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सूर्यमल्ल मिश्रण

1815 - 1868 | बूंदी, राजस्थान

हाडा नरेश राव रामसिंह के दरबारी कवि। बूँदी राज्य के इतिहास ग्रंथ ‘वंश भास्कर’ से ख्याति प्राप्त।

हाडा नरेश राव रामसिंह के दरबारी कवि। बूँदी राज्य के इतिहास ग्रंथ ‘वंश भास्कर’ से ख्याति प्राप्त।

सूर्यमल्ल मिश्रण के दोहे

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मतवालो जोबन सदा, तूझ जमाई माय।

पड़िया थण पहली पड़ै, बूढ़ी धण सुहाय॥

हे माता! तुम्हारा दामाद सदा यौवन में मस्त हैं। उन्हें पत्नी का वृद्धत्व नहीं सुहाता। इसलिए पत्नी के स्तन ढीले पड़ने के पहले ही वे अपना देहपात कर डालेंगे। अर्थात्

प्रेम और शौर्य दोनों का एक साथ निर्वाह वीरों का आदर्श रहा है।

कंत घरे किम आविया, तेहां रौ घण त्रास।

लहँगे मूझ लुकीजियै, बैरी रौ विसास॥

कायर पति के प्रति वीरांगना की व्यंग्यात्मक उक्ति है—हे पति-देव! घर कैसे पधार

आए? क्या तलवारों का बहुत डर लगा? ठीक तो है। आइए, मेरे लहँगे में छिप

धव जीवे भव खोवियौ, मो मन मरियौ आज।

मोनूं ओछै कंचुवै, हाथ दिखातां लाज॥

हे पति! तुमने युद्ध में जीवित बचकर (अपनी कीर्ति को नष्ट करके) जन्म ही वृथा खो दिया। अतः मेरे मन का सारा उल्लास आज मर गया है। अब मुझे सुहाग-चिह्न ओछी कंचुकी में हाथ लगाते भी अर्थात् पहनने में भी लज्जा आती है। इस प्रकार के सौभाग्य से तो वैधव्य अच्छा!

हेली तिल तिल कंत रै, अंग बिलग्गा खाग।

हूँ बलिहारी नीमड़ै, दीधौ फेर सुहाग॥

नीम की प्रशंसा करती हुई एक वीरांगना कहती है—हे सखी! पति के शरीर पर तिल-तिल भर जगह पर भी तलवारों के घाव लगे थे परंतु मैं नीम वृक्ष पर बलिहारी हूँ कि उसके उपचार ने मुझे फिर सुहाग दे दिया।

खोयो मैं घर में अवट, कायर जंबुक काम।

सीहां केहा देसड़ा, जेथ रहै सो धाम॥

सिंहों के लिए कौनसा देश और कौनसा परदेश! वे जहाँ रहें, वहीं उनका घर हो जाता है। किंतु खेद है कि मैंने तो घर पर रहकर ही सियार के से कायरोचित कामों में अपनी पूरी उम्र बिता दी।

कंत सुपेती देखतां, अब की जीवण आस।

मो थण रहणै हाथ हूँ, घातै मुंहड़ै घास॥

हे कंत! बालों की सफ़ेदी देखते हुए अब और जीने की कितनी आशा है कि मेरे स्तनों पर रहने वाले हाथों से शत्रु के सामने आप मुँह में तिनका ले लेते हैं! अर्थात् आप जैसे वृद्ध को जीवन के प्रति मोह दिखाकर मुझ जैसी वीरांगना को लज्जित नहीं करना चाहिए।

डाकी ठाकर सहण कर, डाकण दीठ चलाय।

मायड़ खाय दिखाय थण, धण पण वलय बताय॥

प्रतापी स्वामी जब अपने सेवकों के अपराध पर भी मौन धारण कर लेता है तब उन अपराधी सेवकों का मरण हो जाता है मानो उनके अपराध को सहन करके समर्थ स्वामी अपने मौन द्वारा उनको खा जाता है। जिस प्रकार डाकिन अपने भक्ष्य को नज़र से खा जाती है (लोगों में विश्वास है कि डाकिन की नज़र लगने पर आदमी मर जाता है) उसी प्रकार युद्ध से लौटे हुए कायर पुत्र को माता जब अपने स्तनों की ओर इशारा करके कहती है कि तूने इनका दूध लजा दिया तो उस कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तो उस कायर पुत्र का मरण हो जाता है। इसी प्रकार जब स्त्री भी युद्ध से लौटे हुए अपने कायर पति को देखकर अपने चूड़े की तरफ़ इशारा करके कहती है कि तूने इस चूड़े को लजा दिया तब उस कायर पति का मरण हो जाता है। इस प्रकार के वीरोचित व्यवहार से माता अपने पुत्र को और पत्नी अपने पति को खा जाती है, उनमें कुछ भी बाक़ी नहीं छोड़ती।

लाऊं पै सिर लाज हूं, सदा कहाऊं दास।

गण ह्वै गाऊं तूझ गुण, पाऊंवीर प्रकास॥

हे गणपति! मैं आपके चरणों में लज्जा से अपना सिर झुकता हूँ क्योंकि मैं आपका सदा दास कहलाता हूँ। अतः मैं आप का गण होकर आपका गुण-गान करता हूँ जिससे मुझे वीर रस का प्रकाश मिले। अर्थात् मैं दासत्व की भावना का उन्मूलन करके अपनी इस कृति में वीर रस का मूर्तिमान स्वरूप खड़ा कर सकूँ।

समली और निसंक भख, अबंक राह जाह।

पण धण रौ किम पेखही, नयण बिणट्ठा नाह॥

हे चील! और दूसरे अंगों को तो तू भले ही निःसंकोच खा किंतु नेत्रों की तरफ़ मत जा। क्योंकि यदि तू प्राणनाथ को नेत्र-विहीन कर देगी तो वे अपनी पत्नी का सती होने का प्रणपालन कैसे देखेंगे।

थाल बजंता हे सखी, दीठौ नैण फुलाय।

बाजां रै सिर चेतनौ, भ्रूणां कवण सिखाय॥

नवजात शिशु के लिए माता अपनी सखी से कहती है कि प्रसूतिकाल के समय ही बजते हुए थाल को इसने आँखें फुला-फुला कर देखा। हे सखी! बाजा सुनते ही उल्लसित हो जाना गर्भ में ही इन्हें कौन सिखाता है? अर्थात् शूर-वीर के लिए उत्साह और स्फूर्ति जन्मजात होती है।

सहणी सबरी हूं सखी, दो उर उलटी दाह।

दूध लजाणै पूत सम, बलय लजाणौ नाह॥

हे सखी! और सब बातें मुझे सहन हो जाती हैं किंतु यदि प्राणनाथ मेरी चूड़ियों को लजा दें और पुत्र मेरे दूध को, तो ये दो बातें मेरे लिए समान रूप से दाहकारी एवं हृदय को उलट देने वाली हैं—असह्य हैं।

मणिहारी जा रही सखी, अब हवेली आव।

पीव मुवा घर आविया, विधवां किसा बणाव॥

हे सखी मनिहारिन! चली जा; फिर इस घर पर आना। पति मरे हुए घर गए हैं (युद्ध से भागकर आना मरण समान है); फिर मुझ जैसी विधवाओं के लिए शृंगार कैसा?

कंत लखीजै दोहि कुल, नथी फिरंती छाँह।

मुड़ियां मिलसी गींदवौ, वले धणरी बाँह॥

हे पति! अपने दोनों कुलों पर दृष्टि रखना, कि इस जीवन पर जो ढलती फिरती छाया के समान है। यदि आप युद्ध से पीठ दिखाकर आए तो सिरहाने के लिए तकिया भले ही मिल जाए, प्रियतमा की भुजाएँ तो फिर मिलने की नहीं।

कंत भलाँ घर आविया, पहरीजै मो बेस।

अब धण लाजी चूड़ियाँ, भव दूजै भेटेस॥

हे कंत! आप घर पधार आए हैं तो अच्छी बात है! मेरे वस्त्र पहन लीजिए। आपकी पत्नी तो इन चूड़ियों से लज्जित हो रही है। उससे तो दूसरे जन्म में ही भेंट हो सकेगी अर्थात् जीते जी अपना मिलन नहीं होगा।

हथलेवै ही मूठ किण, हाथ विलग्गा माय।

लाखां बातां हेकलो चूड़ौ मो लजाय॥

पाणिग्रहण के अवसर पर पति की हथेली के तलवार की मूठ के निशानों का मेरे हाथ से स्पर्श हुआ जिससे हे माता! मैं जान गईं कि चाहे कुछ भी हो जाए युद्ध में अकेले होने पर भी वे मेरे चूड़े को कभी लजाएँगे। अर्थात् या तो युद्ध में विजयी होकर लौटेंगे अथवा वीरगति प्राप्त करेंगे।

भोला की डर भागियौ, अंत पहुड़ै ऐण।

बीजी दीठां कुल बहू, नीचा करसी नैण॥

रे मुर्ख। किस डर से तू भाग आया? क्या मृत्यु घर पर नहीं आएगी? (मृत्यु निश्चित है, चाहे वह युद्धक्षेत्र में हो चाहे घर पर) दूसरी बात यह है कि तेरे कारण वह बेचारी कुल-वधू शर्म से नीची आँखें करेगी कि उसे ऐसा कायर पति मिला।

सूतो देवर सेज रण, प्रसव अठी मो पूत।

थे घर बाभी बाँट थण, पालौ उभय प्रसूत॥

देवरानी अपनी जेठानी से कहती है कि हे भावज! इधर तो मेरे पुत्र उत्पन्न हुआ है और उधर आपके देवर रणशय्या पर सो गए हैं। अब यही उचित है कि आप अपना एक-एक स्तन मेरे आपके शिशु में बाँट कर दोनों को पालें; मैं सती होऊँगी।

जे खल भग्गा तो सखी, मोताहल सज थाल।

निज भग्गा तो नाह रौ, साथ सुनो टाल॥

हे सखी! यदि शत्रु भाग गए हों तो मोतियों से थाल सजा ला (जिससे प्राणनाथ की आरती उतारूँगी) और यदि अपने ही लोग भाग चले हों तो पति का साथ मत बिछुड़ने दे अर्थात् मेरे शीघ्र सती होने की तैयारी कर।

रण पाखै दुमनौ रहै, लाज नैण समाय।

पग लंगर पाछा दियण, सौ बानैत कहाय॥

सच्चा धनुर्धर वह कहलाता है जो रण के बिना उद्विग्न रहता है और जिसको युद्ध का अवसर मिलने के कारण निठल्लेपन पर इतनी लज्जा आती है कि उसकी आँखें शर्म के मारे नीची हो जाती है। रणक्षेत्र में पीछे हटने के दृढ़ निश्चय से जो पाँवों में लंगर डाल लेता है, वही सच्चा वीर कहलाता है।

दमँगल बिण अपचौ दियण, बीर धणी रौ धान।

जीवण धण बाल्हा जिकां, छोड़ौ जहर समान॥

वीर स्वामी का अन्न युद्ध के बिना नहीं पचा करता। अतः जिन्हें जीवन और स्त्री प्रिय हैं वे उस अन्न को जहर के समान समझकर छोड़ दें।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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