पत्रकारिता के दुर्दिनों में, यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए
श्वेता त्रिपाठी
14 अक्तूबर 2025

हॉस्टल में शाम की चाय और रात के खाने के वक़्त पर यूट्यूब पर कुछ देखना भी दिनचर्या का लगभग अनिवार्य हिस्सा बन गया है। आज शाम को जब इस अनिवार्यता की पूर्ति के लिए यूट्यूब खोला तो सबसे ऊपरी पंक्ति में ही प्रकट हुई यह फ़िल्म—‘न्यू दिल्ली टाइम्स’।
इसके थंबनेल में फ़िल्म का पोस्टर था जिसमें शशि कपूर, ओम पुरी और शर्मिला टैगोर नज़र आ रहे थे। कैप्शन में लिखा था—रेयर पॉलिटिकल थ्रिलर और थोड़ी खोजबीन करने पर पता लगा कि 1986 में इस फ़िल्म को तीन फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिले थे।
यह फ़िल्म केवल इसलिए भी देख ली जा सकती थी क्योंकि इसमें शशि कपूर थे। शशि जी मेरे सबसे पसंदीदा हीरो थे। केवल एक्टर नहीं, हीरो। उन फ़िल्मों में, जिनमें अमिताभ बच्चन और शशि कपूर ने साथ-साथ किरदार निभाए, उनमें भी मैंने शशि जी को ही चुना। चाहे वो ‘दीवार’ हो या ‘सुहाग’।
‘सिलसिला’ में जब शशि कपूर के किरदार की मौत हो गई तो मैंने तुरत ही फ़िल्म बंद कर दी थी और सोचने लगी थी कि कौन-सा ज़ालिम कहानीकार है जिसने शशि कपूर को मरने दिया। शशि कपूर की कोमलता अगर फ़िल्म से चली गई तो केवल बच्चन की कठोरता के बल पर तो मैं बची हुई ‘सिलसिला’ नहीं काट सकती थी। मैं कुछ देर तक विचलित ही रही कि अगर इस किरदार को मरना ही था तो किसी और से करा लेते, शशि जी से क्यूँ कराया? बहरहाल, कास्टिंग डायरेक्टर को कोसने के बाद मैंने किसी दूसरे दिन बची हुई ‘सिलसिला’ देख ली।
‘न्यू दिल्ली टाइम्स’ देखने की एक वजह तो ख़ुद शशि कपूर थे। लेकिन उनसे भी ठोस कारण फ़िल्म का नाम था जिससे इतना तो स्पष्ट ही था कि इसमें अख़बार, मीडिया और इस पेशे के लोगों की कहानी मिलेगी। मैं हमेशा से इस पेशे में आना चाहती थी। शशि कपूर पसंद थे लेकिन पत्रकारिता तो शाश्वत प्रेम है। अब भी लगता है कि जिस दिन भी मौक़ा लगा यहाँ से कट लूँगी और किसी छोटे/मध्यम/बड़े पत्रकारिता संस्थान में पाई जाऊँगी। अगर न भी जा सकी तो भी किसी-न-किसी तौर इस क्षेत्र से जुड़ी रहना चाहूँगी।
एक तीसरी वजह जिसने कैटालिस्ट का कार्य किया, वह था यूट्यूब पर इसका कैप्शन। रेयर भी, पॉलिटिकल भी, थ्रिलर भी। लिहाज़ा, बटन दबा दिया गया और कहानी कुछ यूँ रवाना हो चली—
मूलतः गाज़ीपुर के विकास पांडेय (शशि कपूर) दिल्ली में न्यू दिल्ली टाइम्स नाम के एक अख़बार में संपादक हैं, बड़े-बड़े राजनीतिक शख़्सियतों के साथ उनके संबंध हैं और उनकी पत्नी निशा (शर्मिला टैगोर) वक़ालत के पेशे में हैं। दोनों की उम्र चालीस और पचास के बीच की कोई संख्या होगी। विकास पांडेय दो घटनाओं की तह तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं। पहली, ग़ाज़ियाबाद में शराब पीने से पचास लोगों की मौत और ग़ाज़ीपुर में एक दलित विधायक भलेराम की हत्या व दंगे।
उनकी खोज उन्हें बाग़ी विधायक अजय सिंह (ओम पुरी) तक ले जाती है। अजय सिंह एक बाग़ी विधायक हैं, जो लगभग हर प्रकार के ग़ैरक़ानूनी धंधे में हैं, यहाँ तक कि ग़ाज़ियाबाद के शराब कांड में भी शक की सुई इन्हीं की ओर रुकी हुई है। फिलवक़्त अजय सिंह, वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेदी की सरकार गिराने की तैयारी में विधायकों के जोड़-तोड़ में लगे हैं।
विकास अजय सिंह के ख़िलाफ़ ख़बरें और लेख लिखते हैं। इसे लेकर अजय और विकास में तनातनी होती हैं और अख़बार के नये कर्ताधर्ता जे.के. (कुलभूषण खरबंदा) को ‘बिज़नेस’ के लिए यह उचित नहीं लगता। वह विकास को अख़बार से हटाकर किसी मैगज़ीन का एडिटर बना देना चाहते हैं। इसी बीच विकास पर एक हमला भी होता है। लेकिन धीरे-धीरे सामने आता है कि असली खिलाड़ी मुख्यमंत्री त्रिवेदी है, जिसने अपने प्रतिद्वंद्वी अजय सिंह को साधने के लिए विकास जैसे कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार का इस्तेमाल कर लिया। उसने अजय सिंह को कोई सरकारी पद देकर संतुष्ट भी कर लिया है। विकास ख़बरों में त्रिवेदी और अजय सिंह को एक साथ देख रहे हैं और सोच रहे हैं कि कैसे त्रिवेदी ने उनका और उनकी क़लम के ज़ोर का भरपूर उपयोग कर लिया।
विकास इन परिणामों से निराश तो होता है लेकिन फिर इस सीख को ध्यान में रखते हुए, उसी लगन और ईमानदारी से अपने अख़बार के संपादन का काम सँभाल लेता है। वही अख़बार जिसका नाम है—न्यू दिल्ली टाइम्स, जिसका नया मालिक अपने इस एडिटर की ईमानदारी की वजह से चिंतित है और उसे किसी मैगजीन का एडिटर भर बना देना चाहता है। वही अख़बार जिसके संपादन के कारण विकास पर हमले होते हैं। वही अख़बार जो सत्तासीन लोगों की नाराज़गी का सबब है। जो उसके जी का जंजाल है लेकिन कर्तव्यनिष्ठा का दस्तावेज़ भी। वही अख़बार—न्यू दिल्ली टाइम्स।
यह फ़िल्म सुखांत नहीं है, दुखांत भी नहीं। सुख-दुख, अच्छा-बुरा, सब फ़िल्म के दौरान ही होता है, उसके लिए अंत का इंतज़ार क्यूँ करें। अंत तो वह है जो सही मायने में पत्रकारिता और राजनीति की टाक्सिक रिलेशनशिप का सच है। यह फ़िल्म दरअस्ल यथार्थ है। इसमें कहीं पत्रकार ही हीरोगिरी और राजनीति की ‘विलेनत्व’ का चित्रण नहीं है। आख़िर में किसी दोषी को सज़ा और नायक को इनाम नहीं मिला। न नायक मरा, न प्रति नायक। सब अपने अपने काम पर दोबारा लौट गए। वैसे-ही-जैसे अस्ल दुनिया में होता है।
पहले चरण में, हत्याएँ होती हैं, दंगे कराये जाते हैं, लोग मरते हैं—कभी जहरीली शराब से, कभी रेल दुर्घटना में, कभी पुल टूटने से। दूसरे चरण में छपते हैं लेख, लगते हैं आरोप, दिए जाते हैं बयान, की जाती है ‘राजनीति’ और तीसरे चरण में, तमाम हो-हल्ले के पश्चात् मामला शांत हो जाता है, ठंडे बस्ते में चला जाता है, फाइल बंद हो जाती है और जाँच आयोग अपनी-अपनी अप्रकाशित रिपोर्टों को साथ लिए जाने कहाँ खो जाते हैं।
फ़िल्म शुरुआत से ही एक मूल प्रश्न लेकर चलती है कि अगर लिखने से इंक़लाब नहीं आता तो क्या लिखना छोड़ दें? और आख़िर में इसका उत्तर देती हुई, ख़त्म हो जाती है, यह बताते हुए भी कि इंक़लाब नहीं आएगा फिर भी लिखो।
हालाँकि पत्रकारिता कभी अच्छे दिनों में नहीं रही। कम-से-कम इस देश में तो नहीं ही। साल और सरकार चाहे जो भी रही हो। दक्षिणपंथ मज़बूत रहा हो या वाम। निज़ाम की तोप के मुक़ाबिल खड़ा होना ही जिसका धर्म हो उसे अच्छे दिनों की उम्मीद पालनी भी नहीं चाहिए। लेकिन जिस वक़्त इसका एक बड़ा हिस्सा निज़ाम का तोपची हो जाने को आतुर हो, पत्रकारिता के उन दुर्दिनों में, यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए।
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श्वेता त्रिपाठी को और पढ़िए : पूर्वांचल के बंकहों की कथा
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