दयाबाई के दोहे
जो पग धरत सो दृढ़ धरत, पग पाछे नहिं देत।
अहंकार कूँ मार करि, राम रूप जस लेत॥
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कायर कँपै देख करि, साधू को संग्राम।
सीस उतारै भुइँ धरै, जब पावै निज ठाम॥
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आप मरन भय दूर करि, मारत रिपु को जाय।
महा मोह दल दलन करि, रहै सरूप समाय॥
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मनमोहन को ध्याइये, तन-मन करि ये प्रीत।
हरि तज जे जग में पगे, देखौ बड़ी अनीत॥
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'दया' दास हरि नाम लै, या जग में ये सार।
हरि भजते हरि ही भये, पायौ भेद अपार॥
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सूरा सन्मुख समर में, घायल होत निसंक।
यों साधू संसार में, जग के सहैं कलंक॥
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'दया' सुपन संसार में, ना पचि मरिये बीर।
बहुतक दिन बीते बृथा, अब भजिये रघुबीर॥
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अर्ध नाम के लेत ही, उधरे पतित अपार।
गज गनिका अरु गीध बहु, भये पार संसार॥
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असु गज अरु कंचन 'दया', जोरे लाख करोर।
हाथ झाड़ रीते गये, भयो काल को ज़ोर॥
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ब्रह्म रूप सागर सुधा, गहिरो अति गंभीर।
आनंद लहर सदा उठै, नहीं धरत मन धीर॥
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नित प्रति वंदन कीजिये, गुरु कूँ सीस नवाय।
दया सुखी कर देत है, हरि स्वरूप दर साय॥
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साधू सिंह समान है, गरजत अनुभव ज्ञान।
करम भरम सब भजि गये, 'दया' दुर्यो अज्ञान॥
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'दया' प्रेम उनमत जे, तन की तनि सुधि नाहिं।
झुके रहैं हरि रस छके, थके नेम ब्रत नाहिं॥
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कोटि लक्ष व्रत नेम तिथि, साध संग में होय।
विषम व्याधि सब मिटत है, शांति रूप सुख जोय॥
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भाई बंधु कुटुंब सब, भये इकट्ठे आय।
दिना पाँच को खेल है, 'दया' काल ग्रासि जाय॥
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राम टेक से टरत नहिं, आन भाव नहिं होत।
ऐसे साधु जनन की, दिन-दिन दूनी जोत॥
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जे जन हरि सुमिरन बिमुख, तासूँ मुखहुँ न बोल।
राम रूप में जे पगे, तासूँ अंतर खोल॥
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श्री गुरदेव दया करी, मैं पायो हरि नाम।
एक राम के नाम तें, होत संपूरन काम॥
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या जग में कोउ है नहीं, गुरु सम दीन दयाल।
मरना गत कू जानि कै, भले करै प्रति पाल॥
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चरनदास गुरुदेव ने, मो सूँ कह्यो उचार।
'दया' अहर निसि जपत रहु, सोहं सुमिरन सार॥
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जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।
बिनसि जाय छिन एक में, 'दया' प्रभू उर धार॥
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तात मात तुम्हरे गये, तुम भी भये तैयार।
आज काल्ह में तुम चलो, 'दया' होहु हुसियार॥
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राम कहो फिर राम कहु, राम नाम मुख गाव।
यह तन बिनस्यो जातु है, नाहिन आन उपाव॥
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कहूँ धरत पग परत कहुँ, डिगमिगात सब देह।
'दया' मगन हरि रूप में, दिन-दिन अधिक सनेह॥
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दया दान अरु दीनता, दीनानाथ दयाल।
हिरदै सीतल दृष्टि सम, निरखत करैं निहाल॥
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साध संग जग में बड़ो, जो करि जानै कोय।
आधो छिन सतसंग को, कलमष डारे खोय॥
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बंदौ श्री सुकदेव जी, सब बिधि करो सहाय।
हरो सकल जग आपदा, प्रेम-सुधा रस प्याय॥
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'दया कुँवर' या जक्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।
जैसो बास सराँय को, तैसो यह जग होय॥
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सतगुर सम कोउ है नहीं, या जग में दातार।
देत दान उपदेस सों, करैं जीव भव पार॥
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गुरु किरपा बिन होत नहिं, भक्ति भाव बिस्तार।
जोग जज्ञ जप-तप 'दया', केवल ब्रह्म बिचार॥
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जे गुरु कूँ वंदन करै, दया प्रीति के भाव।
आनंद मगन सदा रहै, निर विधि ताप नसाव॥
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बिरह ज्वाल उपजी हिये, राम-सनेही आय।
मन मोहन सोहन सरस, तुम देखन जा चाय॥
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प्रेम मगन जे साधवा, बिचरत रहत निसंक।
हरि रस के माते 'दया' गिनै राव ना रंक॥
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मनसा बाचा करि दया, गुरु चरनों चित लाव।
जग समुद्र के तरन कूँ, नाहिन आन उपाय॥
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प्रेम-पीर अतिही बिकल, कल न परत दिन रैन।
सुंदर स्याम सरूप बिन, 'दया' लहत नहिं चैन॥
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सोवत जागत हरि भजो, हरि हिरदे न बिसार।
डोरो गहि हरि नाम की, 'दया' न टूटै तार॥
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हँसि गावत रोवत उठत, गिरि-गिरि परत अधीर।
पै हरि रस चस को ‘दया’, सहै कठिन तन पीर॥
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बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय।
‘दया’ दया गुरदेव की, बिरला जानै कोय॥
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प्रेम-पुंज प्रगटै जहाँ, तहाँ प्रगट हरि होय।
‘दया’ दया करि देत है, श्री हरि दरशन सोय॥
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गुरु सबदन कूँ ग्रहण करि, बिषयन कूँ दे पीठ।
गोबिंद रूपी गदा गहि, मारो करमन डीठ॥
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सूरा वही सराहिये, बिन सिर ल़ड़त कवंद।
लोक-लाज कुल-कान कूँ, तोड़ि होत निर्बंद॥
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अर्ध-उर्ध मधि सुरति धरि, जपै जु अजपा जाप।
'दया' लहै निज धाम कूँ, छूटै सकल संताप॥
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जै जै परमानंद प्रभु, परम पुरुष अभिराम।
अंतरजामी कृपानिधि, 'दया' करत परनाम॥
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श्री गोबिंद के गुनन तेहिं, भनत रहौ दिन-रैन।
'दया' दया गुरदेव की, जासूँ होय सुबैन॥
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जहाँ जाय मन मिटत है, ऐसो तत्त सरूप।
अचरज देखि 'दया' करै, बंदन भाव अनूप॥
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चरनदास गुरुदेव जू, ब्रह्म-रूप सुख-धाम।
ताप-हरन सब सुख-करन, 'दया' करत परनाम॥
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साध साध सब कोउ कहै, दुर्लभ साधू सेव।
जब संगति है साध की, तब पावे सब भेव॥
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'दया' प्रेम प्रगट्यौ तिन्हैं, तन की तनि न संभार।
हरि रस में माते फिरैं, गृह बन कौन बिचार॥
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हरि भजते लागै नहीं, काल-व्याल दुख-झाल।
ता तें राम सँभालिये, 'दया' छोड़ जग-जाल॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere