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टूटते आदर्श की दरारों के बीच विचरण करते इंस्टाग्राम युग के छात्र

(नोट : इस रेखाचित्र में एक शिक्षक ने अपनी निराशा को क़ैद किया है। यदि आपका हृदय फूलों की तरह कोमल है, तो यह रेखाचित्र सावधान होकर पढ़ें। उसमें दाग़ लग सकते हैं।)

यहाँ से न जाने कितनी ट्रेनें-बसें चलती हैं। जहाज़ उड़ते हैं। सड़कें एक शहर से दूसरे शहर जाती हैं। यह शहर उम्मीदों से भरा है, बड़े से बड़ा सपना देखने का मौक़ा देता है। इस शहर ने बड़े-बड़े बादशाहों, नौकरशाहों, कवि-कलाकारों, क़लमकारों को पैदा और ज़मींदोज़ किया है। जी, आपने सही अंदाज़ा लगाया, इस शहर का नाम दिल्ली है।

पिछले चौदह सालों से मैं इस शहर का बाशिंदा हूँ। लेकिन अब धीरे-धीरे यह शहर मेरे अंदर एक नदी की तरह प्रवाहित होने लगा है। इसी नदी में बहते हुए मैंने पिछले कई सालों में रूस से लेकर यूरोप तक की यात्राएँ की हैं। यह शहर ही वह ज़रिया था जो वहाँ तक मुझे ले गया। इस दौरान, मैं अनगिनत क़िस्म के लोगों से मिला, सबसे कुछ न कुछ लिया जो ख़ूबतर लगा। लेकिन हर बार घूमकर अपने इसी महबूब शहर में आया, परवीन शाकिर की कविता की तरह—

वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया

इस शहर में कुछ तो ख़ास था, जो मैं बार-बार लौटकर इसी के पास आता रहा। लेकिन इस बीच, दाना-पानी के सिलसिले में कई दरों पर जाना हुआ और कुछ न मिलने पर एक विश्वविद्यालय में मुलाज़मत कर ली। मैं ख़ालिश साहित्य और समाज-विज्ञान का विद्यार्थी हूँ। मुझे काम मिला विज्ञान और वाणिज्य के विद्यार्थियों को पढ़ाने का।

मुलाक़ात

शुरुआती दिनों से अब तक लगातार हर हफ़्ते एक नई उम्मीद के साथ क्लास लेने के लिए जा रहा हूँ। इस तरह मैं पिछले दो महीने से क्लास ले रहा हूँ। हर बार इस उम्मीद के साथ जाता हूँ कि आज छात्रों में वह बीज बोने की दिशा में कुछ काम करूँगा जो ज़िंदगी को आसान बनाता है। मैंने ‘विद्या ददाति विनयं’ को अपने जीवन का मंत्र बनाया और इसी मंत्र को चरितार्थ करते हुए छात्रों के बीच पहुँचा। इसी मंत्र से पिछले कई सालों में मैंने सीखा कि सहज होना कितना ज़रूरी है। मैंने ख़ुद को सहज बनाने की कोशिश की। मैंने बुद्ध से तार्किकता सीखी। मैंने कबीर से निरंतरता और मंथर होना सीखा—

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।

मैंने तुलसी से, शब्दों के ज़रिए चित्र बनाना सीखा। घनानंद से ‘प्रेम’ के अर्थ को जाना। अज्ञेय से जाना कि मौन भी एक अभिव्यंजना है। मैंने पढ़ने की बजाय समझ विकसित करने की दिशा में काम किया। हमेशा भागते रहने की बजाय ठहर कर सोचने पर ज़ोर दिया। 

मैं साहित्य और समाज के जिस गली-कूचे से होते हुए गुज़रा, उनमें से कुछ रास्ते अपने छात्रों को दिखाना चाहता हूँ। लेकिन, इस विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए ये सारी चीज़ें बेतुकी साबित हो रही हैं। ज़्यादातर छात्रों के सोचने का तरीक़ा बिल्कुल अलग है। उनके ज़ेहन में—आई-फ़ोन चमकते हैं, गाड़ियाँ सड़कों पर फ़र्राटे भरती हैं और बड़े-बड़े घर होते हैं। 

वे अपने हाथ की फूली माँसपेशियों को देखते और सहलाते हुए आते हैं। कुछ जानवरों की आवाज़ें निकालते हैं और बालों पर हाथ फेरते हुए—जब मन होता है क्लासरूम से बाहर निकल जाते हैं। ये बहुत आवाज़ करते हैं। ये आवाज़ इनके पास कुछ होने की होती है।

व्यवहार 

क्लासरूम में ये अक्सर एयर-कंडिशन और अन्य चीज़ों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। कुर्सियाँ—जो फ़र्श में गड़ी हुई हैं—उखाड़ देते हैं। माइक्रोफ़ोन से खेलते हैं। कुछ भी खाकर वहीं फेंक देते हैं। प्रोफ़ेसरों के नहीं होने पर मेज़ पर लेटते हैं और वहीं सो जाते हैं। ये नए ज़माने के छात्र अपनी महिला सहपाठियों तक का सम्मान करना नहीं जानते हैं। ये किसी गुट से मार-पीट के लिए अचानक क्लास से निकल जाते हैं और मैं इन्हें वहाँ खड़ा ठीक वैसे ही देखता रह जाता हूँ, जैसे अज़ीज़ क़ैसी अपनी ग़ज़लों में अपनी प्रेमिका को देखते रह जाते हैं, लेकिन वह कुछ नहीं कह पाते हैं—

आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

मैंने अमेरिका से लेकर जापान तक और नॉर्वे से लेकर दक्षिण अफ़्रीका तक के तमाम छात्र-छात्राओं को पढ़ाया है, लेकिन ऐसे स्टूडेंट नहीं देखे। इस तरह के छात्रों को पढ़ाने का यह मेरा पहला तज़ुर्बा है। यह मेरे लिए एक अलग ही दुनिया है।

गुज़िश्ता रोज़ मैंने एक छात्रा से बात की जो हमेशा अपने फ़ोन में व्यस्त रहती थी। मैंने उससे पूछा, “तुम इतना समय फ़ोन में क्यों बिताती हो?” 

उसने जवाब दिया, “मैं सोशल मीडिया पर अपनी लाइफ़ अपडेट करती रहती हूँ।” 

मैंने पूछा, “क्या तुम्हें लगता है कि यह तुम्हारी असल ज़िंदगी है?” 

उसने कुछ देर सोचकर कहा, “मुझे नहीं पता!”

निराशा

मैंने इस ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित कराया और जानना चाहा कि वे ऐसा क्यों करते हैं? पता चला कि उन्होंने मोटी रक़म देकर दाख़िला लिया है और सिर्फ़ डिग्री लेने के लिए यहाँ आए हैं। हल्ला-गुल्ला, गंदगी, मारपीट, बदतमीज़ी, तोड़-फोड़ करके वे अपना पैसा वसूल रहे हैं।

एक बार मैंने एक छात्र से पूछा, “तुम्हारी पढ़ाई का मक़सद क्या है?” 

उसने जवाब दिया, “मैं यहाँ सिर्फ़ डिग्री लेने आया हूँ।” 

यह सुनकर मैं हैरान रह गया। यह उस छात्र का व्यक्तिगत नज़रिया नहीं है। यह समाज में शिक्षा के प्रति बदलते दृष्टिकोण की गहरी झलक है। ये दिग्भ्रमित नौजवान हैं।

मैंने महसूस किया कि यह समस्या इस कक्षा की नहीं है। यह समाज, घर और माता-पिता से शुरू हुई है। तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में बच्चों को कभी सही दिशा नहीं दी जाती या यह कहें कि माँ-बाप के पास समय नहीं। ख़ासकर लड़कों को तो खुला छोड़ दिया जाता है। इन्हें कोई भी शिक्षक सही रास्ते पर कैसे ला सकता है, जब इनकी परवरिश ही ऐसी नहीं हुई। 

इनमें न जाने किस चीज़ का गहरा आत्मविश्वास होता है। ज्ञान इनके लिए दोयम है। वैसे भी ज्ञान-प्राप्ति की दिशा में वही जा सकता है, जिसे अज्ञानता का आभास हो। जिसे लगता है कि उसने सब कुछ जान लिया है, उससे तो बात ही नहीं की जा सकती। क्या कीचड़ से लबालब भरे पात्र में साफ़ पानी डाला जा सकता है? क्या जगे हुए आदमी को कभी जगाया जा सकता है जो सोने का नाटक कर रहा हो?

मैंने अपने अनुभव से यह समझा कि आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस (एआइ) के दौर में छात्रों को पढ़ाना—केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि उन्हें इंसानियत, अनुशासन और जीवन-मूल्यों से जोड़ना है। लेकिन, क्या यह संभव है? क्या इसकी ज़रूरत बची है? क्या मैं एक पुरानी इमारत की दरारों को भरने की कोशिश कर रहा हूँ, जो गिरने की कगार पर है?

दो महीने की क्लास में, मैं छात्रों को इस बात के लिए राज़ी नहीं कर पाया कि उन्हें क्यों एक पेन और डायरी लेकर आना चाहिए। उन्हें कक्षा में झुंड में नहीं सहज होकर एक छात्र की तरह बैठना चाहिए। एक छात्र के लिए क्यों ज़रूरी है—बेक़रार और बेचैन होना। इनमें से कुछ छात्र ख़ुद को सफल मानते हैं, क्योंकि शायद उनके कुछ रील्स इंस्टाग्राम पर वायरल हो चुके हैं। तो क्या अब वक़्त आ गया है, जब सब कुछ रील्स में ही कहा जाएगा? 

आत्ममंथन 

मैं हमेशा से मानता हूँ कि जैसे एक अच्छा शिक्षक एक बेहतर नागरिक तैयार करता है, वैसे ही एक शिक्षक को बनाने में छात्रों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। लेकिन, यहाँ का तो हाल ही कुछ और है। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? सालों से जो चीज़ें मैंने संजोकर रखी हैं, अब वो बिखरने की यात्रा पर जा रही हैं। क्या इन चीज़ों की अब ज़रूरत नहीं है? क्या मैं ग़लत दिशा में जा रहा हूँ, या इस परिवर्तित समाज में मेरी सोच ही पुरानी हो चुकी है? या जीवन सचमुच इंस्टाग्राम की रील बन चुका है।

मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि आज का युग, वह युग नहीं रहा जिसमें मैं पला-बढ़ा था। छात्रों की प्राथमिकताएँ बदल गई हैं। शिक्षा का उद्देश्य उनके लिए महज़ दिखावा बनकर रह गया है।

इस सब के बीच छात्राओं का रवैया काफ़ी अच्छा है। उनमें से ज़्यादातर कुछ सीखने और पढ़ने के इरादे से आती हैं। उन्हें भी ये सब देखकर निराशा होती है। इस तरह शिक्षा में पारंपरिक मूल्यों का क्षरण या पीढ़ियों के बीच अलगाव को साफ़ देखा जा सकता है। इसका एक जेंडर पहलू भी है। शायद मैं इस बदलाव को समझ नहीं पा रहा हूँ, या मैं इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ।

लेकिन क्या यह शहर जो उम्मीदों और सपनों से सबको भर देता है, इनके लिए झूठा है? क्या यह बात झूठी है कि इस शहर ने सौदा, मीर, ज़फ़र, ज़ौक़, ग़ालिब, मोमिन, दाग़ और हाली को पैदा किया जो दुनिया के नामचीन स्कॉलर थे और वक़्त को अपनी मुट्ठी में लेकर चलते थे। आज उसी शहर के बच्चे समय की फिसलन पर अपने पाँव नहीं टिका पा रहे हैं?

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