Font by Mehr Nastaliq Web
noImage

सुधाकर द्विवेदी

1860 - 1910 | बनारस, उत्तर प्रदेश

मूलतः गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य। हिंदी भाषा और नागरी लिपि के प्रबल पक्षधर। 'नागरी प्रचारिणी सभा' के सभापति भी रहे।

मूलतः गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य। हिंदी भाषा और नागरी लिपि के प्रबल पक्षधर। 'नागरी प्रचारिणी सभा' के सभापति भी रहे।

सुधाकर द्विवेदी के दोहे

4
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

बिन गुन जड़ कुछ देत हैं, जैसे ताल तलाब।

भूप कूप की एक गति, बिनु गुन बूँद पाव॥

सिद्ध भये तो क्या भया, किये जग उपकार।

जड़ कपास उनसे भला, परदा राखनहार॥

मत झगरन महँ मत परहु, इन महँ तनिक सार।

नर हरि करि खर घोर वर, सब सिरजो करतार॥

सहजहि जौ सिखयो चहहु, भाइहि बहु गुन भाय।

तौ निज भाषा मैं लिखहु, सकल ग्रंथ हरखाय॥

बाना पहिरे बड़न का, करै नीच का काम।

ऐसे ठग को मिलै, निरकहु में कहुँ ठाम॥

सबही को यह जगत महँ, सिरज्यौ बिधिना एक।

सब महँ गुन अबगुन भरे, को बड़ छोट विवेक॥

मतवालन देखन चला, घर ते सब दुख खोय।

लखि इनकी विपरीत गति, दिया सुधाकर रोय॥

का ब्राह्मन का डोम भर, का जैनी क्रिस्तान।

सत्य बात पर जो रहै, सोई जगत महान॥

सौ गुन ऊपर मैं चलउँ, बात बनाइ-बनाइ।

कैसे रीझे पियरवा, जानि मोहि हरजाइ॥

अपनी राह छाँड़िये, जौ चाहहु कुसलात।

बड़ी प्रबल रेलहु गिरत, और राह में जात॥

आगि पानि दोऊ मिले, जान चलाबत जान।

बिना जान सब जन लिये, राजत लखहु सुजान॥

समरथ चाहै सो करै, वडो खरो लघु खोट।

नोहर मोहर से बढ़ी, लघु काग़ज़ की लोट॥

अब कविता को समय नहिं, निरखहु आँख उघारि।

मिलि-मिलि कर सीखो कला, आपन भला विचारि॥

काज पड़े सबही बड़ा, बिना काज सब छोट।

पाई हेतु भँजावते, रुपया मोहर लोट॥

भाषा चाहै होय जो, गुन गन हैं जा माहिँ।

ताहीं सो उपकार जग, सबै सराहहिं ताहि॥

देखत-देखत रात-दिन, गुनि जन को नहिं मान।

रेल छाँड़ि अब चहत हैं, उड़न लोग असमान॥

  • संबंधित विषय : रेल

बातन में सब सिद्धि है, बातन में सब योग।

ये मतवाले होय गए, मतवाले सब लोग॥

राजा चाहत देन सुख, पर परजा मतिहीन।

पर जामत ही चहत हैं, भूमि करन पग तीन॥

जहाँ तार की गति नहीं, अजन हूँ बेकाम।

तहाँ पियरवा रमि रहा, कौन मिलावै राम॥

धन दे फिर लेवैं नहीं, जगत-सेठ ते आहिँ।

विद्या-धन देइ लेहिं नहिं, सो गुन पंडित माहिँ॥

अरनी की करनी गई, चकमक चकनाचूर।

घर-घर गंधक गंध में, आगि रहति भरपूर॥

छपि-छपि कर परकास में, लुप्त रहे जे ग्रंथ।

पढि-पढ़ि के पंडित भए, बने नये बहु पंथ॥

गुन लखि सब कोइ आदरै, गारी धक्का खाय।

कौन पिटाई डुगडुगी, रेल चढ़हु हे भाय॥

बाप चलाई एक मत, बेटा सहस करोर।

भारत को गारत किये, मतवाले बरज़ोर॥

एहि सुराज महँ एकरस, पीअत बकरी बाघ।

छन महँ दौरत बीजुरी, सागर हू को लाँघ॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए