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कविता मुझे कहाँ मिली?

आज कविता लिखना सीखते हुए मुझे तीन दशक से ज़्यादा समय हो गया और अब भी मैं सीख ही रहा हूँ, क्योंकि मेरे अनुभव का निष्कर्ष यह है कि किसी ज़माने में सौरव गांगुली ने जो बात क्रिकेट के लिए कही थी, वह सृजन की दुनिया की भी सचाई है—“क्रिकेट में हम हर दिन ज़ीरो से शुरू करते हैं।”  

इतने बरसों के दरमियान यह ख़याल प्रश्न की तरह कभी ज़ेहन में आता है और कभी कोई पूछता भी है कि कविता इस समाज में मुझे पहलेपहल कहाँ मिली; तो याद आता है कि मेरे पिता कविता-प्रेमी थे और लड़कपन में मुझे अपने साथ कवि-सम्मेलनों में ले जाते थे। 

यह सन् 1980 से 83 के बीच की बात है और ऐसे कम-से-कम दो बड़े सम्मेलनों का मुझे स्मरण है। तब मंचीय कविता का भी एक स्तर था। नीरज, सोम ठाकुर, मुकुट बिहारी ‘सरोज’ जैसे कवियों को हज़ारों श्रोताओं के स्वागत, सराहना और करतल-ध्वनि के बीच पहली बार मैंने वहीं सुना। उनकी पंक्तियों से मैं प्रभावित होता और वे मुझे याद हो जातीं। 

फिर जब नवीं कक्षा का इम्तिहान देकर गर्मी की छुट्टियों में गाँव में अपने घर आया, तो पिताजी की निजी लायब्रेरी में रखी जयशंकर प्रसाद की काव्यकृति ‘आँसू’ मेरे हाथ लग गई और उसके सौंदर्य, संगीत और मार्मिकता से मैं अभिभूत रह गया।

मुझे लगा कि कविता का यह संसार इतना सुंदर और उदात्त है कि मुझे भी इसमें प्रवेश करने और इसका नागरिक बनने की कोशिश करनी चाहिए। इंटरमीडिएट के दिनों से छंद में लिखने का प्रयास करने लगा।

जब 1989 में लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. में दाख़िला लिया, तब तक मैं गीत लिखने लगा था और फिर धीरे-धीरे छंदमुक्त या अतुकांत कविताएँ भी करने लगा। विडंबना है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ लोकप्रिय नहीं हैं, इसलिए उनकी जानकारी आम लोगों की तरह मुझे भी नहीं थी। 

ले-देकर नई रचनाओं के लिए तत्कालीन समाचार-पत्रों, ख़ास तौर पर ‘नवभारत टाइम्स’ पर निर्भर था और ‘कादंबिनी’ एक मात्र साहित्यिक पत्रिका जान पड़ती थी। लिहाज़ा ‘कादंबिनी’ में छपने के लिए अपनी कविताएँ भेजने लगा। 

तुरत कामयाबी तो नहीं मिली, लेकिन कुछ ही समय में उसके एक कॉलम ‘प्रवेश’ के अंतर्गत मेरी कुछ कविताएँ, चित्र और वक्तव्य के साथ प्रकाशित हुईं और बाद में एक और अंक में स्वतंत्र रूप से भी एक कविता प्रकाशित हुई। सराहना और प्रोत्साहन करते हुए संपादक राजेंद्र अवस्थी का एक पत्र भी मेरे पास आया। 

लखनऊ में विद्यार्थी जीवन में कविता का संस्कार अर्जित करने के लिए किससे मिला जाए, यह सोचते हुए मैं वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से मिलने गया, क्योंकि उनका एक कविता-संग्रह मैंने पढ़ा था और मुझे किसी ने बताया कि वह सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में उप-निदेशक हैं। इसलिए उनके दफ़्तर मैं अनेक बार गया। 

शायद पहली बार जब उन्होंने मेरे बारे में पूछा, तो मैंने ज़रा गौरव से—जो कि मेरा अज्ञान ही था—बताया : “मेरी कविताएँ ‘कादंबिनी’ में छपी हैं।” 

जगूड़ी जी बोले—“‘कादंबिनी’ तो कोई पत्रिका ही नहीं है।” 

मैं निःशब्द रह गया। फिर उन्होंने संस्कृत कवि माघ और धूमिल के बारे में पूछा— “क्या आपने इन कवियों को पढ़ा है?” 

और मेरे ना कहने पर सादगी और अपनेपन से सलाह दी—“पढ़ना चाहिए।” 

जगूड़ी जी अभिमान और कड़वाहट के बरअक्स हमेशा सहज विनम्रता और माधुर्य के साथ मिले और उन्होंने निरंतर पढ़ने-लिखने की ही प्रेरणा दी। उन्होंने मुझे बताया कि साहित्यिक पत्रिकाएँ अमीनाबाद में ‘इंडियन बुक डिपो’ में मिलेंगी। इसलिए वहाँ जाकर मैं ज़िंदगी में पहली बार ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘साक्षात्कार’ जैसी पत्रिकाओं से परिचित हुआ और उन्हें ख़रीद लाया। 

लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रावास हबीबुल्लाह हॉल के अपने कमरा नंबर 29 में लौटते हुए मैंने सोचा कि अगर ‘कादंबिनी’ कोई पत्रिका ही नहीं है—जैसा कि लीलाधर जगूड़ी ने कहा है और ठीक ही कहा होगा—तो उसमें छपी मेरी कविताएँ भी कविता नहीं होंगी या कविता से कुछ कम होंगी और अब मुझे नए सिरे से लिखना सीखना होगा।

बी.ए. के ही दिनों में एक बार गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने गाँव तिश्ती आया—जो आर्थिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े एक जनपद कानपुर देहात में कन्नौज के नज़दीक पड़ता है—तो किराने की दुकान में कुछ सामान लेने गया। 

देखा कि दुकानदार दो किताबों से पन्ने फाड़कर, उनमें सामान बाँधकर बेच रहे हैं। सहज जिज्ञासा से मैंने उलट-पलटकर पाया कि वे दो किताबें थीं : राजकमल प्रकाशन से पेपरबैक संस्करण में छपी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और श्रीकांत वर्मा की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’। 

श्रेष्ठ कविताओं की वह दुर्गति देखकर मैं दंग रह गया। अभी उनके शुरुआती कुछ पन्ने ही फटे थे, इसलिए याद है कि मैंने उस ज़माने में रद्दी समझ ली गई उन किताबों को महज़ दो रुपयों में उन दुकानदार से ख़रीद लिया। मैं स्वीकार करूँ कि जिसे समकालीन कविता कहा जाता है, उसका आरम्भिक प्रशिक्षण मुझे इन्हीं किताबों से मिला। 

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और श्रीकांत वर्मा की बहुत-सी कविताएँ शब्दशः याद हो गईं और मेरे जीवन-विवेक, संवेदना और सौंदर्य-दृष्टि पर उनका गहरा असर पड़ा। सर्वेश्वर जी की एक कविता—जिससे मैं चकित और अभिभूत रह गया था—हमेशा याद रहती है :

जूता

तारकोल और बजरी से सना 
सड़क पर पड़ा है 
एक ऐंठा, दुमड़ा, बेडौल 
जूता।

मैं उन पैरों के बारे में 
सोचता हूँ 
जिनकी इसने रक्षा की है 
और 
श्रद्धा से नत हो जाता हूँ।

इसलिए मेरा मानना है कि ज़्यादातर कविता-विरोधी और कविता-विमुख हिंदी समाज में—जहाँ बड़े कवियों की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ भी कभी-कभी रद्दी में बेच दी जाती हों—कवियों को कविता लिखने, उनकी किताबें प्रकाशित करने और उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा जन-समाज तक ले जाने की जद्दोजेहद जारी रखनी चाहिए; क्योंकि उनमें-से अच्छी रचनाओं को कोई रद्दी में फेंक देगा, तो भी मेरे जैसा कोई उन्हें अपने घर ले आएगा और उनसे अपनी आत्मा को आलोकित करेगा।

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