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रसोई के ज़रिए संघर्ष, मुक्ति और प्रेम का वितान रचता उपन्यास

किताबें पढ़ने की यात्रा, मुझे उन्हें लिखने से कम रोमांचक नहीं लगती। ख़ासकर किताब अगर ऐसी हो कि तीन बजे देर रात भी—जब तक कि वह पूरी नहीं हो जाए—जगाए रखे, इस तरह की किताब से जुड़ी हर चीज़ स्मृति में अटक जाती है। जैसे यह किताब—‘जैसे चॉकलेट के लिए पानी’। 

पिछले साल, मुझे यह किताब कथाकार मित्र श्रीकांत दुबे ने दी थी। उन तक यह किताब वाया अमित श्रीवास्तव पहुँची थी और अमित तक यह पहुँची—इस किताब के अनुवादक के ज़रिए, यानी अशोक पांडेय के मार्फ़त। ख़ुश होने को तो मैं इस बात पर भी ख़ुश हो सकती हूँ कि अनुवादक के पास बची किताब की इस एकमात्र प्रति ने, पढ़ने के तमाम उपलब्ध विकल्पों और प्रायिकता की अनंत संभावनाओं के बीच बतौर पाठक मुझे चुना और अनुगृहीत किया।

मैं अक्सर सोचती हूँ कि रसोई—औरत के जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है, यंत्रणा है, रहस्य है, कौशल है और हथियार है। क्या कुछ नहीं है यह रसोई? पता नहीं, मेरा इंटरप्रिटेशन किस हद तक सही है। कहीं यह तो नहीं कि मेरे भीतर का उत्साही पाठक उपन्यास के पाठ की हद से बाहर जाकर अपने अनुभव, अपनी इच्छाएँ, भाव उनसे जोड़ रहा हो! लेकिन यह सभी ख़तरे उठाते हुए भी, मैं उस मूल चीज़ तक पहुँचने के लिए—एक पाठक के तौर पर अपनी स्वतंत्रता का पूरा-पूरा शोषण करते हुए—उत्कंठित हूँ, जिसे आस्वाद कहते हैं।

उपन्यास की शुरुआत होती है, एक व्यंजन को पकाने की विधि से।

क्रिसमस रोल्स।

आवश्यक सामग्री :
एक कैन सारडीन 
आधा चोरीज़ो सॉसेज 
एक प्याज़ 
ओर्गेनो 
एक कैन सेरानो मिर्च 
दस कड़े रोल्स।

बनाने की विधि :

बहुत सावधानी से प्याज़ को बारीक-बारीक काटिए। प्याज़ काटते हुए आप रोए नहीं? (जो बहुत झुँझलाने वाला होता है) इसके लिए थोड़ा-सा अपने सिर पर रख लें। प्याज़ काटते वक़्त रोने में सबसे बड़ी परेशानी यह है कि एक बार आँसू निकलने शुरू हुए कि वे निकलते ही चले जाते हैं, आप उन्हें रोक नहीं सकते। पता नहीं आपके साथ ऐसा कभी हुआ या नहीं? मेरे साथ तो ऐसा कई बार हो चुका है। 

माँ कहा करती थी, ऐसा इसलिए था कि मैं प्याज़ के प्रति ज़्यादा संवेदनशील थी; जैसे मेरी चचेरी दादी तीता (यह तीता ही इस उपन्यास की नायिका है)। प्रेम, यंत्रणा और रसोई—इनका त्रिभुज इतना सटीक तौर पर इस उपन्यास में है कि इसका एक भी मसाला अतिरिक्त नहीं है, कम नहीं है। सब कुछ संतुलित। अगर अधिक है तो रसोई का कौशल। अधूरी प्रेम की यंत्रणा झेलती तीता दे ला गार्ज़ा समर्पण का उत्कृष्ट रूप रसोई के अपने कौशल में गूँथ देती है। 

परिवार के पुराने नियम के तहत मामा एलना पेद्रो मार्कवीज़ के ताता के साथ विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार करती है, क्योंकि ताता—जो घर की सबसे छोटी बेटी है—को मामा एलेना की मृत्युपर्यंत उनकी देखभाल करनी है, इसलिए वह विवाह नहीं कर सकती। पेद्रो अपने प्रेम के निकट रह सके, इसके लिए ताता की बहन रोसौरा से विवाह कर लेता है। प्रेम के आलोड़न को, सूक्ष्मता को इतनी ख़ूबसूरती से पकाया गया है, जैसे ठहर-ठहरकर तैयारी और तन्मयता के साथ लॉरा एस्कीवेल ने यह उपन्यास लिखा हो। 

मैं यह कल्पना करने से नहीं रह पा रही कि ज़रूर उपन्यास का हर चैप्टर लिखने के पश्चात वह इत्मीनान से ठहर जाती होंगी। कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाकर गहरी साँस लेकर, वाइन का एक घूँट लेती होगी। फिर फ़ोर्क से गुलाब की पंखुड़ियों में पके बटेर का एक टुकड़ा मुँह में चुभलाते हुए वह सोचती होंगी... हाँ ठीक है, पर सौंफ़ थोड़ा और होना चाहिए था। फिर वह दुबारा गुलाब और सौंफ़ पीसने की तैयारी में लग जाती होंगी, जैसा कि कहानी में फिर हुआ...

तीता का शरीर वहाँ कुर्सी पर था, लेकिन उसकी आँखों में जीवन के कोई लक्षण नहीं थे। मानो विचित्र रासायनिक प्रक्रिया के कारण तीता का समूचा अस्तित्व गुलाब की पंखुड़ियों के सॉस में घुल गया हो। बटेर के कोमल मांस, वाइन और भोजन के अन्य सारी गंधों में तीता घुल चुकी थी। इस तरीक़े से वह पेद्रो के शरीर में प्रविष्ट हो। गर्म, ख़ुशबूदार और भरपूर। उस भोजन के साथ ऐसा हुआ मानो उन्होंने संचार की एक नई व्यवस्था खोज ली हो,  जिसमें तीता संदेश भेज रही थी और जिन्हें पेद्रो प्राप्त कर रहा था। 

इस प्रेम कहानी की पृष्ठभूमि में 1900 का शुरुआती समय है, जब क्रांति की हलचल हवाओं में थी। क्रांति की हलचल सब कुछ तो नहीं, लेकिन कुछ घटनाओं को निर्धारित करती ही है। तीन से चार पीढ़ियों तक फैले इस उपन्यास में परिवार की सामंतवादी व्यवस्था है। नैतिकता और स्वार्थ के मकड़जाल इस क़दर उलझे हैं कि उनके बीच से मनुष्यता की बारीक डोरी पहचान पाना ही सबसे बड़ी चुनौती है, रेशा चुनकर खींच पाना तो कठिनतम है। 

बारह अध्यायों और बारह महीने के मध्य बँटा उपन्यास 41 वर्षों की यात्रा करता है। मामा एलेना पति की मृत्यु के पश्चात परिवार की सर्वेसर्वा है। वह एक कठोर अनुशासन प्रिय और सामंती महिला हैं, पुरानी रवायतों पर दृढ़तापूर्वक अड़ी। वह अपनी छोटी बेटी तीता पर हमेशा संदेह करती है, क्योंकि नियमों के अनुसार परिवार की सबसे छोटी बेटी विवाह नहीं कर सकती। उसे आजीवन माता-पिता की देखभाल करनी होती है, इसलिए तीता दे ला गार्ज़ा के स्वप्न इच्छाओं-चेष्टाओं के प्रति माँ अतिरिक्त सजग है। 

कथानक का आरंभ 1893 के आस-पास होता है। उपन्यास में आगे बढ़ने पर नाचा नाम की महिला से हमारा परिचय होता है। नाचा इस परिवार की रसोइया है। आगे बढ़ने पर पता चलता है कि उसका जीवन भी आजीवन अविवाहित रहने तथा परिवार की सेवा करते गुज़रा है। तीता अपनी माँ की तुलना में नाचा से बहुत क़रीब है... बहुत निकट। जब वह माँ के पेट में थी, तब भी प्याज़ काटते हुए तक़रीबन बहरी नाचा उसकी सिसकियाँ सुन पाती थी। यह लगाव छूटता है, रोसौरा के विवाह के दिन जब नाचा की मृत्यु होती है। यह मृत्यु अस्वाभाविक तथा संदेहास्पद है। यह समझना मुश्किल है कि यह आत्महत्या थी या कुछ और? हालाँकि नाचा जिस प्रकार रसोई के रसायनों से वाक़िफ़ थी, उसे देखते हुए आत्महत्या की व्याख्या पर यक़ीन करना सहज है। 

रोसौरा के विवाह के दिन नाचा की मृत्यु के साथ एक अन्य दुर्घटना भी होती है। वेडिंग केक खाने के साथ ही सारे मेहमान और परिजन उल्टियों से बेहाल हो जाते हैं। यह उपन्यास विचित्र संयोग, जादुई (किंतु मिथ्या नहीं), घटनाओं से भरा है जैसे रोसौरा के दूध नहीं होता। वहीं कुँवारी तीता के स्तनों में दूध उतर आता है और वह रोसौरा के बच्चे को अपना दूध पिलाती है।
 
पता नहीं क्यों इस उपन्यास को पढ़ते हुए, कई बार वर्जीनिया वुल्फ़ की ‘अपना एक कमरा’  मुझे बार-बार याद आई। यह उपन्यास पढ़ने के पश्चात मैंने ‘अपना एक कमरा’ किताब खोली। वर्जीनिया लिखती हैं—“क्योंकि सर्वश्रेष्ठ कृति कोई अकेली और एकाकी उत्पत्ति नहीं होती, वे तो बरसों की साझा चिंतन की लोगों के समूह के चिंतन की परिणति होती है, जिससे की एक अकेले स्वर के पीछे पूरे जनसमूह का अनुभव होता है।”

तो इस तरह क्या वर्षों के कालचक्र से जुड़ी जो रसोई औरत की दैनंदिनी की सबसे अधिक जगह घेरती रही है... अवचेतन में इकट्ठा होती दालचीनी और सौंफ़ की वे सारी ख़ुशबुएँ, लज़ीज़ जिगर, गुर्दे, गोश्त, तेल-घी-आग क्या यह सब नहीं उतर रहा है इस कथा में? जीवन से कथा और कथा से जीवन। 

इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक की कल्पनाएँ अनिश्चित दिशा की ओर भी भागी। मसलन, अगर किसी दक्षिण एशियाई औरत ने यह उपन्यास लिखा होता तो वह किन व्यंजनों से रसोई की शुरुआत करती... और इसकी नायिका किन-किन मसालों के चयन और उन्हें कूटने छानने में दक्ष होती। गर्म मसालों की लुभावनी और गहरी गंध, क्या पात्रों पर अलग तरह का प्रभाव छोड़ सकती थी? और इस प्रभाव से संभव है कि वे दुस्साहसी या कि अधिक कायर हो सकते थे?

पुरुषों की दुनिया में जो नायक दफ़्तर की धूल खाती फ़ाइलों, दवाई की शीशियों, प्रिंटिंग प्रेस की खड़र-खड़र में अपना कौशल खपाता, नितांत नैराश्य भाव से साँझ का सूनापन देखता है... तीता ने अपने सारे सुख-दुख, आशाएँ, निराशाएँ या कौशल रसोई से पाए हैं। 

उसी किताब में आगे वर्जीनिया लिखती हैं—

“कोई नहीं जानता कि कितने विद्रोह खदबदाते हैं, उन जीवन पिंडों में जो पृथ्वी पर वास करते हैं। स्त्रियों से आमतौर पर बहुत शांत होने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन स्त्रियाँ भी वैसा ही महसूस करती हैं, जैसा पुरुष महसूस करते हैं। उन्हें अपनी शक्तियों के लिए अभ्यास की और अपने प्रयत्नों के लिए एक क्षेत्र की उतनी ही ज़रूरत होती है, जितनी उनके भाइयों को होती है। उन्हें अत्यंत कठोर प्रतिबंध से अत्यंत पूर्ण ठहराव से उतनी ही पीड़ा होती है जितनी पुरुषों को होती होगी।”

इस बात को आगे ले जाते हुए, मैंने सोचा कि अपने स्वप्न को दूर तक साथ नहीं ले चल पाने की पीड़ा भी तो दोनों को एक-सी होती होगी, लेकिन स्वप्न को जीती हुई स्त्री और स्वप्न को जीते हुए पुरुष का मूल्यांकन भिन्न प्रकार से क्यों होने लगता है? यह पिछले दिनों की बात है। एक सार्वजनिक कहानी पाठ में एक लेखक—जो पत्रकार भी हैं—ने अपनी कहानी पढ़ी। लेखक नामचीन हैं। कहानी में एक पात्र कहता है (भाव यही थे)—

“हर औरत की सफलता का रास्ता पुरुषों के बिस्तर से होकर जाता है।”

किसी ने इस पंक्ति पर आपत्ति जताई थी कि यह पंक्ति अनुचित है। स्पष्टीकरण देने के क्रम में लेखक ने कहा कि कहानी में यह बात पात्र ने कही है। इस बात पर एक मित्र युवा आलोचक/प्रोफ़ेसर ने पूछा कि मैं यह जानना चाहती हूँ, कि क्या लेखक की इससे सहमति है? लेखक का जवाब था—“दुर्भाग्यवश यह सही है, ज़्यादातर महिलाएँ जो आज सफल हैं, उनका रास्ता यहीं से गया है। मैंने बहुत नजदीक़ से चीज़ों को देखा है।”

इसके पश्चात शंका की गुंजाइश नहीं रही। मैं थोड़ी शॉक्ड थी। ऐसा नहीं है कि मैंने यह बात पहली बार सुनी है। वस्तुतः मुझे यह स्वीकारने में समय लग गया कि एक चर्चित लेखक जो पत्रकार भी है; बुद्धिजीवी है, उसने यह बात कही है। यानी कि गली मोहल्ले में बैठकर पंचायत करते पुरुष और एक बुद्धिजीवी पुरुष महिलाओं के संदर्भ में अंततः एक बात पर आकर पूर्ण सहमत होते हैं। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? और ग़ैर-ज़रूरी बात की तरह, मैं यह भी कहना चाहूँगी कि बतौर एक स्त्री, एक लेखक वह रात मुझ पर बहुत भारी गुज़री थी। खुली आँखों से छत देखते... ऐसी संकीर्ण समझ और मानसिकता के बीच (जो की सिर्फ़ दुनिया के एक हिस्से में नहीं है) एक लेखक ने रसोई की मार्फ़त—संघर्ष, मुक्ति और प्रेम का वितान रच दिया है।

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