मुंज के दोहे
एहु जम्मु नग्गहं गियउ भड-सिरि खग्गु न भग्गु।
तिक्खाँ तुरिय न माणिया गोरी गलि न लग्गु॥
वह जन्म व्यर्थ गया जिसने शत्रु के सिर पर खड्ग का वार नहीं किया, न तीखे घोड़े पर सवारी की और न गोरी को गले ही लगाया।
भोय एहु गलि कंठलउ, भण केहउ पडिहाइ।
उरि लच्छिहि मुहि सरसतिहि सीम निबद्धी काइ॥
धोज, कहो इसके गले में कंठा कैसा प्रतीत होता है! लगता है उर में लक्ष्मी और मुँह में सरस्वती की सीमा बाँध दी गई है।
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आपणपइ प्रभु होइयइ कइ प्रभु कीजइ हत्थि।
काजु करेवा माणुसह तीजउ मागु न अत्थि॥
या तो स्वयं ही प्रभु हों या प्रभु को अपने वश में करे। कार्य करने वाले मनुष्य के लिए तीसरा मार्ग नहीं है।
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महिवीढह सचराचरह जिणि सिरि, दिन्हा पाय।
तसु अत्थमणु दिखेसरह होउत होउ चिराय॥
सचराचर जगत के सिर पर जिस सूर्य ने अपने पैर (किरण) डाले उस दिनेश्वर का भी अस्त हो जाता है। होनी होकर रहती है।
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च्यारि बइल्ला धेनु दुइ, मिट्ठा बुल्ली नारि।
काहुँ मुंज कुडंवियाहँ गयवर बज्झइ वारि॥
जिसके घर चार बैल, दो गायें और मृदुलभाषिणी स्त्री हो, उस किसान को अपने घर पर हाथी बाँधने की क्या ज़रूरत है?
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सउ चित्तह सट्ठी मणह, बत्तीसडा हियांह।
अम्मी ते नर ढड्ढसी जे वीससइं तियांह॥
सौ चित्त, साठ मन और बत्तीस हृदयों वाली स्त्रियों पर जो मनुष्य विश्वास करते हैं वे दग्ध होते हैं।
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जा मति पच्छह सम्पज्जइ, सा मति पहिली होइ।
मुंज भणइ मुणालवइ, विघन न बेढइ कोइ॥
मुंज कहता है कि हे मृणालवती! जो बुद्धि बाद में उत्पन्न होती है, वह अगर पहले ही उत्पन्न हो जाय तो कोई विघ्न घेर नहीं सकता।
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चित्ति विसाउ न चिंतियइ, रयणायर गुण-पुंज।
जिम जिम बायइ विहिपडहु, तिम नचिज्जइ मुंज॥
हे गुणों के रत्नाकर मुंज! मन में इस प्रकार दुःख मत करो, क्योंकि जैसे विधाता का ढोल बजता है, मनुष्य को उसी प्रकार नाचना पड़ता है।
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सायरु पाई लंक गढ़, गढवई दसशिरु राउ।
भग्न षइ सो भंजि गउ, मुंज म करसि विसाउ॥
स्वयं सागर खाई था, लंका जैसा गढ़ था और गढ़ का मालिक दसानन रावण था फिर भी भाग्य क्षय होने पर भग्न हो गया। हे मुंज, दुःख मत करो।
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