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तिनके की चीख़

tinke ki cheekh

मलयज

मलयज

तिनके की चीख़

मलयज

और अधिकमलयज

    अपने से बाहर

    उस चमकती चीज़ को एकटक घूरते हुए

    मैंने कहा : घुलावट से बचो

    ख़तरा

    टकरा कर टूट जाने में नहीं

    उस बहाव में है जो टूटन को टकराहट से

    अलग रखता है

    छाती पर उगे हुए पत्थर

    अपनी जड़ें अगर शब्दों में फेंकें

    तो उन्हें काटो नहीं बजाओ

    एक तिनके की चीख़

    पूरे जंगल के सन्नाटे से भारी है

    दृश्य भाग रहे हैं

    आदमी थम गया है ख़ून के जमे हुए

    क़तरे की तरह

    जलती हुई चमड़ी के नीचे मरा हुआ पानी

    —उसमें जो आँखें तैरती हैं

    वह कहीं मेरी तो नहीं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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