मीतादास के दोहे
मुख ब्राह्मण कर क्षत्रिय, पेट वैश्य पग शुद्र।
इ अंग सबही जनन में, को ब्राह्मण को शुद्र॥
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सतगुरु बिनु रामै चहै, मुख में परिहै छारि।
कहै मीता तै नरक है, जे सतगुरु तै च्वारि॥
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माया मोह की फांसी कांटी, तोड़ी बाज जंजीर।
धनी मिला परिचय महं, मीता भये फकीर॥
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कोटि भानु छबि ना जुरै, तै देवन्ह के देव।
सो मीता पहचानिया, सतगुरु केरी सेव॥
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थिरे ते कांदी करे, ते नल मलिन बेकार।
मीता कबहु न बैठई, चरि विमखन के द्वार॥
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मन एकु सो फंस रहा, कोह नारि कोह दाम।
दूजा कहंवा माइये, जोन मिलावै राम॥
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बरन अठारह वहाँ नहीं, जहाँ सांचा दरबार।
मीता वहाँ सबुही ह्वै, झूठी कथै लबार॥
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साँचे ते तो हरि मिले, निंदक नर के जाई।
जन मीता सांची कहै, धोखा कुछी न आई॥
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मन मक्का का खोजकर, सहजै मिलै रफदाय।
कह मीता तज बदी का, अब ना गोता खाय॥
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मन हस्ती मा चढ़त है, करमन टट्टू होय।
नरक परै की विधि करै, मुकुति कहाँ ते होय॥
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चलनी दुहि दुधै चहै, कुमति लिये चह राम।
कलहनी नारि कुल छिनी, का करै पिया तन मान॥
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कहै मीता हरिदास की, सरनै पहुँचै कोय।
ब्रह्मा तिन्हे न पावह, पोथिन पढ़ै का होय॥
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नरक पंथ मां भीड़ बड़ी है, खाली कबहु ना होई।
कहै मीता संतन के मारग, देखा बिरला कोई॥
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पढ़ी विद्या पथरा भए, लखा नहीं तत ज्ञान।
कह मीता सुन पंडिता, नाहक करत गुमान॥
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चौदह पुर भवसागर, बसै ते दुखिया लोग।
मीता पहुँचा अगमपुर, सतगुरु दीन्हा जोग॥
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मीता मीठी भक्ति है, और नहीं जस मीठ।
जिनका साथी लख परै, जग लागै तेही फीक॥
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मीता पांचों सो लग, आध उरध के बीच।
प्रेम पियाला पीजिया, पद्म झलका सीख॥
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विद्या सबै अविद्या, बिन भेटै भगवान।
मीता विद्या सो पढ़ी, पुरुष मिला निरबान॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere