अवतार रामा लखो नामा, साथ सार सांभळे।
अमर बीज जो हाथ झेल्यी, जिकै भूल्या क्यूं फिरे॥
आ विध जाणसी कोई संत साचा, ब्रह्मवाचा देवता दरसण करै।
एक तुल असमान तोलै, जिकै जम सूँ क्यूं डरे॥
कठण क्रिया क्रूर मारग, अजर जरणा कुण जरै।
मरजीवा संत जलम पायो, चोट घण री वै सहै॥
हाथ सजीवण लियां डोलै, जिकै जम सूं क्यूं डरै।
अमर बीजक हाथ लाग्या, जिकै भूल्या क्यूं फिरै॥
धरण कूआ असमान बाड़ी, पावन पुळ पाणी चढ़ै।
अमर फळ असमान पाक्यौ, जिकी विध बिरला करै॥
एरण माता धरण जाई, सुमेरु वांरा पुत्र है।
इंद्र नै आसीस दीन्हीं, भांण ससि हरि साख है॥
पांव पियाळां सीस अंबर, जिकै जोगी जग घड़ै।
पवन पाणी पुत्र वांरा, तीन गुण सेवा करै॥
पांच तत्त्व प्रकाश ऊपर, त्रिवेणी पूजा चढ़ै।
अखे जोगी अमर आसण, अलख रै भेळी मिळै॥
जिकै बोवै जिकै ऊगे, जिकै गुरु प्रमाण है।
ज्यांरी बांधी सृस्टि हालै, जिकै सघड़ दिवांण है॥
बिना पाणी पुत्र खेले, धरण पैली धार है।
लोक चवदा जिकै घड़िया, जिकै ही अवतार है॥
ॐ सोऽहम् बिरम साजै, रणुकार आधार है।
नाम तो अबीज वांरौ, आद जात अनाद है॥
सहस्र इंद्र भांण शशि अर, ब्रह्मा विष्णु सार है।
सुर नर देव पाट पूज्या, वो आपो आप है॥
वेद बिरला ग्यान गीता, ध्यान तपस्या सार है।
तेज तुरिया बणज करिया, निज धरम अधिकार है॥
सहस्र करणी किरोड़ क्रिया, एक अक्षर पार है।
पार में प्रमांण खोजौ, सोही संत री सार है॥
पांच देव पाट बैठा, निज धरम अधिकार है।
छट्टौ निकलंक ठिकांणै, बिना सत बेकार है॥
सुर लोक ऊपर सैस जोजन, प्रमळा रै पार है।
ऊरस ऊपर पुरस खेलै, चवदा लोक विस्तार है॥
शोध सबदां तोल बोधां, जपै अजपा जाप है।
प्रमाणी नर पूगसी ज्यांरा, असंग जुगां सूं राज है॥
महापद प्रमांण गाया, सहस्र पेड़ी ऊपरै।
बोलिया अजमाल सुत, कोई साध नै सोझी पड़े॥
निज नाम को समझो; यही सार-तत्त्व है। यह अविनाशी ही अमर बीज है, जिसे यह मिल गया, वह भ्रमित होकर नहीं भटकेगा। परम-तत्त्व प्राप्ति की विधि कोई सच्चा संत ही जान सकेगा जो शब्द ब्रह्म रूपी परम देव के दर्शन करेगा। जो अद्वैत भाव से ब्रह्मरंध्र की साधना करते हैं, वे यमराज से क्यों डरते हैं? योग-साधना की पद्धति कठिन और कष्टदायी है, ऐसी कठिन साधना में कौन जले? जो संत मर करके भी जीवित रह सकते हैं और जीवित रहकर भी मरे हुए रह हैं, वे ही काल या मृत्यु की मार सहन करने में समर्थ हैं। योग-साधना की सिद्धि रूपी संजीवनी शक्ति जिन्हें प्राप्त है, वे यमराज से नहीं डरते। अविनाशी परम तत्त्व का मंत्र जिन्हें प्राप्त हो गया है, वे माया जाल से मुक्त हो गए हैं और भ्रमित होकर नहीं भटकते। मूलाधार में स्थित कुंडलिनी शक्ति को जागृत करके उसकी गुफा से उसे बाहर करके पाँचों तत्त्वों को पार करके सहस्र कमलदल में प्रविष्ट कर देते हैं। इस प्रकार कुंडलिनी को कुएँ से निकाल कर वाटिका में ले आते हैं, जहाँ साधक की साधना फलीभूत हो जाती है। ऐसी योग-साधना कोई विरले पुरुष ही कर पाते हैं। इस प्रकार 'धरण जाई' अर्थात् मूलाधार से उत्पन्न एरणमाता यानी कुंडलिनी शिव लोक में पहुँच जाती है; इसी पराशक्ति ने पर्वतराज सुमेरु को उत्पन्न किया, देव लोक और उसके राजा इंद्र को उत्पन्न किया। सुर, नर, नक्षत्र, पर्वतादि का स्रष्टा, संपूर्ण सृष्टि का स्रष्टा का निवास सहस्र कमलदल में है। विकट साधना वाले योगियों की साधना मूलाधार से प्रारंभ होकर सहस्र कमलदल (गगन मंडल) में संपूर्ण होती है, शिखर चढ़ती है। जिनकी साधना चरमोत्कर्ष पर पहुँची है; वे ही परम योगी जगत् की उत्पत्ति करते हैं। ऐसे ब्रह्म योगी ही वायु, जल आदि पंच तत्त्व के उत्पत्तिकर्ता हैं; सत्, रज और तम तीनों गुण इनकी सेवा करते हैं अर्थात् ये योगी त्रिगुणातीत हैं। इस काया में ही ब्रह्म लोक है जो पंच तत्त्वों से ऊपर है, उससे ऊपर प्रकाश लोक है। मूलाधार चक्र से निकल कर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ब्रह्मरंध्र में पहुँचती है। अर्थात् योग साधना द्वारा गिड़ा पिंगला और पिंगला और सुषुम्ना का त्रिवेणी संगम ही पूजा चढ़ाना है। इस साधना के बाद साधक स्वयं अक्षय योगी हो जाता है। साधक परमपद (अमर आसन) प्राप्त करके अद्वैतावस्था में आ जाता है, अर्थात् उसकी आत्मा परब्रह्म में मिलकर अभिन्न हो जाती है। यही आत्मा का मोक्ष है। जैसा कर्म करोगे, वैसी ही फलप्राप्ति होगी। इस कथनानुसार योग-साधक को कठिन योग-साधना का फल (मोक्ष) प्राप्त होता है। ऐसे साधक ही प्रामाणिक गुरु हैं। ये साधक ही परमात्मा के सामर्थ्यवान मंत्री हैं और इनके द्वारा स्थापित मर्यादा और आदर्श के अनुशासन से ही सृष्टि संचालित होती है। परब्रह्म स्वयंभू है। इस धरती से पहले भी वह था और अपना आधार स्वयं था। उसी निर्गुण-निराकार परब्रह्म ने चौदह लोकों का सृजन किया और उसी के सगुण-साकार रूप से समय-समय पर विभिन्न अवतार हुए। साधक अजपा जाप की साधना करते हुए अनाहत नाद सुनते हैं, यही उनकी मुक्ति का आधार है। परब्रह्म का ही नाम है जो वर्ण-अक्षरों से परे है; लिखने का विषय नहीं है। यह अनादि परब्रह्म अपने मूल गुण-धर्म से नाद रहित और पंच ज्ञानेन्द्रियों के विषयों से परे है। सहस्र फनधारी, सुरपति इंद्र, सोलह कला निधि चंद्र और ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा तैंतीस कोटि देवी-देवता भी जिसकी आराधना करते हैं; वह परब्रह्म स्वयंभू है। चारों वेद, गीता तथा ध्यान और तपस्या का सार तत्त्व यही परब्रह्म है। योगी लोग उर्ध्वरेता बन कर विविध योग मुद्राओं द्वारा तुरीह समाधि लगाकर जिस आत्म स्वरूप को प्राप्त करते हैं वह यही परब्रह्म है। सहस्र प्रकार के सुकृत्य और करोड़ों प्रकार के कर्मकांड से भी परे एक अक्षर (ओउम्) ऊपर है। परब्रह्म का विचार खोजना ही संत जीवन का सार है। इसी स्वधर्म को प्राप्त करके पाँच देव देवत्व के पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। चाहे ये पाँच देवता हों और चाहे स्वयं निष्कलंकी अवतार, सत के बिना व्यर्थ है। स्वर लोक से आगे सहस्रदल कमल से सुवासित परब्रह्म प्रतिष्ठित है; जिससे चौदह लोक का विस्तार हुआ है। योगी जन अजपा जाप जपते हुए इसी शब्दब्रह्म की अनुभूति करते हैं। इस स्थिति तक कोई आधिकारिक साधक ही पहुँच सकता है जो असंख्य युगों से साधक रहा है। इस प्रकार के परमपद का ज्ञान सिद्धि प्राप्त योगी को ही हो सकता है, अजमल-पुत्र रामदेव कहते हैं कि मैंने सहस्र कमलदल पर आसीन होकर (योग-साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर) महापद का विचार प्रकट किया है।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 71)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.