अबै थां सांभळी जुग संत सारा
abai than sambhळi jug sant sara
अबै थां सांभळी जुग संत सारा, अलख रा प्रमाण न्यारा।
चार जुगां री राय पूछौ, अलख गुरां रा पाँव पूजौ।
पाँव पूज्यां पारख पड़ेली, तंवर रामदे सांची भणै॥
कर क्रिया अर करम लागौ, अखै मारग अखंड।
जाणता ईं अजाण होग्या, निपट आंधा वै फिरै॥
करतूत काचा विचल वाचा, कुणसी तिरणी वै तिरै।
पार रा प्रमाण पूछे, आप घट ताळा जड़ै॥
साध सती रौ भरै कांकण, भ्रांत मिळ चोरी करै।
चार जुगां रा नेम लिया, कालर भगति क्यूं करै॥
मन मैला जाय पहलां, स्वार्थ रा सौदा करै।
अलख सेनी नई मांनै, लोभ रा लूंदा भरै॥
एक भगति अलख लेखै, दूजी कमसल करै।
काग बुगला करम मांड्या, अलख बाड़ी ऊजड़े॥
हंस बुगला बैठ भेळा, चुगण तो मोती चुगे।
सेंस धारा गुप्त गंगा, जकै परगट क्यूँ करे॥
एक बुध है संत री, दूजी दोजख पड़ै।
तीजी हरि नांव पियाले, करतूत क्रिया पार पड़ै॥
नेम बिना जिका संत बाजै, ज्यांरा धृक जमार है।
जमले मिळ भ्रांत राखे, ज्यांरी भगति बेकार है॥
षटनाथ दर्शन पाट बैठा, और तपस्या सार है।
निज धरम झेलिया, जद पाया अधिकार है॥
चोसठ कळा में खेल्या तो ई, बिना सत बेकार है।
साधु जिकै भजन खोजै, ध्यावे धरम निजार है॥
साध सबदां तोलतां, जपै हरि रा जाप है।
प्रमाणी संत पूगसी, ज्यांरा असंख जुगां सूं राज है॥
सात सायर नौ सौ नदियाँ, एक पियाले आ भरै।
सेंस कळियाँ चंपो फूल्यौ, अलख रै पूजा चढ़े॥
आप देवै आप लेवै, ख्याल जूवा रौ करै।
भेख भय नै त्याग दीन्हौ, साथ संत विलास करै॥
साध रा सभाव भारी, मरण पहलां वै मरै।
जीवता बैकुंठ म्हालै, सुरगां पहली सत करे॥
रतन मूंगै मोल रा, अलख रै लेखै करे।
पांचा साताँ नौवाँ बाराँ, तेतीसाँ में वै मिळे॥
कळू नेजा नूर बरतै, मेघां घर मै'मा बंटै।
भरिया कांकण फेर भरसी, भेख में इमरत बंटै॥
पाट पूजै पिछम रा, असमान री आसा करै।
साथ तो अथाग थागै, अबीज मोती वै चुगे॥
दान दुर्लभ वस्तु निर्मळ, अजर जरणा वै जरे।
अजरा जर ईमान राखै, किरोड़ कारज जद सरै॥
दोय पुरसां देव पूज्या, दोय सूं अवतार है।
एक पूजो साध निर्मळ, अलख रौ आधार है॥
साथ रै घर अटळ भगति, इंद्र रै घर नित बटै।
शक्ति, शंकर, ब्रह्मा, विष्णु, निजार री आसा करै॥
एक सत री बूँद जावै, दूजी दोजख पड़ै।
तीजी जळ मेल पियाले, करतूत करणी सब हरे॥
प्रमाण गाया अलख रा, अवतार पूजा संत करै।
बोलिया अजमाल सुत, साध नै सोजी पड़े॥
अपने समकालीन संतों को संबोधित करते हुए रामदेवजी कहते हैं कि अब आप लोग निर्गुण-निराकार परब्रह्म का अद्भुत विचार सुनिए! चारों युगों के समस्त ऋषि-मुनियों का मत समझ कर परम गुरु के चरण पूजो। इसी साधना से परब्रह्म का स्वरूप ज्ञात होगा।
कर्तव्य कर्म करते हुए अविनाशी-अनंत परब्रह्म की अखंड आराधना करो। जो जानकर भी अनजान हो गए हैं, वे निपट अंधे हैं।
जो न बात के पक्के हैं और न कर्म के पक्के, ऐसे लोग भला किस उपाय से भव सागर पार कर सकते हैं? ये लोग परब्रह्म का विचार तो पूछते हैं, किंतु अपने हृदय के कपाट के ताले नहीं खोलते अर्थात् अंतःकरण में नहीं देखते, और निज-स्वरूप जानने का प्रयत्न नहीं करते।
आडंबरी नर-नारी, साधुओं-सतियों का रूप धारण करके भ्रांति में डालकर चोरी करते हैं। चारों युगों के भक्ति-विधान में ऐसी निष्फल भक्ति (आडंबर) का निषेध है।
आडंबरी साधुओं का मन कलुषित होता है, ये लोग दूसरों से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। ये लोग ब्रह्म ज्ञान को नहीं समझते और लोभ-लालच में पड़े हुए हैं।
सच्ची भक्ति ईश्वर को अर्पित होती है। उसके विपरीत स्वार्थी लोगों द्वारा किया गया दिखावा पाप युक्त है। ये व्यभिचारी लोग कौओं और बगुलों की भांति आचरण करते हैं। परमात्मा की सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी जब कौओं और बगुलों जैसे अकर्म करने लग जाता है तो परमात्मा की यह सृष्टि रूपी वाटिका उजड़ जाती है।
बगुले हंसों की पंक्ति में बैठकर मोती चुगना चाहते हैं, जो असंभव है। भक्ति रूपी गंगा गोपनीय रहती है, वह दिखावे की वस्तु नहीं है, दिखावा तो मिथ्या आडंबर है जबकि सच्ची भक्ति आंतरिक सत्य है।
सच्ची भक्ति सात्विक है जो संत प्रवृत्ति वाले लोग अपनाते हैं। इसके विपरीत पाखंडी लोग दिखावा करते हैं जो नर्क में जाते हैं। भगवान् का नाम जपते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहो तो कल्याण होगा।
जो लोग धर्म-नियम के बिना ही संत कहलाते हैं, ऐसे लोगों के जीवन को धिक्कार है। भजन-भाव, हरि-कीर्तन के लिए साथ बैठकर भी जो लोग ऊँच-नीच या छूआछूत की भ्रांत धारणा रखते हैं, उनकी भक्ति व्यर्थ है।
चाहे कोई न्याय, मीमांसा, सांख्य आदि छः दर्शनों का अधिकारी ज्ञाता हो जाए अथवा जोगी, जंगम, सेवड़ा, सन्न्यासी, दरवेश, ब्राह्मण इन छः पदों को प्राप्त कर ले और किसी भी प्रकार की कठोर तपस्या क्यों न कर ले परंतु जब तक आत्म-ज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक सब व्यर्थ है। व्यक्ति आत्म-ज्ञान धारण कर लेने पर ही मोक्ष का अधिकारी होता है।
चौसठ कलाओं में प्रवीण होना भी 'सत' के अभाव में व्यर्थ है। सच्चे साधु वे ही हैं जो भजन-भाव में अनुरत रहते हुए निरंतर आत्म-स्वरूप की आराधना करते हैं।
वे साधु जो शब्द ब्रह्म का अनुभव करते हुए ईश्वर का नाम जपते हैं, ऐसे प्रामाणिक साधु ही मोक्ष को प्राप्त होंगे। असंख्य युगों से ही इस प्रकार के संत मोक्ष के अधिकारी रहे हैं।
भक्ति की विविध पद्धतियों का लक्ष्य एक ही है मोक्ष। इन अनेकानेक पद्धतियों में से भक्त का मन भक्ति-जनित आनंदानुभूति से प्रफुल्लित होकर अपने आराध्य ईश्वर की सेवा में चढ़ जाए, वही भक्ति सार्थक है।
ढोंगी संत स्वार्थ पूर्ति का लेन-देन करते हैं। इनका जीवन साधना का क्षेत्र नहीं, अपितु जूए का खेल है। साधु वेशधारी इन लोगों ने वेश-भूषा की मर्यादा भंग होने के भय को भी त्याग दिया है और ये तथाकथित साधु विलासिता का जीवन जी रहे हैं।
साधु की प्रवृत्ति तो बड़ी गहन है, वे अहं को मारकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। मानव लोक में जीवित रहते हुए भी बैकुंठ में टहलने का आत्मानंद लेते हैं और मानव लोक में ही ये स्वर्गोचित सत्य का व्यवहार करते हैं।
मानव तन का अमूल्य रत्न जो ईश्वर को अर्पित कर देते हैं, ऐसे ज्ञानी जन तैंतीस करोड़ मुक्त जीवात्माओं के साथ हो जाते हैं अर्थात् ज्ञान मार्ग से मोक्ष प्राप्ति करते हैं।
कलियुग में भी धर्म की ध्वजा फहराती रहेगी और संतों का तेज प्रकाशित रहेगा अर्थात् इंद्र के अखाड़े में भी इनकी महिमा गायी जाती रहेगी। ऐसे संत स्वयं कालातीत हैं जिन्होंने अपने मानव तन को संतोचित गुणों से सुशोभित किया है वे सदैव ज्ञानामृत की वृष्टि करते रहेंगे।
योग-साधक मूलाधार से योग-साधना प्रारंभ करते हैं और गगन मंडल तक पहुँचकर सिद्धि प्राप्त करते हैं। ऐसी सिद्धि प्राप्त करके योगी अथाह की थाह लेते हैं और उस परब्रह्म के मंत्र मोती चुनते हैं।
मानव शरीर में ईश्वर का दुर्लभ दान संगृहीत है जिसे योगी अपने तन में पचा लेते हैं। जो समर्थ होते हुए भी अपनी समर्थता का दुरुपयोग नहीं करते और सदाचार का निर्वाह करते हैं, तब इनकी सकल-साध पूर्ण होती है।
द्वैत भाव से तो देव पूजा संभव है, द्वैत भाव से विष्णु के अवतारों की पूजा भी संभव है अर्थात् सगुण साकार की पूजा हो सकती है परंतु निर्गुण-निराकार की पूजा नहीं हो सकती। निर्मल संत एक भाव से परब्रह्म की उपासना करते हैं, अद्वैत भाव ही अगम-अगोचर की उपासना का आधार है।
अद्वैतवादी साधु के घर में निर्गुणोपासना की भक्ति सदैव अविचल रहती है। इस अविचल उपासना का साम्राज्य सुरपति इंद्र के दरबार तक है। स्वयं शिव-शक्ति, विष्णु-लक्ष्मी और ब्रह्मा-सावित्री भी आत्म-तत्त्व प्राप्ति की आशा रखते हैं।
जीवात्मा यदि सत्व गुण युक्त है तो सद्गति को प्राप्त होती है और यदि रजोगुण युक्त है तो नर्क में पड़ती है। यदि तमोगुण युक्त है तो महान् हानि होती है अर्थात् कीट-पतंग आदि योनि मिलती है। अतः सद्कर्म करो जिससे कि सब कष्टों का निवारण हो जाए।
इस प्रकार अगम-अगोचर परब्रह्म का विचार अद्वितीय है, जिसकी साधना साधुजन और अवतारी पुरुष भी करते हैं। अजमालजी के पुत्र रामदेव कहते हैं कि सच्चे साधक को ही ऐसे परम-तत्त्व का बोध हो सकता है।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 64)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.