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सत्यनारायण कविरत्न

1879 - 1918 | अलीगढ़, उत्तर प्रदेश

भारतेंदु युग के कवि। ब्रजभाषा काव्य-परंपरा के अंतिम कवियों में से एक।

भारतेंदु युग के कवि। ब्रजभाषा काव्य-परंपरा के अंतिम कवियों में से एक।

सत्यनारायण कविरत्न के दोहे

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चित चिंता तजि, डारिकैं, भार, जगत के नेम।

रे मन, स्यामा-स्याम की, सरन गहौ करि प्रेम॥

मकराकृत कुंडल स्रवन, पीतवरन तन ईस।

सहित राधिका मो हृदय, बास करो गोपीस॥

पीतपटी लपटाय कैं, लैं लकुटी अभिराम।

बसहु मंद मुसिक्याय उर, सगुन-रूप घनस्याम॥

श्रीराधा वृषभानुजा, कृष्ण-प्रिया हरि-सक्ति।

देहु अचल निज पदन की, परमपावनी भक्ति॥

सजल सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।

जासों ब्रजभाषा-लता, हरी-भरी लहराय॥

करम-धरम नितनेम कौ, सब निधि देख्यौ तार।

पै असार संसार में, एक प्रेम ही सार॥

श्रीराधापति माधव, श्रीसीतापति धीर।

मत्स्य आदि अवतार नित, नमौ हरहु-भवपीर॥

क्यों पीवहिं मो चरन-रस, मुनि पीयूष बिहाय।

यह जानन बालक हरी, चूसत स्वपद अघाय॥

रेवति-प्रिय, मूसलहली, बली सिरी बलराम।

बंदौ जग व्यापक सकल, कृष्णाग्रज सुखधाम॥

वह मुरली अधरान की, वह चितवन की कोर।

सघन कुञ्ज की वह छटा, अरु वह जमुन-हिंलोर॥

चंद्रकमल कौ जगत में, अनुचित बैर कहात।

यासों हरि निजपद कमल, विधु-मुख हेत लखात॥

भव-बाधा गाधा-हरन, राधा राधापीय।

दुखदारिद, दरि विस्तरहु, मंगल मेरे हीय॥

आवौ, बैठो हँसो प्रिय, जातें बढ़ै उछाह।

हम पागल प्रेमीन कों, और चाहिए काह॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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