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युग-बोध, राष्ट्र-निर्माण और महिला-लेखिकाओं का दायित्व

yug bodh , rashtra nirman aur mahila lekhikaon ka dayitw

महादेवी वर्मा

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महादेवी वर्मा

युग-बोध, राष्ट्र-निर्माण और महिला-लेखिकाओं का दायित्व

महादेवी वर्मा

और अधिकमहादेवी वर्मा

    हम सभी सरस्वती के मंदिर के पुजारी हैं, देवता का महत्त्व ही हमारी आस्था को महत्त्व देता है। हमारा अभिनंदन-वंदन वस्तुतः एक ही गंतव्य की ओर जाने वाले पथिकों का परस्पर कुशल-क्षेम पूछना है। मार्ग में चलते हुए जैसे पूछ लेते हैं—तुम्हारा संबंध तो नहीं समाप्त हो गया? तुम थक तो नहीं गए? तुम्हारे पैरों में बहुत काटे तो नहीं चुभे? इसी प्रकार हम परस्पर एक दूसरे को अभिनंदन देते हैं, जो वस्तुतः पाथेय है, और कुछ नहीं।

    जहाँ तक साहित्यकार का प्रश्न है, वह तो ऐसा कुछ नहीं देता, जो व्यक्तिगत उपलब्धि है, जो व्यक्तिगत चमत्कार है व्यक्तिगत कुशलता है, ऐसा कुछ नहीं। वह किसी ज्ञानी के समान यह नहीं कह सकता, मैंने यह विशेष ज्ञान उपलब्ध किया है, तुमको देता हूँ। वह किसी वैज्ञानिक के समान भी नहीं कह सकता, मैंने यह तत्व खोज लिया, आविष्कार इसका किया, तुम्हें देता हूँ। इस दर्प के साथ हम कुछ दे ही नहीं सकते। हम तो जो गाति हैं आपमें से प्रत्येक कहता है—हमारी बात तुमने गा दी, हमारे आँसुओं को तुमने वाणी दे दी, हमारी हँसी को तुमने फूल बना दिया। तुम्हारा यह गीत तो हमारी बात कहता है, तुम्हारी कथा तो हमारे हृदय की कथा है, हमारे स्पंदन की बात है। तो जहाँ सबकी कथा हम कहते हैं, वहाँ हमारा क्या रहता है? वह वंशी क्या कहे, जिसमें दूसरे की फूक स्वर-उत्पन्न कर देती है। दूसरे की उँगलियाँ जिसके रंग में स्वर गान बना देती हैं। जिसको फूक से उसका महत्व है, जिसकी उँगलियाँ संगीत उत्पन्न करती हैं उसका महत्त्व है। हम तो केवल मात्र वंशी है और उस वंशी का इतना ही उपयोग है कि आपके हृदय के सुख-दुखों को, आपकी रागात्मक वृत्तियों को इस प्रकार हम व्यक्त करें, इस प्रकार एक की कथा को दूसरे तक पहुँचाए कि आप एक रहे मानवता अखंड रहे।

    हमारी साहित्य की परंपरा बड़ी समृद्ध है, हमारी संस्कृति भी समृद्ध है और समृद्ध संस्कृति का तो साहित्य समृद्ध होता ही चाहिए, क्योंकि संस्कृति जीवन के कुछ मूल्यों का आविष्कार करती है स्थापना करती है, साहित्य उन मूल्यों की रागात्मक अभिव्यक्ति है। दर्शन जिस सत्य को ज्ञेय बनाता है, धर्म उसे श्रेय बनाता है, साहित्य उमें प्रेय बनाता है। बिना प्रेय बनाए हुए, बिना आपके हृदय तक पहुँचाए हुए, जीवन का कोई मूल्य, किसी प्रकार का मूल्यांकन संभव नहीं है; यह ग्रंथों में रहेगा, पुस्तकों में रहेगा, परंतु आपके हृदय तक नहीं पहुँचेगा। हृदय में जब पहुँचेगा, जब काव्य के द्वारा ही पहुँचेगा और इस दृष्टि से हमारे साहित्य को, साहित्यकारों को, कवियों को अपने युग को समस्याओं का एक-न-एक समाधान खोजना ही पड़ा। कभी धर्म की संकोणता ने प्रतिद्वंद्वितों की, कभी केवल ज्ञान ने अपनी शुष्कता लेकर के, विचारसरणियाँ लेकर के, जटिलता, लेकर के प्रतिद्वंद्विता की, कभी समाज की विषमता ने, रूढ़ियों के अंधविश्वासों ने प्रतिद्वंद्विता की ओर हर युग में कवि ने अपनी समस्याओं का कोई समाधान खोजा है और अपनी नहीं, अपने युग की समस्याओं का कोई समाधान दिया है। जिस समय हिंसा इतनी अधिक थी और यज्ञ-कर्म में इतनी पशु बलि होती थी, उस समय आदिकवि के कमंडल के जल ने मनुष्य के उस क्रोध को, उस आक्रोश को, उस हिंसा के भाव को शांत कर दिया। वह कवि कि जिसने ऐसे युग में लिखा और एक क्रौंच की व्यथा से विचलित होकर लिखा, विगलित होकर लिखा। उसके उपरांत अनेक कवि आए हैं, हमारा देश विशाल रहा है और उसके अनुभव भी विशाल रहे हैं, उसे आलोक के आयाम पार करने पड़े हैं, अंधकार के युग भी पार करने पड़े हैं। अंधकार के युगों ने भी हमारे कवियों की दृष्टि के सामने अंधकार नहीं रखा। अकेले तुलसीदास का इतना बड़ा निर्माण है कि आज समाज में ऐसा, कुछ नहीं है कि जो तुलसीदास का दिया हुआ नहीं। हमारे देश का पूरा पुरुषार्थ राम में सरकार उन्होंने कर दिया है। हमारे देश की धरती की सारी सहनशीलता, सारी क्षमा उन्होंने सीता में साकार कर दी है। निरंतर तब से कवि आते रहे हैं, इस धरती की बात कहते रहे हैं और यह धरती हमारी ऐसी है कि जिसने विश्व को सहोदर मान करके, सब बात कही है, अकेले के लिए नहीं कहा है। एकाकी वृत्ति यहाँ नहीं है। हमारे धर्म में हमारे दर्शन में, हमारे साहित्य में मनुष्यता अखंड है, एक है और उस एकता को रखने के लिए मनुष्य को संवेदना अत्यंत आवश्यक हे। जैसे धूप में पृथ्वी तप जाती है, ग्रीष्म में पृथ्वी में दरार पड़ जाती है, परंतु जब घटा उमड़नी है, जब वर्षा जाती है, तब सारी दरारे भर जाती है पृथ्वी एक हो जाती है, सजल हो जाती है, श्यामल हो जाती है। और वह मेघ जो बरस जाता है, अनंत-अनंत रूपों में, रंगों में, विविधता में व्यक्त होता है। तब उसका नाम नहीं रहता। आप यह नहीं कहते कि यह मेघ है। धरती में जितने अँकुर है जितने तृण हैं, जितने वृक्ष है, चाहे वट वृक्ष है, चाहे ललित रंग है, आप मेघ या घटा इसमें नहीं पाते है। लेकिन वह बदल कर वहीं हो गया है तो साहित्य भी हमारा यही करता रहा है!

    आज के युग में फिर हमारे सामने ऐसी ही चुनौती है विज्ञान की चुनौती—जो मनुष्य को शक्ति देता है अधिकार देना है अधिकार का दर्प भी देता है और हृदय की धीरे-धीरे मौन करना चलता है, हृदय पर स्तर पर स्तर रखता जाता है। यदि साहित्य इस दिशा में फिर मनुष्य के हृदय को वाणी देने का कार्य करे, मनुष्य को एक रखने का कार्य करे, तो निश्चय रूप में विज्ञान मनुष्य को खंड-खंड में बाँट देगा और नष्ट होने के अतिरिक्त मानवता के पास और कोई गंतव्य नहीं रहेगा, कोई निष्कर्ष, कोई परिणाम नहीं रहेगा। तो आज के कवि के सामने अपने युग की ऐमी समस्याएँ है कि वह शांत होकर अपने संबंध में बहुत सोच नहीं सकता। उमें मनुष्य के हृदय में जो एक सद्भावना है, लेह है, जो विश्व मानवता है, उसे जगाना ही पड़ेगा और यदि जगा सके तो बड़ा काम करेगा।

    मैं समझती हूँ इस दिशा में महिलाएँ अधिक कार्य कर सकती हैं, इसलिए कि वे माता है, उनका हृदय महज ही संवेदनशील है और वे इस व्यथा को खंड-खंड—जीवन के खंड-खंड होने की व्यथा को वे अधिक निकट से अनुभव कर सकती है। जिस युग में मैंने आरंभ किया था, तब तो हम पराधीन थे और रूढ़ियाँ इस सीमा तक थी कि आज मुझे सोचकर आश्चर्य होता है कि जिस पंडित ने मैंने कहा कि मैं वेद पढ़ना चाहती हूँ, वहीं मूर्च्छित हो जाता था। पढ़ाने की बात तो बहुत दूर है मूर्च्छित हो ही जाना थे। एक विश्वविद्यालय में दूसरे विश्वविद्यालय में एक पंडित में दूसरे पंडित के पास जाकर कहती—मुझे में पात्रता है, आप गुरु मेरे हो जाइए किंतु कोई गुरु बनना पसंद करता था। सोचते थे स्त्री को वेद किस प्रकार पढ़ाएँगे, कैसे पढ़ेंगी यह। ऐसी अनधिकारी बात यह कैसे कहती है लेकिन आप ऐसे युग में है कि आपका मार्ग वही अवरुद्ध नहीं, आप चाहें तो सब कुछ कर सकती है। हमें संघर्ष करना पड़ा था, लेकिन उन संघर्ष ने हमें बल दिया। नदी समतल पर उस वेग से नहीं चलती, जितनी शिलाओं पर चलती है। शिलाएँ उसका मार्ग नहीं रोकती, समतल ही रोकता है। जब उसे सुखा देता है तब सिकता का विस्तार ही सुखा (?) देता है। आपके मार्ग में बाधाएँ नहीं है, जो मेरे सामने थीं। इसलिए अब आपकी अपनी शक्ति की परीक्षा करनी चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए। हर नदी का गंतव्य समुद्र-तट है समुद्र हो जाना है, वह तटो को वहाँ तक जाने के लिए बनाता है, तटों को लेकर समुद्र में प्रवेश कोई नदी नहीं करती है। आपकी यात्रा शुभ हो और आपमे से प्रत्येक यह समझ कि आपकी लेखनी इस देश के लिए समर्पित है, इस धरती के लिए समर्पित है, वह आपके संकल्पों से मंत्रपूत हो, आपको संवेदना से अभिषिक्त हो, आप सबकी यात्रा शुभ हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निबंध गरिमा (नवल किशोर एम ए) (पृष्ठ 56)
    • संपादक : नवल किशोर (एम ए)
    • रचनाकार : महादेवी वर्मा
    • प्रकाशन : जयपुर पब्लिशिंग हाउस

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