सुधाकर द्विवेदी के दोहे
बिन गुन जड़ कुछ देत हैं, जैसे ताल तलाब।
भूप कूप की एक गति, बिनु गुन बूँद न पाव॥
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सिद्ध भये तो क्या भया, किये न जग उपकार।
जड़ कपास उनसे भला, परदा राखनहार॥
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मत झगरन महँ मत परहु, इन महँ तनिक न सार।
नर हरि करि खर घोर वर, सब सिरजो करतार॥
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सहजहि जौ सिखयो चहहु, भाइहि बहु गुन भाय।
तौ निज भाषा मैं लिखहु, सकल ग्रंथ हरखाय॥
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बाना पहिरे बड़न का, करै नीच का काम।
ऐसे ठग को न मिलै, निरकहु में कहुँ ठाम॥
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सबही को यह जगत महँ, सिरज्यौ बिधिना एक।
सब महँ गुन अबगुन भरे, को बड़ छोट विवेक॥
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मतवालन देखन चला, घर ते सब दुख खोय।
लखि इनकी विपरीत गति, दिया सुधाकर रोय॥
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का ब्राह्मन का डोम भर, का जैनी क्रिस्तान।
सत्य बात पर जो रहै, सोई जगत महान॥
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सौ गुन ऊपर मैं चलउँ, बात बनाइ-बनाइ।
कैसे रीझे पियरवा, जानि मोहि हरजाइ॥
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अपनी राह न छाँड़िये, जौ चाहहु कुसलात।
बड़ी प्रबल रेलहु गिरत, और राह में जात॥
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आगि पानि दोऊ मिले, जान चलाबत जान।
बिना जान सब जन लिये, राजत लखहु सुजान॥
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समरथ चाहै सो करै, वडो खरो लघु खोट।
नोहर मोहर से बढ़ी, लघु काग़ज़ की लोट॥
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अब कविता को समय नहिं, निरखहु आँख उघारि।
मिलि-मिलि कर सीखो कला, आपन भला विचारि॥
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काज पड़े सबही बड़ा, बिना काज सब छोट।
पाई हेतु भँजावते, रुपया मोहर लोट॥
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भाषा चाहै होय जो, गुन गन हैं जा माहिँ।
ताहीं सो उपकार जग, सबै सराहहिं ताहि॥
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देखत-देखत रात-दिन, गुनि जन को नहिं मान।
रेल छाँड़ि अब चहत हैं, उड़न लोग असमान॥
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बातन में सब सिद्धि है, बातन में सब योग।
ये मतवाले होय गए, मतवाले सब लोग॥
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राजा चाहत देन सुख, पर परजा मतिहीन।
पर जामत ही चहत हैं, भूमि करन पग तीन॥
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जहाँ तार की गति नहीं, अजन हूँ बेकाम।
तहाँ पियरवा रमि रहा, कौन मिलावै राम॥
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धन दे फिर लेवैं नहीं, जगत-सेठ ते आहिँ।
विद्या-धन देइ लेहिं नहिं, सो गुन पंडित माहिँ॥
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अरनी की करनी गई, चकमक चकनाचूर।
घर-घर गंधक गंध में, आगि रहति भरपूर॥
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छपि-छपि कर परकास में, लुप्त रहे जे ग्रंथ।
पढि-पढ़ि के पंडित भए, बने नये बहु पंथ॥
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गुन लखि सब कोइ आदरै, गारी धक्का खाय।
कौन पिटाई डुगडुगी, रेल चढ़हु हे भाय॥
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बाप चलाई एक मत, बेटा सहस करोर।
भारत को गारत किये, मतवाले बरज़ोर॥
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एहि सुराज महँ एकरस, पीअत बकरी बाघ।
छन महँ दौरत बीजुरी, सागर हू को लाँघ॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere