रत्नावली के दोहे
जो जाको करतब सहज, रतन करि सकै सोय।
वावा उचरत ओंठ सों, हा हा गल सों होय॥
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रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले न सौउ कपूत।
बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥
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रतन दैवबस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।
सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात॥
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उर सनेह कोमल अमल, ऊपर लगें कठोर।
नरियर सम रतनावली, दीसहिं सज्जन थोर॥
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कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।
रतन एक ही चँद जिमि, करत जगत उजियारि॥
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रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार।
लहहिं न बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥
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स्वजन सषी सों जनि करहु, कबहूँ ऋन ब्यौहार।
ऋन सों प्रीति प्रतीत तिय, रतन होति सब छार॥
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तरुनाई धन देह बल, बहु दोषुन आगार।
बिनु बिबेक रतनावली, पसु सम करत विचार॥
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भूषन रतन अनेक नग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥
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धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग।
भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥
मुझे धिक्कार है, मेरे वचन लग जाने के ही कारण मेरे पति मेरे प्रति अनासक्त हो गए। इस प्रकार अपनी करनी से ही मैं वियोगिनी बनकर काक उड़ाती रहती हूँ।
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परहित जीवन जासु जग, रतन सफल है सोइ।
निज हित कूकर काक कपि, जीवहिं का फल होइ॥
जगत् में उसी का जीवित रहना सफल है, जिसका जीवन परोपकार के लिए होता है। अपने लिए तो कुत्ता कौआ और बंदर भी जीते हैं। ऐसे जीवन से क्या लाभ?
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हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरनन दासी जानि निज, वेगि भोरि सुधि लेउ॥
हे प्राणनाथ! मैं अपराधिनी नहीं हूँ। यदि आपकी दृष्टि में अपराधिनी हूँ, तो भी मुझे क्षमा कर दीजिए। अपने चरणों की दासी (अपनी भार्या) समझकर त्वरित ही मेरी सुध लीजिए।
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जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात।
रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥
कभी तो रज्जु सर्प सी मालूम पड़ती है। कभी सर्प रज्जु जैसा भासित होता है, कभी रज्जु, रज्जु और सर्प जैसा ही ज्ञात होता है। यह सब समय की बात है।
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सबहिं तीरथनु रमि रह्यौ, राम अनेकन रूप।
जहीं नाथ आऔ चले, ध्याऔ त्रिभुवन भूप॥
सभी तीर्थो में अनेक रूपों में राम रमण कर रहे हैं। हे नाथ! यहीं आ जाइए और त्रिभुवन भूप का यहीं ध्यान कीजिए।
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छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय।
बुरी भली हों आपकी, तजउ न लेउ निभाय॥
मुझ अपराधिनी के सारे अपराधों को आप छमा कीजिए। मैं बुरी हूँ या भली हूँ, जैसी भी हूँ आपकी हूँ, अतः मेरा त्याग न कीजिए और मुझे निभा लीजिए।
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सनक सनातन कुल सुकुल, गेह भयो पिय स्याम।
रत्नावली आभा गई, तुम बिन बन सैम ग्राम॥
हे प्रिय! सनक ऋषि का सुकुल कुल अब श्याम हो गया है। मुझ रत्नावली की भी सभी प्रकार की कांति आपके बिना चली गई है और उसके लिए ग्राम भी, हे कांत! आपके बिना कांतार सम हो गया है।
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जदपि गए घर सों निकरे, मो मन निकरे नाहिं।
मन सों निकरों ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं॥
हे नाथ! यद्यपि आप गृह से निकल गए हैं, तथापि मेरे मन-मंदिर से नहीं निकले हैं। हे देव! मन से तो आप उसी दिन निकलेंगे, जिस दिन मेरे प्राण नाश को प्राप्त होंगे।
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दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह।
तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥
मैं दीनबंधु पिता के घर में पली और दीनबंधु (दिनों के बंधु पूज्य पति तुलसी) के कर कमलों का आश्रय रहा। फिर भी मैं अत्यंत संतप्त हो गई क्योंकि पति (श्री तुलसीदास जी) ने मेरी बाँह छोड़ दी।
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सदन भेद तन धन रतन, सुरति सुभेषज अन्न।
दान धरम उपकार तिमी, राखि वधू परछन्न॥
हे बहू, तू अपनी इन बातों को गुप्त रख। घर का भेद, शरीर, धन, पतिसंगविहार, औषध, भोजन सामग्री, दान, पुण्य कार्य और परोपकार।
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सुवरन मय रतनावलि, मनि मुक्ता हारादि।
एक लाज विनु नारि कहँ, सब भूषण जग बादि॥
स्वर्णयुक्त मणि मुक्तादि के हारादि भी स्त्री के लिए तब तक व्यर्थ हैं जब तक उसमें एकमात्र लज्जा का, शील का भूषण नहीं है।
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पति पद सेवा सों रहित, रतन पादुका सेई।
गिरत नाव सों रज्जु तिही, सरित पार करि देइ॥
यदि तू पति की सेवा से वंचित है तो उनकी खड़ाऊँ की सेवा कर। नाव से गिरा हुआ आदमी नाव की रस्सी को पकड़ लेता है तो वह रस्सी भी उसे पार कर देती है।
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पति सनमुख हँसमुख रहित, कुसल सकल ग्रह काज।
रतनावलि पति सुखद तिय, धरति जुगल कुल लाज॥
जो स्त्री पति के सामने सदा हँसमुख रहती है घर के सभी कामों में चतुर होती है, वह पति को सुख देने वाली तथा (पति-पितु-कुल) दोनों कुलों की लज्जा रखने वाली होती है।
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करमचारि जन सों भली, जथा काज बतरानि।
बहु बतानि रतनावलि, गुनि अकाज की खानि॥
नौकरों से आवश्कतानुसार ही वार्तालाप करने में भलाई है, इनसे बहुत बोलना बुराई की खान समझना चाहिए।
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उदय भाग रवि मीत कहु, छाया बड़ी लखाति।
अस्त भए निज मीत कहँ, तनु छाया तजि जाति॥
भाग्यरूपी भास्कर के उदय होते ही मित्र अधिक हो जाते हैं और छाया लंबाई से बड़ी लगती है और भाग्य के अस्त होते ही न मित्र दिखाई देते हैं, न छाया दिखाई देती है यथा सूर्यास्त पर छाया भी साथ छोड़ जाती है।
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विपति परै जे जन रतन, करहिं विपति में नेह।
सुख संपति लखि जन बहुत, बनें नेह के गेह॥
आपत्ति पड़ने पर जो लोग पुराने प्रेम का निर्वाह करते हैं, वे ही हितकारी हैं। सद्भाव को देखकर तो अनेक व्यक्ति प्रेम प्रकट करने लगते हैं।
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भीतर बाहर एक से, हितकर मधुर सुहाय।
रत्नावलि फल दाख से, जन कहूँ कोउ लखाय॥
अंगूर की तरह का मनुष्य तो कोई बिरला ही दिखाई देते हैं, जो भीतर-बाहर एक-से मधुर होते हैं।
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सुबरन पिय संग हों लसी, रत्नावलि सम काँचु।
तिही बिछुरत रत्नावलि, रही काँचु अब साँचु॥
मैं रत्नावली कांच के समान होते हुए भी पति के साथ स्वर्ण के समान शोभाशाली थी, किंतु उनके वियोग होने पर तो अब मैं कांच ही रह गई।
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तिय जीवन ते मन सरिस, तौलों कछुक रुचै न।
पिय सनेह रस राम रस, जौ लौ रतन मिलै न॥
स्त्री का जीवन शाक के समान है, जब तक उसमें पति प्रेम रूपी नमक नहीं मिलता, तब तक वह अच्छा नहीं लगता है।
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एकु-एकु आखरु लिखे, पोथी पूरति होइ।
नेकु धरम तिमी नित करो, रत्नावलि गति होइ॥
जिस प्रकार एक-एक अक्षर लिखने से पुस्तक पूर्ण हो जाती है, उसी प्रकार नित्यप्रति थोड़ा-थोड़ा धर्म करने से भी सद्गति का लाभ होता है।
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पति पितु जननी बंधु हित, कुटुम परोसि विचारि।
जथा जोग आदर करे, सो कुलवंती नारि॥
वही स्त्री कुलीन होती है जो पति, पिता, माता, कुटुंब और पड़ोसी का विचारपूर्वक आदर करती है।
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पति के जीवन निधन हू, पति अनिरुचत काम।
करति न सो जग जस लहति, पावति गति अभिराम॥
पति के जीवन काल में या मृत्यु के उपरांत जो स्त्री उनकी इच्छा के प्रतिकूल काम नहीं करती है, वही संसार में यश और सुंदर गति को प्राप्त करती है।
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भल चाहत रत्नावलि, विधि बस अन भल होइ।
हों पिय प्रेम बढ्यौ चह्यौ, दयो मूल ते खोइ॥
मानव अपना भला चाहता है परंतु विधि की परवशता से बुरा हो जाता है। मैं अपने ऊपर अपने पति (तुलसीदास) का प्रेम बढ़ा हुआ देखना चाहती थी किंतु उसे जड़ सहित ही उखाड़ कर नष्ट कर दिया।
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जो तिय संतति लोभ बस, करति अपन नर भोग।
रतनावलि नरकहि परति, जग निदरत सब लोग॥
जो स्त्री संतान की कामना से पराए पुरुष से संपर्क करती है, वह नरक में पड़ती है और सब लोग उसकी निंदा करते हैं।
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जे निज जे पर भेद इमि, लघु जन करत विचार।
चरित उदारन को रतन, सकल जगत परिवार॥
यह अपना है, यह पराया है। इस प्रकार का विचार तुच्छ व्यक्ति करते हैं, उदार चरित वाले तो सारी पृथ्वी को ही अपना कुटुंब समझते हैं।
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बन बाधिनी आमिष भकति, भूखी घास न खाइ।
रतन सती तिमी दुःख सहति, सुख हित अघ न कमाइ॥
व्याघ्री वन में मांस खाती है। वह भूख से व्याकुल होकर भी घास नहीं खाती। इसी प्रकार पतिव्रता स्त्री दुःख सह लेती है किंतु सुख के लिए पाप का संग्रह नहीं करती है।
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घर-घर घुमनि नारि सों, रत्नावलि मति बोलि।
इनसे प्रीति न जोरि बहु, जनि गृह भेद नु खोलि॥
घर-घर घुमने वाली स्त्री से थोड़ा बोलो, ऐसी स्त्रियों से मैत्री मत करो और अपने घर की गुप्त बातों को मत बताओ।
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सात पैग जा संग भरे, ता संग कीजै प्रीति।
सब विधि ताहि निबाहिये, रतन वेद की रीति॥
जिसके साथ सात पग चली थीं, उस पति के साथ प्रेम करो। इस वेद की रीति का भली प्रकार निर्वाह करना चाहिए।
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उदार पाक करपाक तिय, रतनावलि गुन दोय।
सील सनेह समेत तौ, सुरभित सुबरन होय॥
जो स्त्री उत्तम संतति की जन्मदात्री होने के साथ ही उत्तम रसोई में निपुण और शील स्नेह से युक्त है, वह स्वर्ण में सुगंध जैसे योगवाली होती है।
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रतन न पर दूषन उगटि, आपन दोष निवारि।
तोहि लखें निर्दोष वे, दें निज दोष विसारि॥
तू औरों के दोषों का उद्घाटन मत कर। केवल अपने दोषों का निराकरण कर, वे जब तुझे निर्दोष देखेंगे तो अपने दोषों का परित्याग कर देंगे।
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विपति कसौटी पै विमल, जासु चरित दुति होय।
जगत सराहन जोग तिय, रतन सती है सोय॥
जिसके चरित्र की कांति विपत्ति रूपी कसौटी पर निर्मल उतरती है, जगत् के सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं वह सती पतिव्रता है।
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बालहि सिख सिखाए अस, लखि-लखि लोग सिहाय।
आसिष दें हर्षें रतन, नेह करें पुलकाय॥
बच्चों को ऐसी शिक्षा दो कि लोग उसे देखकर सराहें, प्रसन्न हों, आशीर्वाद दें और रोमांचित होकर स्नहे करें।
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रत्नावलि पति राग रंगि, दै विराग में आगि।
उमा रमा बड़ भगिनी, नित पति पद अनुरागि॥
तू पति के प्रेम- रंग में रंग और वैराग्य में आग लगा दे। भगवती पार्वती और लक्ष्मी भी पति चरणों के प्रेम में रंग कर ही बड़ी भाग्यशालिनी कहलाती हैं।
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मात पिता सासु ससुर, ननद नाथ कटु बैन।
भेषज सैम रतनावलि, पचत करत तनु चैन॥
माता-पिता, सास-ससुर, ननद और पति के कटु वचन कड़वी औषधि के समान परिणाम में हितकारक होते हैं।
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रतन भाव भरि भूरि जिमि, कवि पद भरत समास।
तिमी उचरहु लघु पद करहि, अरथ गंभीर विकास॥
जिस प्रकार कवि लोग बहुत सा बहाव भर कर समास वाले पदों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार तुम भी छोटे-छोटे पदों का उच्चारण करके गंभीर अर्थ का विकास करो।
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करहु दुखी जनि काहु को, निदरहु काहु न कोय।
को जाने रत्नावली, आपनि का गति होय॥
कभी किसी को दुःखी मत करो और न किसी का निरादर करो, कौन जानता है कि अपनी क्या गति आगे होगी।
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धिक सो तिय पर पति भजति, कहि निदरत जग लोग।
बिगरत दोऊ लोक तिहि, पावति विधवा जोग॥
उस स्त्री की धिक्कार है जो दूसरे पति की सेवा करती है। संसार में सब लोग उसकी निंदा करते हैं, उसके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं और वैधव्य योग प्राप्त करती है।
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अनृत वचन माया रचन, रतनावलि बिसारी।
माया अनरित कारने, सति तजि त्रिपुरारि॥
झूठ बोलना और कपट करना छोड़ दो। भगवान ने इन दोनों कारणों से सति का परित्याग कर दिया था।
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हाय सहज ही हों कही, लह्यो बोध हिरदेस।
हों रत्नावली जँचि गई, पिय हिय काँच विसेस॥
मैंने अपनी बात स्वाभाविक ढंग से कही थी ,किंतु हृदयेश (तुलसीदास जी) ने इससे ज्ञान प्राप्त कर लिया। उस ज्ञान के प्रभाव से मैं उनके हृदय में काँच के समान प्रतीत हुई।
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पति सेवति रत्नावली, सकुची धरि मन लाज।
सकुच गई कछु पिय गए, सज्यो न सेवा साज॥
मैं मन में लज्जा करती हुई पति की सेवा संकोच से करती। जब कुछ संकोच दूर हुआ, तब मेरे पति (श्री तुलसीदास) चले गए इसलिए मेरा पति-सेवा का साज सज न सका।
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जे तिय पति हित आचरहिं, रहि पति चित अनुकूल।
लखहिं न सपनेहूँ पर पुरुष, ते तारहिं दोउ कूल॥
जो नारियों पति की भलाई करती हुई उनके अनुकूल आचरण करती हैं और स्वप्न में भी पर पुरुष को नहीं देखती हैं, वे पिता एवं पति के दोनों कुलों का उद्धार करती हैं।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere