पुरुषों ने स्त्री-मन से कहीं अधिक स्त्री-तन का अध्ययन किया
रहमान
09 सितम्बर 2024

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग-अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 5 सितंबर को नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :
नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ राजा दुष्यंत के बारे में है, जो गहन वन में शिकार के लिए निकला है। वह एक आश्रम में शकुंतला के पास पहुँच जाता है, और उसके प्रेम को जीतने का प्रयास करता है। उसके साथ प्रणय-संबंध स्थापित करने के बाद, वह अपनी राजधानी लौटता है और युवती (शकुंतला) को बाद में अपने यहाँ आने का निर्देश देकर चला जाता है।
अपने विचारों में खोई हुई प्रेममयी लड़की से, ऋषि दुर्वासा के प्रति—जब वह आश्रम का दौरा करते हैं—भूलवश आतिथ्य के कर्तव्यों की उपेक्षा हो जाती है। और वह उसे शाप दे देते हैं कि जिसके विचारों में वह खो गई है, वह व्यक्ति अब उसे याद नहीं रखेगा। लेकिन शकुंतला की सखियों के अनुनय-विनय पर, वह किसी स्मृति चिह्न दिखाए जाने के उपरांत शाप का प्रभाव कम होने का आशीर्वाद देकर चले जाते हैं।
उसके उपरांत जब शकुंतला दुष्यंत के दरबार में पहुँचती है, तो उसका उपहास उड़ाया जाता है। पूरे प्रकरण और उसकी गर्भावस्था को लेकर उसका अपमान किया जाता है। नाटककार, ऋषि दुर्वासा के शाप से, युवा और निर्दोष युवती शकुंतला के प्रति दुष्यंत के रवैये को सही ठहराना चाहता है।
कहानी एक अलग मोड़ लेती है। यह सभी राजाओं के लिए अपने निकटतम संबंधियों को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का एक प्रकार का रिवाज है। दुर्भाग्य से, वह महसूस करता है कि महल के अंदर उसकी पत्नियों में से किसी ने भी कोई पुरुष संतान पैदा नहीं की है, हालाँकि उसकी बेटियाँ थीं।
हताशा में, वह अपने अनुचरों को उस युवती की गर्भावस्था के परिणाम का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजता है। बाद में वह स्वयं उसकी खोज में निकलता है और अंत में उसे ढूँढ़ लेता है। रंगमंचीय छूट लेते हुए, निर्देशक शकुंतला को महल में वापस नहीं आने देता है और वापस वन में ही रखने का निर्णय करता है।
हालाँकि वह अपने बेटे भरत को दुष्यंत के साथ भेजती है; बिल्कुल रामायण की सीता की तरह। पुराणों के अनुसार, हम सभी भरत के वंशज भारतीय हैं, और उनके नाम पर हमारी भूमि को ‘भारतवर्ष’ (भारत की भूमि) कहा जाता है।
महाकवि कालिदास पहले नाटककार हो सकते हैं, जिन्होंने शीर्षक में एक स्त्री के नाम से अपने नाटक का नामकरण करने का साहस किया था। उस समय, कई शताब्दियों पहले, उन्होंने स्त्रियों की समस्याओं और उनके प्रति समाज के निर्दयी होने की चर्चा की।
नाटक की मूल कहानी लगभग पाँचवीं शताब्दी पहले लिखी गई है। महाकवि कालिदास ने स्त्रियों की पीड़ा का जो सचित्र वर्णन पाँचवीं शताब्दी में किया था। आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी उतनी ही प्रासंगिक है। स्त्रियों को लेकर जो कुविचार उस वक़्त था, वह लगभग निमित मात्र आज भी हमारे समाज में विद्यमान है। शायद, इसलिए ही इस नाटक को आज भी उतने ही चाव से देखा और खेला जाता है।
स्त्रियों को लेकर जो कुविचार और उनके विचारों सहित, उनकी आकांक्षाओं को दबाए रखने के लिए जो व्यवस्थाएँ समाज ने बनाई थी। उसका ढाँचा धीमे-धीमे ढह रहा है, लेकिन अभी उसे पूर्णरूपेण ख़त्म होने में ना जाने कितने हज़ार साल और लगेंगे।
आज भी स्त्रियों के संग, प्रेम के नाम पर शारीरिक संबंध स्थापित करने के उपरांत उसके गर्भवती होने पर उसे अस्वीकृत कर दिया जाता है। बाक़ी हमारा समाज ऐसी स्त्रियों को एक विशेष नाम देने के लिए बैठा ही है। कोई उसके पक्ष को सुनने-समझने के लिए भी तैयार नहीं होता है। उसे उसकी वेदना के साथ अकेला छोड़ दिया जाता है। जैसे दुष्यंत ने शकुंतला को छोड़ दिया था।
हमारे देश में कई ऐसे प्रांत हैं, जहाँ स्त्रियों की क़ीमत लगाई जाती है, और वह भी इतनी साधारण कि आप जानकर आश्चर्यचकित हो जाएँगे। महज़ हज़ार-दस हज़ार में कोई भी आदमी अपनी पसंद की औरत ख़रीद सकता है। उस बाज़ार में पंद्रह साल से कम उम्र की बच्चियाँ भी ख़रीदी-बेची जाती हैं। वे उन्हें केवल अपनी ज़रूरत के लिए ख़रीदते हैं।
आप विचार कर सकते हैं? यह कितनी शर्मसार करने वाली बात है? यह आज इक्कीसवीं सदी में हो रहा है। जबकि हम हर तरह से विकसित मानव समाज होने का दंभ भरते हैं। फिर स्त्रियों की इस दशा की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
बहरहाल! स्त्रियों के उत्थान के लिए जितनी भी कोशिशें हो रही हैं। वे तमाम कोशिशों को बल तभी मिलेगा, जब हम विचारों में इस बात की स्वीकृति देंगे कि वह भी हमारे समाज और सभ्यता का एक प्रमुख अंग हैं। जिस दिन उन्हें कहने की आज़ादी मिलेगी, जब उन्हें धैर्यपूर्वक सुना जाएगा, तब कहीं जाकर किसी दुष्यंत में किसी भी कारणवश किसी शकुंतला को अस्वीकार करने का साहस नहीं होगा।
नाटक का आरंभ बेहद सुंदर और ऊर्जावान था। लेकिन मध्य में नाटक अपनी गति और ऊर्जा के साथ संघर्ष करता नज़र आता है। निर्देशक प्रो. विदुषी ऋता गांगुली ने मंच-परिकल्पना और नृत्य-संयोजन इतनी ख़ूबसूरती से किया था कि नाटक अपने अंत से पूर्व पुनः गति पकड़ता है। और अंत तक नाटक ऊर्जावान प्रतीत होता है।
प्रकाश-परिकल्पना बेहतर होने के बावजूद भी कुछ महत्त्वपूर्ण दृश्य अँधेरे में होकर रह गए। आज कुछ एक अभिनेताओं को छोड़कर बाक़ियों में उत्साह और ऊर्जा की कमी दिखी। जिसका अंशमात्र प्रभाव नाटक पर भी पड़ा। किंतु सारी दुविधाओं के बाद भी नाटक और उसका मर्म प्रेक्षागृह में बैठे दर्शकों तक मुखर होकर पहुँचा।
दुष्यंत का किरदार कर रहे अभिनेता मजिबुर रहमान अन्य नाटकों की अपेक्षा थोड़े कम ऊर्जावान दिखे, लेकिन वेशभूषा और देह व्यवहार की मदद से किरदार को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल रहे। शकुंतला बनी रीता देवी एक अच्छी अभिनेत्री हैं। उनमें अपार संभावनाएँ हैं। वह आज शकुंतला को और बेहतर और मज़बूत तरीक़े से मंच पर उतार सकती थीं।
नाटक की गति कोरस के अभिनेताओं से बनी रहती है। विदूषक बने अभिनेता प्रतीक बढ़ेरा आज रंग में दिखे। मंच पर उनकी उपस्थिति दर्शकों को अधिक जानदार लगी। अनुसूया और प्रियंबदा बनी अभिनेत्री पूनम दहिया और शिवानी भारतीय अपने किरदार में फब रही थीं। इसके अतिरिक्त सभी अभिनेताओं ने पूरे दम-ख़म से अपने किरदार को निभाया।
नाटक का अंतिम दृश्य विचार का विषय बनता है। जब दुष्यंत को यह ज्ञात होता है कि अंतःपुर की किसी भी रानी के गर्भ से बालक ने जन्म नहीं लिया है, तब वह शकुंतला के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए अपने अनुचरों को भेजता है। उसे शकुंतला को खोज निकालने के उपरांत यह ज्ञात होता है कि उसने एक सुंदर बालक को जन्म दिया है। वह ख़ुश होता है कि अब उसे उसका उतराधिकारी मिल गया।
वह भरत को अपने साथ लेकर चला आता है। शकुंतला से साथ चलने का अनुरोध करता है, जिसे वह अस्वीकार कर देती है। जिस स्त्री की उपेक्षा की, पुनः उसके पास किस लिए लौटे? प्रेम? पश्चाताप? या फिर कुछ और?
यहाँ पर स्त्रियों के त्याग, समर्पण, धैर्य और अथाह स्नेह की भावना का पता चलता है। और साथ ही यह भी कि पुरुषों ने स्त्री-मन से कहीं अधिक केवल स्त्री-तन का अध्ययन किया है। दुष्यंत अपने पुत्र, जिसे उसने गर्भ में होने पर उसका पिता होना स्वीकार नहीं किया था। उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए ढूँढ़ निकालता है। लेकिन शकुंतला जिससे उसने प्रेम किया। उसे वह अपने सामने होने पर भी पहचान नहीं पाया था। शाप का प्रभाव हो या कुछ और, अग्निपरीक्षा और वन में जीवन बिताना सदैव स्त्रियों के ही हिस्से क्यों आता है?
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
22 फरवरी 2025
प्लेटो ने कहा है : संघर्ष के बिना कुछ भी सुंदर नहीं है
• दयालु बनो, क्योंकि तुम जिससे भी मिलोगे वह एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है। • केवल मरे हुए लोगों ने ही युद्ध का अंत देखा है। • शासन करने से इनकार करने का सबसे बड़ा दंड अपने से कमतर किसी व्यक्ति द्वार
23 फरवरी 2025
रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’
• मैंने Meta AI से पूछा : भगदड़ क्या है? मुझे उत्तर प्राप्त हुआ : भगदड़ एक ऐसी स्थिति है, जब एक समूह में लोग अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से भागने लगते हैं—अक्सर किसी ख़तरे या डर के कारण। यह अक्सर
07 फरवरी 2025
कभी न लौटने के लिए जाना
6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा कर
25 फरवरी 2025
आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ
आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ, सच पूछिए तो अपनी किस्मत सँवार रहा हूँ। हुआ यूँ कि रिटायरमेंट के कुछ माह पहले से ही सहकर्मीगण आकर पूछने लगे—“रिटायरमेंट के बाद क्या प्लान है चतुर्वेदी जी?” “अभी तक
31 जनवरी 2025
शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...
शैलेंद्र और साहिर लुधियानवी—हिंदी सिनेमा के दो ऐसे नाम, जिनकी लेखनी ने फ़िल्मी गीतों को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उनकी क़लम से निकले अल्फ़ाज़ सिर्फ़ गीत नहीं, बल्कि ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और समाज क