर यह परिभाषा अपेक्षाकृत कम घटित होती है, इसम संदेह नहीं। परंतु इस तर्क का प्रतिवाद मी कठिन नहीं है और छायावाद की ओर से वही प्रस्तुत किया जा सकता है कविता जीवन में सामान्य ऐंद्रिय-मानसिक अनुभवी की वाणी नहीं है—परिष्कृत अर्थात रागद्वेष तथा ऐंद्रिय विकारों से मुक्त शुद्ध अनुभवों की अभिव्यक्ति है। अंत अनुभूति की मासलता नहीं वरन् मासल तत्व की परिस्कृति ही कविता की सिद्धि है और छायावाद की कविता में मानव अनुभूतियों के मृण्मय तत्व की अपेक्षा इसी चिन्मय तत्व का उन्मेष अधिक है। जीवन में सहजता अर्थात् प्रकृत आवेग और अंत स्फूर्ति का महत्व निश्चय ही है, परंतु परिष्कृति के प्रति मी मानव-चेतना की प्रवृत्ति न नई है और न अस्वाभाविक। स्वस्थ मानव-मन के लिए जीवन के मासल उपभोग में प्रवृत्त होना सर्वथा स्वाभाविक है परंतु उससे ऊपर उठने की स्पृहा भी कम स्वाभाविक नहीं है। प्रकृत जीवनवादियों का यह तर्क सही है कि आदमी केवल फूल सूंघ कर नहीं रह सकता, परंतु यह भी कम सही नहीं है कि आदमी को फूल सूँघने की आवश्यकता भी जीवन में निरंतर बनी रहती है। महादेवी जी आज मेरे इस वक्तव्य को पद कर हँस कर कहेंगी कि अब आए रास्ते पर, बच्चू!—मैं रास्ते पर कहाँ तक आया हूँ, यह तो इस समय नहीं बताऊँगा, परंतु इतना अवश्य है कि छायावाद के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक अत्यंत सार्थक प्रश्न है जो आज हमारे सामने उपस्थित है।
इसी प्रकार नया कवि महादेवी जी के काव्य शिल्प के विरुद्ध भी एक विशेष आक्षेप करता है और वह यह कि उनकी बिंब-योजना वा क्षेत्र अत्यंत सीमित है उनके उपमानो और प्रतीकों में वैचित्र्य एवं वैविध्य नहीं है। यह आक्षेप ग़लत नहीं है कि जीवन और जगत के सीमित क्षेत्र से महादेवी जी अपने उपमानों और प्रतीकों का चयन करती है परंतु उनकी सयोजनाओं में अपूर्व वैचित्र्य है। कही भी महादेवी अपने बिंब या चित्र को पुनरावृत्ति नहीं करती, उपकरण प्राय समान ही रहते हैं परंतु उनका प्रयोग सर्वथा भिन्न होता है। इसलिए महादेवी जी की कला में विस्तार तो नहीं है परंतु सूक्ष्म विन्यास अद्भुत है। यहाँ फिर एक मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या उपमान और प्रतीकों का वैविध्य-वैचित्र्य मात्र कला के मूल्यांकन का आधार हो सकता है। कला का रहस्य सामग्री के संग्रह में निहित है या उसके प्रयोग में? छायावाद के प्रसंग में यह प्रश्न भी उतना ही सार्थक है।
(तीन)
सन् 1950 के बाद महादेवी जी की प्रख्या ने एक प्रकार से उपराम ले लिया। पिछले दो दशकों में उनकी केवल दो ही कृतियाँ सामने आई एक 'सप्तपर्णा' जिसमें संस्कृत की कुछ चुनी हुई रचनाओं के पद्यानुवाद संकलित है और दूसरी 'पथ के साथी' जो कवयित्री के समसामयिक कलाकारों के मार्मिक व्यक्ति चित्रों का संकलन है। यह वास्तव में उनके सार्वजनिक जीवन का युग है। 1940 के बाद उनकी प्रतिमा साहित्यिक संगठन के कार्यों में प्रवृत्त हो चली थी। इस अवधि में उन्हें अनेक प्रकार के कड़वे-मीठे अनुभव हुए। हिंदी की जनता से उन्हें फूल भी मिले और धूल भी परंतु इसी बीच वर्तमान युग के तीन महान् व्यक्तित्व उनके जीवन मे आए—राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और महाप्राण कवि निराला। मेरा विश्वास है कि इन तीनों ने ही महादेवी जी के प्रवल और समृद्ध व्यक्तित्व के विकास में, अन्वय-व्यतिरेक पद्धति से, योगदान किया। संयोगवश अथवा हो सकता है कि अपने स्वभाव की असार्वजनिक प्रवृत्तियों के प्रच्छन्न प्रभाव से इस अवधि में महादेवी जी के साथ मेरा संपर्क प्राय नहीं रहा। परंतु मेरे प्रति उनके वत्सल भाव में कोई कमी नहीं आई और इसका प्रमाण मुझे मिला मैथिलीशरण गुप्त अभिभाषण-माला के संदर्भ में जिसका आयोजन अभी कुछ मास पूर्व दिवंगत राष्ट्रकवि के जन्मदिवस पर हमारे विभाग की ओर से किया गया था।
यह प्रसंग भी अपने आप में बड़ा ही रोचक और स्मरणीय है। दद्दा के स्वर्गवास के उपरांत हमारे विभाग ने श्यामलाल-ट्रस्ट के अनुदान से मैथिलीशरण गुप्त अभिभाषण-माला के आयोजन का निर्णय किया और अपने उपकुलपति डा० देशमुख के सामने प्रथम वक्ता के रूप में श्रीमती महादेवी वर्मा को आमंत्रित करने का प्रस्ताव रखा। डा० देशमुख ने बड़े उत्साह के साथ उनके नाम का अनुमोदन किया और कहा कि वास्तव में महादेवी जी के आने से एक भव्य परंपरा का सूत्रपात होगा। यह सब तो आसानी से हो गया, परंतु महादेवी जी को बुला लेना अपने आप में एक असाध्य-साधना थी। मैं समस्या के हर पहलू को जानता था, इसलिए मैंने पूरी सावधानी से योजना बनाई। सबसे पहले तो उनकी स्वीकृति प्राप्त करने का ही सवाल था, क्योंकि जब से मुझे मालूम है कि प्रयाग के डाक्टर विभाग से महादेवी जी की कोई ख़ास दुश्मनी चली आ रही है—न जाने क्यों दूसरो वे पत्र उनको नहीं मिलते और उनके पत्र भी यथा स्थान नहीं पहुँच पाते। इसका हल मैंने यह निकाला कि सरकार के भरे-पूरे डाक-विभाग का एकदम अविश्वास कर व्यक्तियों को पत्राचार का माध्यम बनाया। जिन दिनों यह योजना बन रही थी, तभी भाग्य से महिला विद्यापीठ के कर्म-सचिव अपने किसी आवश्यक कार्य से महादेवी जी का पत्र लेकर मेरे पास आए। मैंने कहा—आपके कार्य में कतिपय वैधानिक बाधाएँ है, परंतु मैं निश्चय ही प्रयत्न करूँगा। वे बेचारे बड़े कृतज्ञ हुए और धन्यवाद देकर जाने लगे। उसी वक़्त मैंने अपना मतलब उनसे कहाँ और महादेवी जी के नाम आमंत्रण पत्र सौप कर तुरंत ही उसकी स्वीकृति भिजवाने का वचन ले लिया। परंतु पूरी सावधानी के बावजूद पहला प्रयास विफल गया—उत्तर नहीं आया न नकारात्मन और न स्वीकारात्मक, यद्यपि वे सज्जन वादा कर गए थे कि देवी जी को यदि कोई कठिनाई हुई तो भी वे मुझे तुरंत सूचना दे देंगे। मैंने जल्दी ही दूसरा उपाय किया और अब की बार एक ऐसे सज्जन को माध्यम बनाया जो विनीत और निष्ठावान होने के साथ-साथ अपने दायित्व के प्रति भी अत्यंत सजग थे। तब भी मैंने उन्हें पूरी तरह सतर्क कर दिया था। वे पूर्ण संकल्प के साथ आगे बढ़े और नाना प्रकार की बाधाएँ पार कर अंत में महादेवी जी की स्वीकृति प्राप्त करने में सफल हो गए। उसी दिन उन्होंने मुझे तार से सूचना दी कि महादेवी जी ने सहर्ष हमारा आमंत्रण स्वीकार कर लिया है।
यद्यपि मेरे पास संदेह का कोई विशेष कारण नहीं था, क्योंकि एक तो यह दद्दा ये सारस्वत श्राद्ध का पुनीत अवसर था और दूसरे मेरा भी यह पहला निमंत्रण था जिसमें मैंने अपनी ओर से सभी प्रकार के विकल्प देवर अस्वीकृति के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ा था, फिर भी मैं आश्वस्त नहीं था और उधर उनकी 'तात्कालिक स्वीकृति' मेरे संदेह में और भी वृद्धि कर रही थी। निमंत्रण चूँकि सर्वथा औपचारिक था अंत उसकी औपचारिक स्वीकृति भी अपेक्षित थी— यहाँ से दूसरी समस्या आरंभ हुई। मैं पूरे बुद्धिबल से काम लेता हुआ, दोहरे साधनों का प्रयोग कर रहा था—एक ओर सीधे रजिस्ट्री पत्र और तार भेजता दूसरी ओर मित्र के माध्यम से उनकी प्रतिलिपियाँ। अंत में, दीदी के सहज स्नेह से अभिषिक्त व्यक्तिगत पत्र के साथ औपचारिक स्वीकृति तो मुझे मिल गई, परंतु तिथियों का प्रश्न अब भी हल नहीं हुआ। अंत तिथियों के निर्णय के लिए फिर मोर्चा लगाया गया, और महीनों के बाद यह फ़ैसला हुआ कि अगस्त में दद्दा के जन्मदिवस पर ही भाषणमाला वा श्रीगणेश हो। अगस्त का महीना आया और विभाग की और से, समय पर, अवसर एवं वक्ता की गरिमा के अनुरूप विधिवत् आयोजन किया गया। प्रयाग से आने की गाड़ी आदि का निश्चय हो गया और यह भी तय हो गया कि महादेवी जी को चूँकि नई दिल्ली में कुछ आवश्यक कार्य है, अंत वही श्री दिनकर के यहाँ ठहरने में उन्हें अधिक सुविधा रहेगी। समारोह से एक दिन पूर्व तार आया कि वे अपर इंडिया से आ रही है। हम लोगों ने आराम की साँस ली। पर कुछ ही घंटे बाद एक तार और आया—मेरा माथा ठनका और मैंने समझा कि बस कोई न कोई बाधा आ गई। परंतु इस तार का भी मजमून वहीं था कि महादेवी जी अपर इंडिया से पहुँच रही हैं—मुझे लगा जैसे आतिथेय की व्यग्रता का संक्रमण अब अतिथि पर हो गया है। दूसरे दिन पता लगा कि अपर इंडिया लेट है—यो तो लेट होने की उसकी आदत पुरानी है पर उस दिन वह तीन घंटे लेट थी। ख़ैर, तीन घंटे भी कब तक पूरे न होते और गाड़ी आ गई।
परिचित वेश-भूषा में महादेवी जी अपनी सहायिका के साथ डिब्बे से उतरी। उनका स्वागत करने के लिए विभाग के अनेक सदस्य आए थे पर वे अपने-अपने काम पर लौट चुके थे—मैं भी घर जाकर दोबारा आया था। अंत उस समय मैं और मेरे साहित्य सहायक ही स्टेशन पर रह गए थे। मैंने सप्रणाम माल्यार्पण द्वारा उनका स्वागत किया और कहा इतने विलंब से आएँगी तो फीका ही स्वागत होगा। बोली, हम क्या करें—अँधेरे के कारण स्टेशन कुछ पहले चले आए थे—वहाँ आकर पता चला कि गाड़ी डेढ़ घंटा लेट है, फिर वह और लेट होती गई और 10 की जगह 1 बजे रात को जंक्शन से छूटी। कई दिन से हमें ज्वर था, पर डाक्टर से प्रार्थना की कि कैसे ही इंजेक्शन देकर इसे दवाइए नहीं तो नगेंद्र का हार्टफ़ेल हो जाएगा। ज्वर तो जैसे-तैसे दब गया, पर तीन घंटे तक स्टेशन पर बैठे रहने से फिर हरारत बढ़ आई है। और सचमुच उन्हें 100 से ऊपर बुख़ार था। मेरे मन ने कृतज्ञता और कलेश दोनों का एक साथ अनुभव किया।
नियत समय पर मैथिलीशरण गुप्त के व्यक्तित्व और कृतित्व पर महादेवी जी के दो भाषण हुए। विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा हाल—नवदीक्षांत-भवन—खचाखच भरा हुआ था दिल्ली की साहित्यिक और हिंदी प्रेमी जनता भारतवर्ष की सर्वाधिक प्रतिभा शालिनी नारी के दर्शन के लिए उमड़ पड़ी थी परंतु वह अपार भीड़ एक विशेष सम्भ्रम की भावना से अनुशासित थी। स्वागत भाषण में जब गार्गी और मैत्रेयी की परंपरा के प्रतिनिधि-रूप में महादेवी जी का अभिनंदन किया गया, तो वाणी तथा व्यवहार में अत्यंत सयत डा० देशमुख ने बड़े आदर के साथ करतल-ध्वनि से उसका समर्थन किया। महादेवी जी ने अपने पहले भाषण में दद्दा के व्यक्तित्व का मार्मिक विश्लेषण किया। प्रतिभा से दीपित उनकी वाणी अत्यंत शांत-स्निग्ध रूप में प्रवाहित हो रही थी। हृदय से उद्भूत भाव सहज रूप में बिंबों पर आरूढ़ होकर वाग्धारा पर तैरते चले जाते थे। तूलिका के बड़े ही सरस कोमल स्पर्शों से उन्होंने स्वर्गीय कवि के जीवन के मार्मिक चित्र अंकित किए, लगा श्रवण-चक्षुओं के सामने दद्दा के जीवन का सुंदर एलबम खुलता जा रहा हो और वह अपार श्रोता-समूह मंत्रमुग्ध होकर उसे कानों से देख रहा हो। सभापति—डॉ० देशमुख—के चेहरे पर गर्व-मिश्रित संतोष का भाव था और जब मैं धन्यवाद प्रस्ताव करने के लिए उठा, तो उन्होंने धीरे-से कहा यह ज़रूर कहना कि रुग्ण होने पर भी हमारा आमंत्रण स्वीकार कर इन्होंने हमें विशेष रूप से उपकृत किया है।—और, फिर, अपने पास बैठे हुए बंगला के प्रोफ़ेसर से अँग्रेज़ी में बोले 'वेरी सेन्सिटिवली पेन्टेड—बड़ा ही मार्मिक चित्रण था। भाषण समाप्त होने के बाद एक मित्र ने कहा कैसा अद्भुत प्रवाह था, लगता था जैसे पूनम की चाँदनी से झलमल गंगा की धारा बह रही हो। मैंने उत्तर दिया आपकी यह उत्प्रेक्षा सुंदर होने पर भी अपूर्ण रही, इसमे शुभ्र स्नेह और स्फीत वाग्धारा के उपमान तो हैं, परंतु वाणी के साथ सहज रूप से गुंफित बिंबावली का उल्लेख नहीं है, यह कहिए कि जैसे पूनम की चाँदनी में झलमल गंगा की धारा फूलों से भरी घाटियों में होकर बह रही हो।
दूसरा भाषण मैथिलीशरण गुप्त में कृतित्व पर हुआ—अध्यक्ष थे विश्वविद्यालय के प्र- उपकुलपति डा० गांगुलि। इस भाषण में भी शब्द और अर्थ का वैसा ही अपूर्व समारोह था और हम सभी के मन में बार-बार यह विचार आ रहा था कि कवि के श्रद्धापर्व की इससे सुंदर परिणति संभव नहीं थी। इतने में ही अपने अध्यक्षीय वक्तव्य वा उपसंहार करते हुए डॉ० गांगुलि ने कहा “हमारे धर्म में भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं के पूजन की अलग अलग विधियों है। इनमें गंगा पूजन की पद्धति सबसे विलक्षण है। उसमें बाहर से कोई सामग्री लाने की आवश्यकता नहीं होती, गंगाजल से ही गंगा का अभिषेक कर दिया जाता है। हमने भी वही किया है स्वर्गीय राष्ट्रकवि की वाणी का अर्चन आज हमने उन्हीं में समतुल्य एक दूसरे कवि की वाणी के द्वारा किया है।
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yadyapi mere pas sandeh ka koi wishesh karan nahin tha, kyonki ek to ye dadda ye saraswat shraddh ka punit awsar tha aur dusre mera bhi ye pahla nimantran tha jismen mainne apni or se sabhi prakar ke wikalp dewar aswikriti ke liye koi awwash nahin chhoDa tha, phir bhi main ashwast nahin tha aur udhar unki tatkalik swikriti mere sandeh mein aur bhi wriddhi kar rahi thi nimantran chunki sarwatha aupacharik tha ant uski aupacharik swikriti bhi apekshait thee— yahan se dusri samasya arambh hui main pure buddhibal se kaam leta hua, dohre sadhnon ka prayog kar raha tha—ek or sidhe registry patr aur tar bhejta dusri or mitr ke madhyam se unki pratilipiyan ant mein, didi ke sahj sneh se abhishaikt wyaktigat patr ke sath aupacharik swikriti to mujhe mil gai, parantu tithiyon ka parashn ab bhi hal nahin hua ant tithiyon ke nirnay ke liye phir morcha lagaya gaya, aur mahino ke baad ye faisla hua ki august mein dadda ke janmadiwas par hi bhashanmala wa shriganaesh ho august ka mahina aaya aur wibhag ki aur se, samay par, awsar ewan wakta ki garima ke anurup widhiwat ayojan kiya gaya prayag se aane ko gaDi aadi ka nishchay ho gaya aur ye bhi tay ho gaya ki mahadewi ji ko chunki nai dilli mein kuch awashyak kary hai, ant wahi shri dinkar ke yahan thaharne mein unhen adhik suwidha rahegi samaroh se ek din poorw tar aaya ki we upper inDiya se aa rahi hai hum logon ne aram ki sans li par kuch hi ghante baad ek tar aur aya—mera matha thanwa aur mainne samjha ki bus koi na koi badha aa gai parantu is tar ka bhi majmun wahi tha ki mahadewi ji upper inDiya se pahunch rahi hain—mujhe laga jaise atithey ki wyagrata ka sankrman ab atithi par ho gaya hai dusre din pata laga ki upper inDiya let hai—yo to let hone ki uski aadat purani hai par us din wo teen ghante let thi khair, teen ghante bhi kab tak pure na hote aur gaDi aa gai
parichit wesh bhusha mein mahadewi ji apni sahayika ke sath Dibbe se utri unka swagat karne ke liye wibhag ke anek sadasy aaye the par we apne apne kaam par laut chuke the—main bhi ghar jawar dobara aaya tha ant us samay main aur mere sahity sahayak hi station par rah gaye the mainne saprnam malyarpan dwara unka swagat kiya aur kaha “itne wilamb se ayengi to phika hi swagat hoga boli, ham kya karen—andhere ke karan station kuch pahle chale aaye the—wahan aakar pata chala ki gaDi DeDh ghanta let hai, phir wo aur let hoti gai aur 10 ki jagah 1 baje raat ko jankshan se chhuti kai din se hamein jwar tha, par Daktar se pararthna ki ki kaise hi injekshan dekar ise dawaiye nahin to nagendr ka hartphel ho jayega jwar to jaise taise dab gaya, par teen ghante tak station par baithe rahne se phir hararat baDh i hai aur sachmuch unhen 100 se upar bukhar tha mere man ne kritagyta aur kalesh donon ka ek sath anubhaw kiya
niyat samay par maithilishran gupt ke wyaktitw aur krititw par mahadewi ji ke do bhashan hue wishwawidyalay ka sabse baDa hal—nawdikshant bhawan—khachakhach bhara hua tha dilli ki sahityik aur hindi premi janta bharatwarsh ki sarwadhik pratibha shalini nari ke darshan ke liye umaD paDi thi parantu wo apar bheeD ek wishesh sambhram ki bhawna se anushasit thi swagat bhashan mein jab gargi aur maitreyi ki parampara ke pratinidhi roop mein mahadewi ji ka abhinandan kiya gaya, to wani tatha wywahar mein atyant sayat Da० deshamukh ne baDe aadar ke sath kartal dhwani se uska samarthan kiya mahadewi ji ne apne pahle bhashan mein dadda ke wyaktitw ka marmik wishleshan kiya pratibha se dipit unki wani atyant shant snigdh roop mein prwahit ho rahi thi hirdai se udbhut bhaw sahj roop mein bimbon par aruDh hokar wagghara par tairte chale jate the tulika ke baDe hi saras komal sparshon se unhonne saurgiyah kawi ke jiwan ke marmik chitr ankiti kiye laga shrawn chakshuon ke samne dadda ke jiwan ka sundar elbam khulta ja raha ho aur wo apar shrota samuh mantrmugdh hokar use kanon se dekh raha ho sabhapati—Da० deshamukh—we chehre par garwmishrit santosh ka bhaw tha aur jab main dhanyawad prastaw karne ke liye utha, to unhonne dhire se kaha ye zarur kahna ki run hone par bhi hamara amantran swikar kar inhonne hamein wishesh roop se upakrt kiya hai —aur, phir, apne pas baithe hue bangla we professor se angrezi mein bole weri sensitiwli penteD—baDa hi marmik chitran tha bhashan samapt hone ke baad ek mitr ne kaha kaisa adbhut prawah tha, lagta tha jaise punam ki chandni se jhalmal ganga ki dhara bah rahi ho mainne uttar diya apaki ye utpreksha sundar hone par bhi apurn rahi, isme shubhr sneh aur spheet wagdhara ke upman to hain, parantu wani ke sath sahj roop se gumphit bimbawli ka ullekh nahin hai, ye kahiye ki jaise punam ki chandni mein jhalmal ganga ki dhara phulon se bhari ghatiyon mein hokar bah rahi ho
dusra bhashan maithilishran gupt mein krititw par hua—adhyaksh the wishwawidyalay ke pr upkulapti Da० gaguli is bhashan mein bhi shabd aur arth ka waisa hi apurw samaroh tha aur hum sabhi ke man mein bar bar ye wichar aa raha tha ki kawi ke shraddhaparw ki isse sundar parinati sambhaw nahin thi itne mein hi apne adhyakshaiy waktawy wa upsanhar karte hue Da० gaguli ne kaha “hamare dharm mein bhinn bhinn dewi dewtaon ke pujan ki alag alag widhiyon hai inmen ganga pujan ki paddhati sabse wilakshan hai usmen bahar se koi samagri lane ki awashyakta nahin hoti, gangajal se hi ganga ka abhishaek kar diya jata hai hamne bhi wahi kiya hai saurgiyah rashtrakawi ki wani ka archan aaj hamne unhin mein samtuly ek dusre kawi ki wani ke dwara kiya hai
san 1932 33 tak, jab ki main sent jaans kaulij agara mein b० e०—pratham warsh mein paDhta tha, hindi kawita se mera ghanishth parichai ho chuka tha mera ye adhyayan kewal swant sukhay hi na hokar ek wishesh kram se yojnawaddh roop mein chal raha tha—aur us samay tak main hindi ke pray samast nae purane pratinidhi kawiyon ke pramukh granthon ka widhiwat awlokan kar chuka tha chunki mera lakshya hindi ke (sath hi angrezi tatha sanskrit ke bhee) abhijat kawy ka widhiwat adhyayan karna tha, ant mere man mae ati nawin kawy we prati kai wishesh agrah nahin tha agara ka sahity ratn bhanDar hamare chhatrawas ke pas hi tha jahan main niymit roop se jakar nai pustken dekhta aur kharidta tha prachin granthon ke sanskran jahan bhaDe aur saste hote the, wahan nae kawy granth wahy roop sajja ki drishti se atyant akarshak hote the—unka mudran aur mukhaprshth kalapurn hote the aur jild pray reshmi rahti thi, parantu abhijat (classic) kawy ki shodh mein prawrtt mera kishor man anayas hi is wahy akarshan ka sawran kar pray prachin granthon ke sangrah ka hi prathamikta deta tha ant jab ek din wikreta ne rasraj aur nihar donon ek sath mere samne rakhe to mainne rasraj kharidna hi awashyak samjha—kyonki mere adhyayan shram mae rasraj ka to atyant mahatwapurn sthan tha par ek udiyaman kawi ki pratham rachna hone ke karan nihar wa koi mahatw nahin tha
ye prbandh dhire dhire shithil hone laga, prachin kawy ke sath sath nawin kawy ki or mera akarshan baDhne laga aur chunki mein swayan bhi kuch romani kawita likhta tha, isliye chhayawad we kawiyon ke sath mein ek wishesh tadatmy ka anubhaw karne laga parimal, pallaw aur grathi ke sath nihar bhi ek warsh ke bhitar mere pustakalaya we alkar ban gaye tab tak nihar ki anek panktiyan mujhe wanthasth ho chuki thi—jo tum aa jate ek bar ko main pragit kawy ka atyant utkrisht udaharn manata tha ant rashmi ke prakashit hote hi main turant use kharid laya—aur ek din jab koi pheri wala hostel mein aaya to mainne sagamarmar ka ek chhota sa phrem lekar rashmi mein saklit mahadewi ji ka chitr usmen lagakar paDhne ki mez par rakh liya kuch samay ke baad hindi we ek asthaniya kawi mere pas aaye aur us chitr ko dekhkar achanak poochh baithe ye apaki baDi bahan ki taswir hai? unke is anuman ke liye koi wishesh adhar to nahin tha aur man hi man unke alpbodh ka uphas karte hue mainne turant iska pratiwad bhi kar diya parantu is gaurawmay sambandh ki ek wichitr mahatwakanksha meri chetna mein jag gai jo warshon ke baad ek din mahadewi ji ka sneh pakar anayas phalawti hui
mahadewi ji ke darshan mainne pahli bar shayad 1939 40 ke apas kiya us samay tak nirja prakashit ho chuki thi aur we hindi ke adhunik kawiyon ki pratham pankti mein pratishthit ho chuki thi udhar main bhi sumitranandan pant tatha saket ek adhyayan likh chuka tha aur we mujhe nam se janti thi mainne ek mitr ke madhyam se unse bhent karne ki yojna banai aur kuch aisa sayog hua ki mujhe apne sthan par lautne ka awsar na mila main ya hi shahr mein ghumne nikal paDa tha aur jab mitr ne turant hi mahadewi ji ke pas chalne ka prastaw war diya to main kuch dwiwidha mein paD gaya mujhe laga jaise meri wastrbhusha mae un jaisi gaurwaspda mahila ke pas jane layaw sajidgi nahin thi main shayad jarsi pahne hue tha mainne sun rakha tha ki we logo se pray nam hi milti hai—aur maryada ki baDi kayal hai ant mere man mein bar bar kalidas ko ye ukti gunjne lagi—winitwepen praweshtawyani tapownani ’ aur main sahma hataprabh sa ho gaya parantu apne man ki is dwiwidha ko mitr ke samne wyakt karne ki meri himmat nahin paDi aur udhar mitr ne bhi mujhe iska awsar nahin diya —ham log elgin roD par sthit unke awam ki or chal diye
raste madh aate hue chhayawad ki mera mae wyaktitw ke bare mein tarah tarah ki kalpnayen mere man mein uthne lagi en kshain kalpana dhumil chitr meri ankhon ke samne aane laga aur main bar bar apne us akawymay awinit wesh ke prati sachet sa hone laga aisi hi wichitr kalpnao aur dharnaon ko lekar mainne mahadewi ji ke wartakaksh mein prawesh kiya us kamre ki saj sajja atyant kalapurn thi —diwaron par ajanta shaili we bhawy chitr ankit the, ek kone mein krishn ki sundar mutti khaDi hui thi, farsh par kalin bichhe hue the aur kursiyon tatha asandimon par resham ki gaddiyan thi sampurn wriksh mein kala ka watawarn wyapt tha jismen chhayawad ka rang waibhaw to yathawat tha, parantu mujhe laga jaise iski wyajnayen kuch adhik moort thi main baDe dhyan se bhittichitr aadi ko dekh raha tha ki itne mein mahadewi ji ne prawesh kiya hum logon ne uthkar winaypurwak abhiwadan kiya aur atyant sambhram ke sath apne apne sthan par baith gaye mahadewi ji shubhr khadi ke wastra dharan kiye hue thi jo kamre mein wikirn rang waibhaw se sarwatha bhinn hote hue bhi usmen wisangati utpann nahin karte the jaise sharada ki shwet pratima rang birange phulon ke beech kisi prakar asgat pratit nahin hoti kaksh ka watawran kuch aupacharik sa hone laga tha—parantu mahadewi ji ne turant apne mukt hasya aur usi mein anurup sahj wyawhar se use magar diya mujhe dekhkar sahsa kah uthi—are tum ho nagendr ha tumhare lekh paDh kar to main samajhti thi ki koi bharkam adami honge mainne kaha ha nahin to abhi do warsh poorw hi em० e० kiya hai mitr bole kya umr hai apaki? mainne kaha 24 warsh is par turant hi mahadewi ji bol uthi tab to hum tumhari baDi didi hai mainne is aprichit sneh ke liye abhar wyakt kiya aur lagbhag 6 7 warsh pahle ghatit hostel anayas hi meri smriti mein murtit ho gai —ham log koi ghanta DeDh ghanta batachit karte rahe thoDi der mein mere gharwar ke bare mein baten karti rahi jo mahaj atmiyata se bhigi hui thi beech mein pragtiwad ki charcha chal paDi mainne dekha ki unki wani sahsa uddipt ho uthi aur chhayawad wirodhi tarkon ka we apurw driDhta se khanDan karne lagi itne mein hi chay aa gai aur unke swar mein phir wahi sahj mardaw aa gaya jaise kisi sahityik man ko chhoDkar we turant hi pariwar ke sahj snigdh watawarn mein laut i ho chay pitak atyant kritagy bhaw se mainne unse wida li aur mitr ke sath apne awas ki or chal diya raste mein swbhawat main mahadewi ji ke wishay mein hi sochta aa raha tha mujhe lagta tha ki mainne atit ke chalchitr ki mamtamyi widhatri ke darshan to kar liye—shrinkhla ki kaDiyan’ ki lekhika tejaswi roop bhi dekh liya parantu chhayabad ki jis wirahdagdh kawyitri ko dekhne mein gaya tha wo apne sadhana kaksh se bahar nahin i
—aur, mahadewi ji ke wishay mein aaj bhi yahi saty hai unke wyaktitw ke teen roop hain ek—mamtamyi bharatiy mahila ka jo baDon se chhoti bahan aur chhoti se baDi bahan ki tarah wywahar karti hai, dusra—rashtra ki jagrat meghawini nari ka jiske wicharon mein driDhta aur wani mae apurw tez hai, aur tisra—rahasykalpnaon ki bhawaprawn kawyitri ka jisne madhurtam chhayawadi giton ki sirishti ki hai inmen pahla unka pariwarik roop hai jo sahityik bandhuon ke simit writt mein prakat hota hai, dusra samajik roop hai jo sarwajnik manchon par deept ho uthta hai aur tisra kawy ki madhur sadhana mae leen aikantik roop hai jo samne nahin aata
is snhashwasan ke baad mein mahadewi ji ke prati ek shraddhamay naikaty ka anubhaw karne laga aur allahabad jane par niymit roop se unse milta san 1940 mein unki prasiddh kriti dipashikha prakashit hui aur mainne poorn manoyog ke sath uski samiksha likhkar akashwani se prasarit ki jo baad mein prakashit bhi hui un din hindi sahity mein pragtiwad ka andolan zor par tha jaisa ki aaj nawlekhan mein sutradhar kar rahe hain, usi tarah san 40 ke asapas samyawadi wicharadhara se prabhawit lekhan mi sangthan banakar siddhant ka wyawsay kar rahe the aur unhonne bhi nae lekhkon ki tarah apni sima ki rakhsha karne ke liye kuch chhote baDe prahri chhot rakhe the jo unki apni chauhaddi se bahar chalne walo par awaran hi jhapatte rahte the sanskritik parampara ke pray sabhi kawi lekhak unke shikar ban chuke the siddhant aur wywahar donon ki drishti se pragtiwad ke andolan ke prati mere man mein astha nahin thi—mujhe lagta tha aur aaj bhi lagta hai koi bhi jiwan drishti jaise jaise wo andolan ka sahara leti hai, sahity se door hatne lagti hai is prakar ke andolanwadi sahity mein bhautik siddhiyan pramukh ho jati hain aur kala ki sadhana gaun phir bhi, ek halla to manch hi gaya tha pant ji ko kawy kalpana jiwan mein mulabhut samy ka anusandhan karti hui marx ke siddhanton ki or akrisht ho gai thi aur we apni pratya ko sayas udhar moD rahe the pragtiwad ko isse baDa bal mil raha tha aur uske parcharak pant ji ki mool drishti ko na pakaD kar unki bahy abhiwyanjnaon mein aatm samarthan DhunDhate hue gram yuwati ya kaharon ka nrity ka kawita ke adarshrup mein wigyapit kar rahe the idhar nirala ki uttam kawitaon ki upeksha kar we aisi rachnaon ko fatwe de rahe the jinmen unki drishti se, shoshan ke wiruddh kranti ka swar pramukh tha main kawy ke kshaetr mein baDhti hui is arajawta par kshaubdh tha tabhi deep shikha ka prakashan hua aur mainne mukt hirdai se uska abhinandan karte hue likha
is yug mein dipashikha wa prakashan ek ghatna hai mahadewi ji ke hi shabd udhaar lekar hum kahege ki jiwan aur marn in tufani dinon mein rachi hui ye kawita theek aisi hi hai jaise jhajha aur prlay ke beech mein sthit mandir mein jalne wali nishpamp deep shikha
is pustak ka mahatw ek aur drishti se bhi hai aaj chhah sat warshon ke baad mahadewi ji ke sadhana mandir ka dwar khula hai aur karuna ke sneh se jalti hui is dipak ki lauko ab bhi ekakipan mein tanmay aur wishwas mein muskrati hui dekhkar hindi ke widyarthi ka sashak bhan utphull ho utha hai
parantu aage dipashikha ne pragit tatw ka wishleshan karte hue mainne nirasha wyakt ki
ab hamein ye dekhana hai ki dipashikha ko jis anubhuti se prerna mili hai, usmen kitni tiwrata hai
is drishti se hamein nirash hona paDega karan aspasht hai is anubhuti ke mool mein jo kaam ka spandan hai, uske upar kawi ne chintan aur kalpana ke itne awarn chaDha rakhe hai ki swbhawat unki tiwrata dab gai hai aur uska tatolne par bahut niche gahre mein ek halki si dhaDkan milti hai sath hi anubhuti ki pujibhut hone ka awsar nahin mila uska witarn prayatn purwak kiya gaya hai, isliye wo teewr na rahkar hatki hatki wikhar gai hai aspasht shabdon mein, in giton mein lokgiton ki jaisi mas ki ushn gandh pram nishesh ho gai hai dusri or buddhijiwi mahadewi ji mein sant ya bhakt kawiyon ka sa wishwas aur samarpan bhi sambhaw nahin ho saka isliye unke hirdai mein agyat ke prati bhi jigyasa hi utpan ho saki hai, piDa nahin kul milakar ye kahna hoga ki deep shikha ki prerak anubhuti chhanh si sookshm aur mom si mridul to hai, parantu hak si teewr nahin
mainne apni dharana puri imandari aur utne hi aadar ke sath wyakt ki thi aur mahadewi ji par meri bhawna awyakt nahin rahi thi, phir bhi ukt waktawy mein aisa kuch awashy tha jo unko grahy nahin ho sakta tha agli bar jab main unse mila to ye baat mere man mein thi unhonne sahj sneh se mera swagat kiya aur ghar ki—bahar ki—bahut si baten karti rahi tabhi mere mana karne par bhi bhagtin chay le ain aur yadyapi main sawere achchhi tarah kha pikar nikla tha, phir bhi mujhe didi ke adesh ka palan karna paDa bhookh ekdam na hone se mainne ekadh cheez lekar tashtari samne se hata di is par unhe mauqa mil gaya—shayad we uski talash mein hi thi, aur boli baat karne ho kawita mein bhi mas ki, munh mein sawe tak nahin chalte main iske liye taiyar tha, par ye jhiDki itne snigdh roop mein milegi, aisi aasha nahin thi mainne baat ko talte hue kaha—bhojan mein, didi, mein pura ayasmaji hoon phir bhi, us snehsikt wyangya ne mujhe apne nirnay par punarwiwchar karne ke liye wadhit kiya aur ye parashn aaj bhi mere samne hai ki kya mahadewi ki ya samanyat chhayawad ki kawita ka is adhar par awmulyan kiya ja sakta hai ki wo masal nahin hai?
wastaw mein apne adhyayan aur chintan manan ke adhar par meri ye nirbhrant dharana ban gai hai ki kawy ka prantattw ragatmak anubhuti hai—aur parinamat kawy ke mulyankan ka adhar bhi mein anubhuti ko hi manata hoon anubhuti ke atirikt manaw chetna ki ek aur pramukh writti hai kalpana jo jiwan ke samast kshetron mein—wisheshkar kawy mein sakriy rahti hai—kawy mein anubhuti ko rupayit karne ka sabse pramukh sadhan kalpana hi hai in donon writtiyon ka yo to awichchhin sambandh hai, phir bhi sthool roop se donon mein kalpana ki apeksha anubhuti saty ke adhik nikat hai—atew samanyatः anubhuti manaw man ke liye apekshakrit sahjagrah hoti hai is tark se, jis kawita mein anubhuti ka tattw adhik hai—arthat jiska arth (sawedya) hamari indriya aur unke madhyam se man ko adhik prabhawit karta hai, wo adhik mulyawan hai ukt tathy ka anek bar aur anek rupon mae pratipadan ho chuka hai bharatiy ras siddhant mein iski aspasht swikriti hai, miltan ki bahumanya paribhasha ka bhi sar yahi hai—kawita saral, aindriy aur sanwegaprwan hoti hai, warD sawarth ne isi adhar par kawita ko prwal manowego ka sahj uchchhlan mana hai—adi aadi chhayawad ki kawita par wisheshkar mahadewi aur pant ki kawita par ye paribhasha apekshakrit kam ghatit hoti hai, isam sandeh nahin parantu is tark ka pratiwad mi kathin nahin hai aur chhayawad ki or se wahi prastut kiya ja sakta hai kawita jiwan mein samany aindriy manasik anubhwi ki wani nahin hai—parishkrit arthat ragadwesh tatha aindriy wikaron se mukt shuddh anubhwo ki abhiwyakti hai ant anubhuti ki masalta nahin waran masal tatw ki pariskriti hi kawita ki siddhi hai aur chhayawad ki kawita mein manaw anubhutiyon ke mrinmay tatw ki apeksha isi chinmay tatw ka unmesh adhik hai jiwan mein sahajta arthat prakrt aaweg aur ant sphurti ka mahatw nishchay hi hai, parantu parishkriti ke prati mi manaw chetna ki prawrtti na nai hai aur na aswabhawik swasth manaw man ke liye jiwan ke masal upbhog mein prawrtt hona sarwatha swabhawik hai parantu usse upar uthne ki spriha bhi kam swabhawik nahin hai prakrt jiwanwadiyon ka ye tark sahi hai ki adami kewal phool soongh kar nahin rah sakta, parantu ye bhi kam sahi nahin hai ki adami ko phool sunghne ki awashyakta bhi jiwan mein nirantar bani rahti hai mahadewi ji aaj mere is waktawy ko pad kar hans kar kahengi ki ab aaye raste par, bachchu! —main raste par kahan tak aaya hoon, ye to is samay nahin bataunga, parantu itna awashy hai ki chhayawad ke mulyankan ke sandarbh mein ye ek atyant sarthak parashn hai jo aaj hamare samne upasthit hai
isi prakar naya kawi mahadewi ji ke kawy shilp ke wiruddh bhi ek wishesh akshaep karta hai aur wo ye ki unki bimb yojna wa kshaetr atyant simit hai unke upmano aur prtikon mein waichitry ewan waiwidhy nahin hai ye akshaep ghalat nahin hai ki jiwan aur jagat ke simit kshaetr se mahadewi ji apne upmano aur prtikon ka chayan karti hai parantu unki sayojnaon mein apurw waichitry hai kahi bhi mahadewi apne bimb ya chitr ko punrawritti nahin karti, upkarn pray saman hi rahte hain parantu unka prayog sarwatha bhinn hota hai isliye mahadewi ji ki kala mein wistar to nahin hai parantu sookshm winyas adbhut hai yahan phir ek maulik parashn uthta hai ki kya upman aur prtikon ka waiwidhy waichitry matr kala ke mulyankan ka adhar ho sakta hai kala ka rahasy samagri ke sangrah mein nihit hai ya uske prayog mein? chhayawad ke prsang mein ye parashn bhi utna hi sarthak hai
san 1950 ke baad mahadewi ji ki prakhya ne ek prakar se upram le liya pichhle do dashkon mein unki kewal do hi kritiyan samne i ek saptparna jismen sanskrit ki kuch chuni hui rachnaon ke padyanuwad saklit hai aur dusri path mae sathi jo kawyitri we samsamayik kalakaro ke marmik wekti chitron ka sanklan hai ye wastaw mein unke sarwajnik jiwan ka yug hai 1940 ke baad unki pratima sahityik sangthan ke karyon mein prawrtt ho chali thi is awadhi mein unhen anek prakar ke kaDwe mithe anubhaw hue hindi ki janta se unhe phool bhi mile aur dhool bhi parantu isi beech wartaman yug ke teen mahan wyaktitw unke jiwan mae aye—rashtrapti rajendraprsad, rashtrakawi maithilishran gupt aur mahapran kawi nirala mera wishwas hai ki in tinon ne hi mahadewi ji ke prwal aur samrddh wyaktitw ke wikas mein, anway wyatirek paddhati se, yogadan kiya sanyogwash athwa ho sakta hai ki apne swbhaw ki asarwajnik prwrittiyon ke prachchhann prabhaw se is awadhi mein mahadewi ji ke sath mera sampark pray nahin raha parantu mere prati unke watsal bhaw mein koi kami nahin i aur iska praman mujhe mila maithilishran gupt abhibhapan mala mein sandarbh mein jiska ayojan abhi kuch mas poorw diwgat rashtrakawi ke janmadiwas par hamare wibhag ki or se kiya gaya tha
ye prsang bhi apne aap mein baDa hi rochak aur smarnaiy hai dadda ke swargawas ke uprant hamare wibhag ne shyamlal trast ke anudan se maithilishran gupt abhibhashan mala ke ayojan ka nirnay kiya aur apne upkulapti Da० deshamukh ke samne pratham wakta ke roop mein shirimati mahadewi warma ko amantrit karne ka prastaw rakha Da० deshamukh ne baDe utsah ke sath unke nam ka anumodan kiya aur kaha ki wastaw mein mahadewi ji ke aane se ek bhawy parampara ka sutrapat hoga ye sab to asani se ho gaya, parantu mahadewi ji ko bula lena apne aap mein ek asadhy sadhana thi main samasya ke har pahlu ko janta tha, isliye mainne puri sawadhani se yojna banai sabse pahle to unki swikriti prapt karne ka hi sawal tha, kyonki jab se mujhe malum hai ki prayag ke Daktar wibhag se mahadewi ji ki koi khas dushmani chali aa rahi hai—n jane kyon dusro we patr unko nahin milte aur unke patr bhi yathasthan nahin pahunch pate iska hal mainne ye nikala ki sarkar ke bhure pure Dat wibhag ka ekdam awishwas kar wyaktiyon ko patrachar ka madhyam banaya jin dinon ye yojna ban rahi thi, tabhi bhagya se mahila widyapith ke karmaschiw apne kisi awashyak kary se mahadewi ji ka patr lekar mere pas aaye mainne kaha—“apke kary mein katipay waidhanik badhayen hai, parantu main nishchay hi prayatn karunga we bechare baDe kritagy hue aur dhanyawad dekar jane lage usi waqt mainne apna matlab unse kahan aur mahadewi ji ke nam amantran patr saup kar turant hi uski swikriti bhijwane ka wachan le liya parantu puri sawadhani ke bawjud pahla prayas wiphal gaya—uttar nahin aaya na nakaratman aur na swikaratmak, yadyapi we sajjan wada kar gaye the ki dewi ji ko yadi koi kathinai hui to bhi we mujhe turant suchana de denge mainne jaldi hi dusra upay kiya aur ab ki bar ek aise sajjan ko madhyam banaya jo winit aur nishthawan hone ke sath sath apne dayitw ke prati bhi atyant sajag the tab bhi mainne unhen puri tarah satark kar diya tha we poorn sankalp ke sath aage baDhe aur nana prakar ki badhayen par kar ant mein mahadewi ji ki swikriti prapt karne mein saphal ho gaye usi din unhonne mujhe tar se suchana di ki mahadewi ji ne saharsh hamara amantran swikar kar liya hai
yadyapi mere pas sandeh ka koi wishesh karan nahin tha, kyonki ek to ye dadda ye saraswat shraddh ka punit awsar tha aur dusre mera bhi ye pahla nimantran tha jismen mainne apni or se sabhi prakar ke wikalp dewar aswikriti ke liye koi awwash nahin chhoDa tha, phir bhi main ashwast nahin tha aur udhar unki tatkalik swikriti mere sandeh mein aur bhi wriddhi kar rahi thi nimantran chunki sarwatha aupacharik tha ant uski aupacharik swikriti bhi apekshait thee— yahan se dusri samasya arambh hui main pure buddhibal se kaam leta hua, dohre sadhnon ka prayog kar raha tha—ek or sidhe registry patr aur tar bhejta dusri or mitr ke madhyam se unki pratilipiyan ant mein, didi ke sahj sneh se abhishaikt wyaktigat patr ke sath aupacharik swikriti to mujhe mil gai, parantu tithiyon ka parashn ab bhi hal nahin hua ant tithiyon ke nirnay ke liye phir morcha lagaya gaya, aur mahino ke baad ye faisla hua ki august mein dadda ke janmadiwas par hi bhashanmala wa shriganaesh ho august ka mahina aaya aur wibhag ki aur se, samay par, awsar ewan wakta ki garima ke anurup widhiwat ayojan kiya gaya prayag se aane ko gaDi aadi ka nishchay ho gaya aur ye bhi tay ho gaya ki mahadewi ji ko chunki nai dilli mein kuch awashyak kary hai, ant wahi shri dinkar ke yahan thaharne mein unhen adhik suwidha rahegi samaroh se ek din poorw tar aaya ki we upper inDiya se aa rahi hai hum logon ne aram ki sans li par kuch hi ghante baad ek tar aur aya—mera matha thanwa aur mainne samjha ki bus koi na koi badha aa gai parantu is tar ka bhi majmun wahi tha ki mahadewi ji upper inDiya se pahunch rahi hain—mujhe laga jaise atithey ki wyagrata ka sankrman ab atithi par ho gaya hai dusre din pata laga ki upper inDiya let hai—yo to let hone ki uski aadat purani hai par us din wo teen ghante let thi khair, teen ghante bhi kab tak pure na hote aur gaDi aa gai
parichit wesh bhusha mein mahadewi ji apni sahayika ke sath Dibbe se utri unka swagat karne ke liye wibhag ke anek sadasy aaye the par we apne apne kaam par laut chuke the—main bhi ghar jawar dobara aaya tha ant us samay main aur mere sahity sahayak hi station par rah gaye the mainne saprnam malyarpan dwara unka swagat kiya aur kaha “itne wilamb se ayengi to phika hi swagat hoga boli, ham kya karen—andhere ke karan station kuch pahle chale aaye the—wahan aakar pata chala ki gaDi DeDh ghanta let hai, phir wo aur let hoti gai aur 10 ki jagah 1 baje raat ko jankshan se chhuti kai din se hamein jwar tha, par Daktar se pararthna ki ki kaise hi injekshan dekar ise dawaiye nahin to nagendr ka hartphel ho jayega jwar to jaise taise dab gaya, par teen ghante tak station par baithe rahne se phir hararat baDh i hai aur sachmuch unhen 100 se upar bukhar tha mere man ne kritagyta aur kalesh donon ka ek sath anubhaw kiya
niyat samay par maithilishran gupt ke wyaktitw aur krititw par mahadewi ji ke do bhashan hue wishwawidyalay ka sabse baDa hal—nawdikshant bhawan—khachakhach bhara hua tha dilli ki sahityik aur hindi premi janta bharatwarsh ki sarwadhik pratibha shalini nari ke darshan ke liye umaD paDi thi parantu wo apar bheeD ek wishesh sambhram ki bhawna se anushasit thi swagat bhashan mein jab gargi aur maitreyi ki parampara ke pratinidhi roop mein mahadewi ji ka abhinandan kiya gaya, to wani tatha wywahar mein atyant sayat Da० deshamukh ne baDe aadar ke sath kartal dhwani se uska samarthan kiya mahadewi ji ne apne pahle bhashan mein dadda ke wyaktitw ka marmik wishleshan kiya pratibha se dipit unki wani atyant shant snigdh roop mein prwahit ho rahi thi hirdai se udbhut bhaw sahj roop mein bimbon par aruDh hokar wagghara par tairte chale jate the tulika ke baDe hi saras komal sparshon se unhonne saurgiyah kawi ke jiwan ke marmik chitr ankiti kiye laga shrawn chakshuon ke samne dadda ke jiwan ka sundar elbam khulta ja raha ho aur wo apar shrota samuh mantrmugdh hokar use kanon se dekh raha ho sabhapati—Da० deshamukh—we chehre par garwmishrit santosh ka bhaw tha aur jab main dhanyawad prastaw karne ke liye utha, to unhonne dhire se kaha ye zarur kahna ki run hone par bhi hamara amantran swikar kar inhonne hamein wishesh roop se upakrt kiya hai —aur, phir, apne pas baithe hue bangla we professor se angrezi mein bole weri sensitiwli penteD—baDa hi marmik chitran tha bhashan samapt hone ke baad ek mitr ne kaha kaisa adbhut prawah tha, lagta tha jaise punam ki chandni se jhalmal ganga ki dhara bah rahi ho mainne uttar diya apaki ye utpreksha sundar hone par bhi apurn rahi, isme shubhr sneh aur spheet wagdhara ke upman to hain, parantu wani ke sath sahj roop se gumphit bimbawli ka ullekh nahin hai, ye kahiye ki jaise punam ki chandni mein jhalmal ganga ki dhara phulon se bhari ghatiyon mein hokar bah rahi ho
dusra bhashan maithilishran gupt mein krititw par hua—adhyaksh the wishwawidyalay ke pr upkulapti Da० gaguli is bhashan mein bhi shabd aur arth ka waisa hi apurw samaroh tha aur hum sabhi ke man mein bar bar ye wichar aa raha tha ki kawi ke shraddhaparw ki isse sundar parinati sambhaw nahin thi itne mein hi apne adhyakshaiy waktawy wa upsanhar karte hue Da० gaguli ne kaha “hamare dharm mein bhinn bhinn dewi dewtaon ke pujan ki alag alag widhiyon hai inmen ganga pujan ki paddhati sabse wilakshan hai usmen bahar se koi samagri lane ki awashyakta nahin hoti, gangajal se hi ganga ka abhishaek kar diya jata hai hamne bhi wahi kiya hai saurgiyah rashtrakawi ki wani ka archan aaj hamne unhin mein samtuly ek dusre kawi ki wani ke dwara kiya hai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।