यमुना इलाहाबाद में, संगम होती हुई
yamuna allahabad mein, sangam hoti hui
हरीशचंद्र पांडे
Harishchandra Pande
यमुना इलाहाबाद में, संगम होती हुई
yamuna allahabad mein, sangam hoti hui
Harishchandra Pande
हरीशचंद्र पांडे
और अधिकहरीशचंद्र पांडे
यमुना इलाहाबाद में
कभी-कभी मुझे यह साफ़ आसमान से काटी गई एक हल्की
नीली पट्टी लगती है
कभी-कभी दोआबी ज़मीन लिए साड़ी का किनारा
और कभी-कभी जमुना पार गाँव की जमुना देवी
जिसने औरत होने के क्रम में अपना पूर्व उपनाम गँवा दिया है
कभी-कभी मुझे लगता है यह सागर की बेटी है
यह प्रशांतता और गहराई इसने और कहाँ से पाई होगी
यह बात अलग है इसकी गहराई को लोग आत्महत्या के लिए
अधिक चुनते हैं
और शायद आत्महंताओं के अंतिम पलों की छटपटाहट का
सबसे बड़ा ज़खीरा इसी के सीने में होगा
कभी-कभी इच्छा होती है कह दूँ समुद्र से जाकर
कि वह अपनी समुद्रता वापस ले ले
पर तब उस उथलेपन में डूब जाता हूँ
जिसके रेतीले ढेर में माफ़िया बंदूक़ें रोप दी गई हैं
कभी-कभी जब किनारे बैठे इसके जल को हथेलियों से उलीचता हूँ तो
लगता है
ये जो नसों का जाल बिछा हुआ है मेरे शरीर में
नसें नहीं, यमुना से निकाली गई नहरें हैं
इसे देखने-महसूस करने की सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है अपने-अपने कोण
इसे अकबर के क़िले के झरोखे से रानी की आँख बनकर देखा जा सकता है
इसे अक्षय बट की जड़े बनकर छुआ जा सकता है
इसमें गोता लगाकर किसी मिथकीय गेंद को हेरा जा सकता है देर तक
कभी-कभी यह जानना मुश्किल होता है यह किधर से किधर बह रही है
ऐसे में निर्जीव पदार्थ बताते हैं इसकी बहाव दिशा...
संगम होती हुई
एक नाव जो चलती है अभी-अभी क़िले के पास से संगम के लिए
उसमें बैठी सवारियों के हाथों में फूली मकई के पैकेट हैं
कुनकुनी धूप में नीली छतरी के नीचे उछल रहे हैं फूल सफ़ेद दाने
ऊर्ध्वमुखी चोंचों की खेप उभर आई है हवा में
असमिया भाषा में उछाला गया एक दाना जा गिरा है स्थानीय जलपाखी के चोंच में
तमिल में उछाला गया दाना एक साइबेरियन चोंच में जा समाया है
नाव धीरे-धीरे पहुँच रही है संगम पर
अगर जाननी हो परकाया प्रवेश-पूर्व की मन:स्थिति
तो इसे अभी मल्लाहों के हवाले से समझा जा सकता है
एक मल्लाह ही पा सकता है नदी के अंतर्मन की थाह
एक मल्लाह के चूल्हे की आग का रास्ता नदी के पानी से होकर गुज़रता है
‘संगम आइ गवा साहेब’
ऊँची आवाज़ में बोलता है नदी की पाठशाला में पढ़ा-बढ़ा मल्लाह
आवाज़ का भी अपना एक धर्म है
वह उसी तक नहीं पहुँचती जिसके लिए उठाई गई है
सो मल्लाही भाषा की आवाज़ पहुँच गई है गोदान-पिंडदान भाषा तक
पर भाषाएँ पानी नहीं कि आलिंगनबद्ध हो जाएँ मिलते ही
मिलें भी तो कैसे
एक भाषा का उदर बाहर निकला है
दूसरी भाषा का भीतर धँसा हुआ
एक भाषा नदी पार करा रही है
दूसरी भाषा योनियाँ
पानी एक हो गया है भाषाएँ ठिठक गई हैं
यमुना बृहद् धारा होकर आगे बढ़ गई है
मल्लाह धारा के विपरीत तैरते वापस आ रहे हैं यमुना किनारे
मल्लाह ही हैं वे साक्ष्य जो कह सकते हैं
कि हमने यमुना को उसके अंतिम चरण में देखा है
वही कह सकते हैं हमने यमुना को संगम होते देखा है
वही कह सकते हैं कि सभ्यताएँ संगमों का इतिहास हैं
अकेले-अकेले का खेल नहीं...
- रचनाकार : हरीशचंद्र पांडे
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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