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स्वाधीनता के इतने वर्ष बाद भी स्त्रियों की स्वाधीनता कहाँ है?

रात का एक अलग सौंदर्य होता है! एक अलग पहचान! रात में कविता बरसती है। रात की सुंदरता को जिसने कभी उपलब्ध नहीं किया, वह कभी कवि-कलाकार नहीं बन सकता—मेरे एक दोस्त ने मुझसे यह कहा था। उन्होंने मेरी तरफ़ घूम-देखकर यह चेतावनी भी दी थी :

‘‘तू लड़की है, इसे याद रखना...’’

मैं जब शक्ति चट्टोपाध्याय की कविता—‘फ़ुटपाथ बादल हो जाता है : मध्य रातों में...’—पढ़ रही थी, उसके पहले से ही मुझे रातों के बारे में पता था। रातों में चाँदनी खिलती है। रातों में ठंडी हवा मिलती है और बहुत सारे फूलों की ख़ुशबू। 

हम लोग जब गाँव में रहते थे, तब रात और भी सुंदर और आकर्षक होती थी। रातों में पेड़ों से आम गिरते थे। रातों में बहुत सारे सितारे दिखाई देते थे और रातों में ही मुझे लगता था कि यह दुनिया एक स्वप्न है—जहाँ बहुत सारी कहानियाँ जन्म लेती हैं और बहुत सारी सूचनाएँ, बहुत सारे कथ्य, रूपक, मिथ, दुःख और डर जन्म लेते हैं। डर, हाँ डर! बहुत-बहुत सारे डर! इसलिए पापा का ऑर्डर था कि शाम सात बजने से पहले घर वापस आना ज़रूरी है! 

लेकिन क्यों? 

मैं जब पापा के साथ गाँव से रात में नगर वापस लौटती थी, रास्ते में रात को देखती थी। शांत सड़कें, शांत नदी, शांत वन-जंगल और निर्जन... बहुत-बहुत निर्जन... इस प्रकार की निर्जनता किसी लड़की के लिए सही नहीं है...

लेकिन क्यों? 

गाँव में गर्मी के दिनों में सब लोग बाहर या छत पर सोते थे, लेकिन मुझे और मेरी बहन को इसकी अनुमति नहीं मिलती थी; क्योंकि ख़ाली छत पर सोना लड़की के लिए सही नहीं है। यह रात है और यह सुरक्षित नहीं है। 

लेकिन क्यों? 

यह रात सुरक्षित क्यों नहीं है? 

यह रात क्यों इतनी बुरी और ख़तरनाक होती है—स्त्रियों के लिए? 

भाई-भैया जब रात में बर्थ-डे पार्टी से घर वापस आते थे, तब कोई उनसे कुछ नहीं कहता था। वे लोग जब रात में ग्रुप स्टडी करने के लिए अपने दोस्तों के घर जाया करते थे, तब भी मम्मी-पापा उन्हें परमिशन दे देते थे। लेकिन मैं बहुत ज़रूरी काम होने पर भी, घर से निकल नहीं पाती थी; क्योंकि रात... 

लेकिन क्यों? 

एक स्त्री रात की शोभा का निरीक्षण क्यों नहीं कर पाती? क्यों यह रात हमारी नहीं है? क्यों रात में घर से बाहर नज़र आ रही लड़कियों को यह समाज गुनहगार की तरह देखता है! क्यों इस रात में उनके साथ कोई दुर्घटना हो जाए तो यह समाज उन्हें ही विक्टिम समझ लेता है! 

वह चाहे बलात्कार हो या यौन उत्पीड़न, ऐसा होने के बाद इसकी ज़िम्मेदारी और दोष कौन लेगा? 

स्त्रियाँ? 

लेकिन क्यों?

‘‘रात को बाहर नहीं जाना चाहिए था...’’ 

‘‘क्यों गई?’’ 

‘‘अरे! तुम लड़की हो!’’ 

क्या लड़की होना बलात्कार, यौन उत्पीड़न और शोषण को आमंत्रित करना है?

स्त्रियों के साथ कई अन्य वजहों से भी बलात्कार किया जाता है। हमारे देश की तरह सत्तर के दशक के संयुक्त राज्य अमेरिका में भी ऐसी बातें सोची जाती थीं। कुछ लोग कहते कि इसकी वजह कपड़े हैं। किसी ने कहा कि स्त्रियों के चरित्र के कारण यह सब होता है और कुछ लोग कहते कि घटना-स्थल में जनता कम थी... इसलिए ऐसा हुआ!

लेकिन क्यों? 

स्वाधीनता के इतने वर्ष बाद भी स्त्रियों की स्वाधीनता कहाँ है? वे अकेली क्यों नहीं घूम सकतीं? वे रात को रात की तरह क्यों नहीं देख सकतीं? 

स्त्रियों को रात में बाहर नहीं जाना चाहिए, खुली जगहों पर नहीं जाना चाहिए, ख़ुद को ढककर रखना चाहिए... ऐसे नियम पितृसत्तात्मक समाज ने दिए हैं। इस पर अमेरिकी लड़कियों ने कहा : ‘‘चलो रात को सँभालें और नज़र आएँ...’’ इस प्रकार ‘टेक बैक द नाइट मूवमेंट’ शुरू हुआ। उन्होंने एक समूह बनाया। वे आधी रात को सड़कों, गलियों, बंदरगाहों में घूमती रहीं। उन्होंने गाने गाए। उन्होंने जमकर नारेबाज़ी की। वे अपनी उन आँखों को रात का अभ्यस्त करना चाहती थीं, जो आज़ाद रात की आदी नहीं थीं। इससे आशय था—‘‘सौभाग्य से, मैं बाहर हूँ; इसका अर्थ है कि मैं असुरक्षित नहीं हूँ...’’

2012 की सर्दियों में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद वर्मा आयोग की सिफ़ारिशों पर 2013 में बलात्कार-क़ानून में संशोधन किया गया था। इसके बावजूद रूल्स—रूल्स ही हैं, और डर—डर ही है...

स्त्रियों को खुलकर रात देखने का अधिकार तो अब तक नहीं मिला।

लेकिन क्यों?

अगर कोई लड़की अपने प्रेमी से मिलने जा रही है और उसका रेप हो जाए तो इसमें क्या उसकी कोई ग़लती है? अगर उसका प्रेमी ही उसके साथ दुष्कर्म करता है तो इसमें क्या उसकी कोई ग़लती है? अगर लड़की डॉक्टर है तो इसमें क्या उसकी कोई ग़लती है? 

बीती 9 अगस्त को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में जो कुछ हुआ, क्या उसमें पीड़ित महिला डॉक्टर की ही ग़लती है? अगर वह श्रमिक है तो दायित्व उसका नहीं है। अगर वह सेक्स वर्कर है तब भी उसकी सहमति के विरुद्ध उसके साथ यौन-संबंध बनाने के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई। इस जघन्य घटना के बाद स्त्रियों की रात के प्रश्न फिर से सामने हैं। यह घटना तब हुई है, जब रात की ड्यूटी के बाद डॉक्टर अस्पताल के ही सेमिनार-हॉल में आराम कर रही थी। इस हॉल में ही उसके साथ दुष्कर्म किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। अब इसके विरोध में बहुत सारी लड़कियाँ कल यानी 14 अगस्त की रात को अपने क़ब्ज़े में लेने के लिए सड़क पर उतर रही हैं। जी हाँ, स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले!

यहाँ एक बेहद ज़रूरी सवाल यह है कि क्या लड़कियों के लिए इस समाज में ऐसी कोई जगह मौजूद भी है, जहाँ लड़कियाँ स्वतंत्र रूप से काम कर सकें? क्या हम स्त्रियों के घूमने-फिरने और अपने सपनों को पूरा करने के लिए कोई जगह नहीं है? 

एक ऐसे देश में जहाँ पुरुष, स्त्रियों की आज़ादी छीन लेते हैं; उन्हें सेक्स-ग़ुलाम मानते-बनाते हैं, उस देश में सिर्फ़ पुरुष ही आज़ाद हैं? वे स्वतंत्र रूप से अपनी यौन-इच्छा को संतुष्ट करेंगे? निर्भया और आसिफ़ा, उन्नाव और हाथरस से लेकर आज की मौमिता तक बलात्कार पर बलात्कार जारी हैं! 

क्या हम कह सकते हैं कि भारत एक आज़ाद देश है, लेकिन आधा... क्योंकि स्त्रियाँ यहाँ अब तक पूरी तरह आज़ाद नहीं हैं! और इसलिए अब स्त्रियों को रात का अपना अधिकार लेना ज़रूरी है, ताकि वे ख़ुद इस समाज को समझा सकें!

आओ चलो, रात में ऑफ़िस आओ; काम पर जाओ! 

आओ चलो, रात से गुज़रते हैं! रात को देखते हैं! रात में मन है! 

आओ चलो, रात में घूमो! आज़ाद रहो! रात का आनंद उठाओ! 

इस समाज को यह समझा दो कि इस रात में हमें भी जीना है...

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