संभावना के संबोधन : अशोक वाजपेयी से पीयूष दईया की बातचीत
अशोक वाजपेयी 16 जनवरी 2025
अत्यंत समादृत कवि-आलोचक और कला-प्रशासक अशोक वाजपेयी आज 85वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यहाँ उन्हें शुभकामनाएँ देते हुए प्रस्तुत है—उनके द्वारा बोले-लिखे जा रहे आत्म-वृत्तांत से कुछ अंश। ये अंश अशोक वाजपेयी और सुपरिचित कवि-गद्यकार-संपादक पीयूष दईया के बीच संवाद से नि:सृत हैं। इस बातचीत में संवादक ने प्रश्न किए, लेकिन प्रस्तुति के क्रम में उन्हें लुप्त कर दिया।
संभावना के संबोधन
उत्तरार्द्ध की कविताएँ
संसार का गुणगान और सत्यापन
यह बात मेरे मन में बहुत पहले से उपजी और घर कर गई कि कविता को—कम-से-कम मेरी कविता को—संसार का, एक तरह का, सत्यापन होना चाहिए—कविता को संसार का गुणगान करना चाहिए। इसका अर्थ किसी आलोचनात्मक दृष्टि को ख़ारिज करना या दृष्टि में अंतर्भूत आलोचना को कमतर करना या बाहर कर देना नहीं है—मेरी नज़र में, सबको मिलाकर ही, एक तरह का गुणगान या सत्यापन बनता है।
गांधी की उपस्थिति
मेरे जीवन में गांधी की उपस्थिति धीरे-धीरे बढ़ती गई है, लेकिन गांधीवाद के रूढ़ अर्थ में मैं गांधीवादी नहीं हूँ। गांधी के यहाँ छोटी-से-छोटी बात पर ध्यान देने का जतन था। मसलन, जब तक पेंसिल बिल्कुल ही ख़त्म न हो जाए तब तक काट-काट कर, छोटी करके उसका इस्तेमाल करते रहना या पत्र-व्यवहार के लिए ज़्यादातर पोस्टकार्ड का इस्तेमाल करना। इन सबका मेरे ऊपर प्रभाव रहा है। बचपन में गांधी जी की मृत्यु पर हमारे मोहल्ले में एक तरह का सामूहिक शोक मनाया गया था—मैं वह कभी भूल नहीं पाता। उस समय मेरी उम्र सात-आठ वर्ष की ही थी।
महाज्योति और छोटी-सी लौ
20वीं शताब्दी में सच की विराटता और सब कुछ को लील लेने का भाव बहुत प्रबल और प्रकट था—विचारधाराएँ उसका बड़ा भारी माध्यम थीं। धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि विराटता में कहीं-न-कहीं हिंसा और क्रूरता भी छिपी होती है। मेरे मन में यह विचार आया कि किसी बड़े सत्य में अपने छोटे सच को—किसी बड़ी महाज्योति में अपनी छोटी-सी लौ को—विलीन कर देने की दरकार और बाध्यता क्यों है। कम-से-कम कविता को इसका न सिर्फ़ प्रतिकार कर सकना चाहिए, बल्कि स्वयं वह छोटी-सी लौ, छोटा-सा सच बनना चाहिए जो विराट से स्पंदित होते हुए भी अपनी लघुता को न तजे, न उसे कमतर माने।
बूँद में सागर-दर्शन
बहुत सोच-विचार कर वैसा नहीं है, लेकिन एक रूपक के रूप में यह ज़रूर है कि बूँद में सागर-दर्शन संभव हो सके। मेरा अपना ख़याल है कि संसार की जितनी कविता मैंने पढ़ी है, उससे मेरे मन में यह प्रभाव अमिट है कि छोटी-से-छोटी चीज़ भी बड़ी-से-बड़ी सच्चाई को व्यंजित कर सकती है—विराट के लिए, विराट के ही समतुल्य रूपक की विराटता ज़रूरी नहीं है। असल में, हम किसी विराटता में जीवन नहीं जीते। यह संभव नहीं है। हमारे जीवन की दशा-दिशा साधारण, छोटे-छोटे ब्यौरों में बँधी और उसी में फ़ँसी हुई है।
एक कमरे से बाहर जाते हैं—किसी बड़ी भारी सच्चाई से किसी दूसरी सच्चाई में प्रवेश नहीं करते हैं। एक छोटी गली से दूसरी गली में जाते हैं। अपने कमरे में चीज़ें उठाते हैं, यहाँ से वहाँ रख देते हैं। चाय बनाते हैं, प्याले में चाय पीते हैं। ये सब छोटी-छोटी क्रियाएँ मिलकर हमारी मानवीयता को परिभाषित करती हैं। हम अन्ततः मानवीय इसीलिए हैं कि इन सब छोटी-छोटी चीज़ों में रमे हुए हैं और उसके बावजूद कुछ बड़ा सोच पाते हैं, कर पाते हैं—बड़े से अपने को जोड़ पाते हैं। इन छोटी-छोटी क्रियाओं में छोटी-छोटी सच्चाइयाँ छुपी हुई हैं—इन्हें कविता में अलक्षित क्यों जाना चाहिए और कविता में इनको इनकी उचित जगह क्यों नहीं मिलना चाहिए?
अपने सच
जो सच लगता है वह सच है, लेकिन इसलिए कि उसको लोग नहीं मानेंगे, कि उसका भजन-कीर्त्तन संभव नहीं होगा, कि बहुत सारे लोग उससे असहमत होंगे या उसको ख़ारिज करेंगे या उससे विचलित या नाराज़ होंगे—आप अपने सच को स्थगित कर दें या उसको सच मानने की ज़रूरत से ही विरत हो जाएँ, यह मुझे ठीक नहीं लगता है। मुझे लगता है कि गांधी जी कई बार अकेले हो जाते थे, लेकिन अपने सच पर अड़े रहते थे। थोड़ा अड़ियलपन मुझमें भी है—इस अर्थ में अपने को अकेला पाने का संयोग असंख्य बार हुआ होगा कि कोई और मेरे साथ नहीं है, लेकिन इस अर्थ में कभी अकेला अनुभव नहीं किया कि मैं सच या सच्चाई के साथ नहीं हूँ। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो। आख़िर ये सब चीज़ें—सच और सच्चाई—भ्रम भी हो सकते हैं! जब भी लगा कि यह सच है, यह सच्चाई है—मैं उस पर अड़ा रहा। बाक़ी लोग उससे सहमत हुए कि नहीं हुए, इसकी मुझे बहुत चिंता नहीं है—मैंने अपने को कभी परित्यक्त या छोड़ दिया गया नहीं माना।
गांधी के पद
धीरे-धीरे (अब पचास साल हो गए) मुझे लगा कि गांधी जी द्वारा इस्तेमाल किए गए अनेक पदों में आलोचनात्मक सटीकता की बहुत गुंजाइश है। आज आलोचनात्मक चिंतन और कर्म के लिए उन पदों का इस्तेमाल किया जा सकता है—स्वराज्य, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, सिविल नाफ़रमानी, असहयोग इत्यादि। मैंने अपनी आलोचना में इन पदों का इस्तेमाल करना शुरू किया है—मेरे बहुत से आलोचनात्मक लेखन में ये पद बार-बार आते रहे हैं। मुझे नहीं मालूम कि हिंदी में किसी और ने इन पदों का ठीक ऐसे ही इस्तेमाल किया हो। जिन लोगों को गांधीवादी कहा जाता है, शायद उन्होंने भी गांधी के इन बहुत लोकप्रिय पदों और अवधारणाओं का ऐसे इस्तेमाल नहीं किया है।
असंभव की स्वप्नशीलता
मुझे लगता है कि गांधी इस अर्थ में हमेशा असंभव हैं कि वे संभव से कभी संतुष्ट नहीं थे—उनके दिमाग़, उनके जीवन और चिंतन में असंभव की स्वप्नशीलता थी। यही उनको बड़ा भी बनाती है, यही बात दूसरे बहुत सारे चिंतकों, दार्शनिकों को बहुत बड़ा बनाती है—वे असंभव की कल्पना कर पाते हैं। दूसरे स्तर पर, गांधी में, संभव की अवज्ञा नहीं थी—संभव में जो कुछ भी हो सकता था, वह सब उन्होंने किया। अंततः भारत को स्वतंत्रता दिलाने का अपना लक्ष्य पा लिया था। यह और बात है कि उसमें बँटवारे का एक बड़ा ख़ूनी दाग़ लग गया और बहुत सारी चीज़ें भी हुईं।
गांधी : दूर से चमकता प्रतिबिंदु
गांधी इस अर्थ में सफल थे कि अंततः वह अपने लक्ष्य को पा गए, लेकिन उन्होंने जिस तरह के समाज, लोकतंत्र और राज्य की परिकल्पना की थी, उससे हम स्वतंत्र भारत में लगातार दूर जाते रहे हैं—ग्राम स्वराज्य, ट्रस्टीशिप की कल्पना सहित उनकी बहुत सारी दूसरी अवधारणाओं से हम बहुत दूर जाते रहे हैं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि गांधी से जितना दूर तक जाया जा सकता है उतना दूर तक हम जा चुके हैं—उनसे इस क़दर दूर हो गए हैं कि अब वह दूर से चमकता हुआ प्रतिबिंदु लगते हैं। कई बार मैं सोचता हूँ कि पिछले दस वर्षों में इस आततायी निज़ाम के तहत जो हुआ है वह एक तरह से गांधी को एक नयी प्रासंगिकता देता है—इस पूरे निज़ाम से लड़ने और भारतीय जन में इसने जो मानसिकता व विचार धँसाने की कोशिश की है, उसका प्रतिरोध करने का एकमात्र वैचारिक उपाय गांधी ही हैं।
छोटे-छोटे प्रयत्न
मैंने यह लक्ष्य किया है कि गांधी अगर राजनीति में या राज्य या सत्ता के केंद्र में नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भारतीय समाज में नहीं हैं। ऐसा नहीं कह सकते हैं कि उनका लोप हो गया है। वह छोटे-छोटे प्रयत्नों में मौजूद हैं—शिक्षा के क्षेत्र, स्वास्थ्य के क्षेत्र, लोक कल्याण के क्षेत्र, पर्यावरण के क्षेत्र आदि ऐसे अनेक क्षेत्र और अनेक संस्थाएँ हैं, अनेक पहल हैं जो गांधी-दृष्टि से प्रेरित हैं : बहुत लोग अपने-अपने स्तर पर, अपनी-अपनी जगहों पर काम कर रहे हैं। यही वे छोटे सच हैं जिनको ख़राब नहीं जाना चाहिए। भले वे बिखरे हुए हैं और उनको लेकर कोई एकत्र-भाव नहीं बनता, लेकिन इससे उनका होना और उनके माध्यम से गांधी की उपस्थिति न नकारी जा सकती है, न उसको नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।
संसार : पवित्रता का आवास
आमतौर पर दो बातें कही जाती रही हैं। एक यह कि पवित्रता का अनिवार्य रूप से संबंध धर्म से है—वही पवित्र है जिसे धर्म पवित्र मानता है—इस तरह की धारणा रही है। इससे जुड़ी दूसरी धारणा यह है कि हमारे समय में धर्म की अवनति हुई है, हालाँकि इन दिनों उसका फिर से उभार है, और पवित्रता की भी अवनति हुई है। एक और सामान्यीकरण यह होता रहा है कि हम अपेक्षाकृत धर्मनिरपेक्ष समय और समाज में आ गए हैं या ऐसे मुक़ाम पर आ गए हैं कि अब समाज में पवित्रता की कोई जगह नहीं बची है—न जगह बची है, न उसकी ज़रूरत बची है! एक सामान्यीकरण यह भी होता रहा है कि पवित्रता एक अनुष्ठानपरक अभिव्यक्ति चाहती है, कर्मकांड वगैरह। यह भी कि संसार अब, कुल मिलाकर, पवित्रता से रिक्त है। ये बहुत मोटे-मोटे सामान्यीकरण हैं।
धार्मिकता में मेरी रुचि बहुत जल्दी समाप्त हो गई थी, बावजूद इसके कि मेरी माँ बहुत धार्मिक थीं। मैंने भी रामचरितमानस का अखंड पाठ किया था, लेकिन धर्म के प्रति मेरे मन में गहरी अवज्ञा का भाव हो गया था। विडंबना यह थी कि धार्मिकता का भाव तो गया, लेकिन पवित्रता का भाव नहीं गया। पवित्रता से मतलब है ऐसा कुछ जो अपने आप में, बिना कार्य-कारण के, बिना किसी परिभाषा और अवधारणा के, बिना किसी अपेक्षा के हो सकता है। मेरे मन से पवित्रता नहीं गई।
यह प्रश्न भी जगा कि आख़िर पवित्रता को संसार से बाहर क्यों खोजना है—वह संसार में ही उपजती है—उसका असली घर या आवास संसार ही है। पवित्रता को अनिवार्य रूप से अलौकिकता से जोड़ने की न कोई तार्किक ज़रूरत है, न अपने अनुभव में उसकी ज़रूरत है। हिमालय को देखकर भी पवित्रता का अनुभव कर सकते हैं, बिना इसकी चिंता किए कि वह शिव का निवास है, या वहाँ देवता व साधु विचरते हैं।
किसी में एक नदी को देखकर भी पवित्रता का भाव आ सकता है—नदी की निरंतरता, उसका लगातार अपने को बदलते रहना और फिर भी वही बने रहना। इस सबके लिए किसी धार्मिक आस्था की ज़रूरत नहीं है। यह किसी के भी सहज अनुभव हो सकते हैं। इस भाव के अंतर्गत—जिसको संसार का गुणगान कहता हूँ—पवित्रता की संभावना और उसकी उपस्थिति का अन्वेषण करने की भी चेष्टा करता रहता हूँ। मानवीय संबंध में, प्रकृति में, या समय के अटूट प्रवाह में कई ऐसी चीज़ें हैं, और धीरे-धीरे शब्द में, भाषा में, कलाओं में, कुछ व्यक्तियों में, कलाकारों में।
कविता के परिसर में
मेरे मन में यह भाव भी रहा है कि सच्ची कविता पवित्र या पवित्रताकारी भी होती है। जो कविता के परिसर में आ जाता है वह वैसे ही, एक तरह की, पवित्रता पा लेता है—चाहे चीज़ें हों, छवियाँ हों, चाहे बिंब हों। पवित्रता का एक गुण यह है कि वह कालातीत है : काल से क्षरित नहीं होती। ऐसी पवित्रता, जैसे एक तरह का अनंत, मनुष्य के लिए भाषा में ही संभव है। हमारे समय में पवित्रता के जाने-माने ठिकाने ढह चुके हैं—पवित्रता कविता में ही संभव है। हमारी परंपरा में कवि को ईश्वर भी कहा गया है—इस अर्थ में कि वह विधाता है—इस बात का, हमारे समय में, रूपांतर करके यह कहा जा सकता है कि कविता जो कुछ अपने ज़द में लेगी, उसे अंततः पवित्र करेगी।
धर्म और कविता
धर्म और कविता के बीच जो संबंध भारत में था वह सिर्फ़ यहीं नहीं बल्कि लगभग सारे संसार में था। इस बात को याद रखना चाहिए कि सारे धर्मों ने अपने मूल संस्थापक ग्रंथ कविता में ही लिखे—चाहे वेद हों, कुरान हो, बाइबिल हो। ये सब धर्म-ग्रंथ भी हैं, इसलिए, धर्म को भी अनिवार्यतः कविता की ज़रूरत रही है और स्वयं कविता को भी धर्म की ज़रूरत रही है। दोनों का संबंध बहुत पुराना है।
जब हमने नए क़िस्म की आधुनिकता में प्रवेश किया—भले पश्चिम के प्रभाव में ही—तब धर्म और साहित्य के संबंध को फिर से जाँचना शुरू किया—एक तरह से यह जाँचना 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरू में ही हो गया था। यह जाँचना इस तरह का था कि पौराणिक चरित्रों पर कुछ प्रश्नचिह्न उठना शुरू हुए। मसलन, मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ लिखा, जिसमें रामायण द्वारा उपेक्षित लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला नायिका है। दूसरी तरफ़ छायावाद में निराला हैं जो तुलसीदास से भी अपने को जोड़ते हैं और ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी कविता लिखते हैं। वह तुलसीदास के यहाँ से शुरू हुए राम के मानवीयीकरण को नई ऊँचाई पर ले जाते हैं, जहाँ वह अपनी आँख को राजीव-लोचन कहलाने के कारण, कमल का फूल मानकर देवी को अर्पित करने को उद्यत होते हैं। तीसरी तरफ़ प्रसाद धर्म से अलग जो पौराणिक कल्पना है, मनु के कथानक को लेकर एक महाकाव्य ‘कामायनी’ लिखते हैं, जिसमें आध्यात्मिक और दार्शनिक चिंताएँ काव्यगत हैं पर धार्मिक नहीं। फिर आगे आधुनिक साहित्य आता है।
तीन होड़
सन् 60 के आसपास जब साहित्य में मेरा प्रवेश हुआ तब तक हिंदी साहित्य का धर्म से संबंध और संवाद, दोनों ही, टूट चुका था। इस संबंध की अपेक्षाकृत अभिव्यक्त-सी ज़रूरत लगती थी लेकिन उसके नाम पर जो कुछ होता रहता था, उससे बहुत गहरी वितृष्णा भी होती थी। इसलिए मैंने पवित्रता-तत्त्व और धर्म से स्वतंत्र हो सकने वाले अध्यात्म को चुना। ऐसा करते समय मुझ पर पश्चिमी आधुनिकता का प्रभाव था, जहाँ धर्म से संबंध टूट चुका था, लेकिन बहुत सारी अवधारणाएँ और उनका नए क़िस्म का आलोचनात्मक पुनराविष्कार सामने था—उनका प्रश्नांकन, उनकी बिंबावली व प्रतीक व्यवस्था का उपयोग, आदि।
असल में, पश्चिम में साहित्य ने दो अनुशासनों से होड़ लगाई—एक धर्म से, दूसरा इतिहास से और किसी हद तक राज्य से। ये तीन होड़ हैं, जिनका प्रभाव हम लोगों पर भी पड़ा होगा। हमारी अपनी परंपरा में भी एक तरह से यह होड़ रही है—धर्म से भी होड़ रही है। एक तरह से रामायण धर्मयुद्ध है—राम, रावण से, धर्मयुद्ध लड़ते हैं और अंततः विजयी होते हैं। वहाँ धर्मयुद्ध से अंततः विजय मिलती है और अधर्म का नाश होता है।
महाभारत भी धर्मयुद्ध है। गीता का पहला श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे’ है—वह धर्मक्षेत्र है और कुरुक्षेत्र भी है। लेकिन अंततः महाभारतकार क्या कह रहा है—धर्मयुद्ध से भी कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि पांडवों को अपनी अंतिम यात्रा हिमालय की ओर करनी पड़ती है—युधिष्ठिर के अलावा सभी एक के बाद एक गिरते जाते हैं : धर्मयुद्ध भी अंततः विफल होता है। वहाँ युद्ध मात्र की विफलता है, भले वह धर्मयुद्ध है। यह महाभारत का एक संदेश है जो रामायण के संदेश से अगर ठीक उल्टा नहीं है, तो उससे काफ़ी अलग है।
भक्ति-काव्य में राज्य और सत्ता को—राज्यसत्ता हो या धर्मसत्ता हो—दोनों को बहुत गंभीरता से प्रश्नांकित किया गया है। लेकिन साहित्य में मुझे इसका बोध इतने सजीव ढंग से नहीं था। मुझे इन होड़ों की पहचान, एक तरह से, पश्चिम ने कराई—उसी के आलोक में मैंने अपनी परंपरा और इतिहास को देखना शुरू किया। तीन होड़ें हैं—धर्म से, इतिहास से और राज्य से : मैं भी इनमें शामिल हुआ।
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