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न भेंट, न वार्ता... सिर्फ़ रायता

यह उस समय की बात है; जब मेरा स्नातक हो चुका था, लेकिन डिग्री अभी हाथ न लगी थी। मैं तब तक उदय प्रकाश की कहानियों का दीवाना हो चुका था। उनसे मिलने से बहुत पहले, मैं उनकी किताबों से मिल चुका था। मैं उनसे और उनकी लिखी लगभग हर किताब के सम्मोहन में था। उस वक़्त तक प्रेमचंद, रेणु, निर्मल, अज्ञेय, कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह अपने लिखे के रूप में मेरे सामने से गुज़र चुके थे। इस गुज़रने में हुआ यह कि इन सभी ने मिलकर मेरे हृदय का ढेर सारा हिस्सा घेर लिया था, वैसे ही जैसे कबीर से गुज़रते वक़्त कबीर भी मेरे भीतर से गुज़रे और उनकी आत्मा का एक छोटा-सा अंश मेरे भीतर छूट गया था। डर था कि स्टोरेज फुल न हो जाए और मैं हैंग न होता फिरूँ। लेकिन मैं मशीन नहीं, मनुष्य था।

“हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर”—किताबें तमाम लोगों की तरह मेरे जीवन में गुरु की तरह आईं और अब भी मैं उनके आश्रय में हूँ। उन्होंने इस दीपक में तेल भरा, ‘बाती दिया अघट्ट...’

मैंने एक रोज़ उदय प्रकाश से समय माँगा। उन्होंने वक़्त दे भी दिया। मैं संकोच से भरा हुआ था और जिज्ञासा से भी कि ‘संवेदना और चेतना’ को मूर्त रूप में देखना कैसा होगा? मैं दिए गए पते पर पहुँचता, इससे पहले ही ग्रह-नक्षत्र अपना स्थान बदल गए थे। घड़ी की तीनों सुइयाँ भाले की तरह मेरी तरफ़ तनी हुई थीं। मेरा मोबाइल चोरी हो गया था। ऑटो से उतरते ही मैंने व्हाट्सएप पर पता देखना चाहा, लेकिन वह नदारद था। मैंने घबराकर कई दफ़ा जेबें तलाशीं। नज़र ऊपर उठाई तो देखा ऑटो वाला थोड़ी दूर जा चुका था। मैं भागता हुआ पहुँचा। ऑटो चेक किया और उससे पूछताछ की, लेकिन उसने शंकराचार्य की ‘नेति नेति’ मुद्रा में सिर लाया। राहगीरों से मैंने मदद माँगी, उन्होंने दी भी। मेरे गुम हो गए मोबाइल पर उन्होंने कॉल किया, लेकिन फ़ोन की चैतन्य अवस्था को किसी ने ताला मार दिया था।

मैं चौराहे पर खड़ा था और उदय जी के पास जाने के लिए अब मेरे पास कोई पता नहीं था और न ही किसी से माँग सकता था। मेरा मन उमड़-घुमड़ रहा था। न पहुँचा तो उदय जी क्या सोचेंगे भला? क्या सोचेंगे मेरे बारे में? मैं अपनी लापरवाही के सबब उनके विचार का बिंदु नहीं हो सकता था। ब्रह्मांड के अनंत ज्ञान और सर्जक के बीच सीधा संबंध होता है; प्लेटो याद आ रहा था, अरस्तु भी कुछ बुदबुदा रहा था। इस गर्मी में, इस चौराहे पर आइंस्टीन अपनी सापेक्षता का सिद्धांत लेकर घूम रहे थे। स्पेस, समय और हमारे अस्तित्व के बारे में उनकी गहरी चिंता थी। उनके बाल उलझे हुए थे और ऐसा लग रहा था किसी ने उन्हें इलैक्ट्रिक शॉक दे दिया हो।

आइंस्टीन अपने समय से आगे के थे। मैंने उनसे कहा, ‘‘महाराज बहुत परेशान हूँ इस वक़्त। आपकी बहुत इज़्ज़त है मेरे मन में। सब कुछ सुनूँगा और गुनूँगा, लेकिन यह सही समय नहीं है। मैं बहुत परेशान हूँ। मन शांत नहीं है। माना कि मन-समुंदर में पानी के बुलबुले उठ रहे हैं और उस पानी को किसी ने गर्म कर दिया है। लेकिन इस तरीक़े की बातें सोचने का यह भला कौन-सा वक़्त है, भला कौन-सी जगह है?’’

मेरी देह पसीने से तर-ब-तर थी और सूरज आसमान से उतरकर मेरे भीतर ही घुसा चला आ रहा था। जेठ का महीना था। जायसी भी अपना बारहमासा लेकर दूर खड़े मुझे देख रहे थे। मैंने कहा, ‘‘ना-ना महाराज बिल्कुल नहीं।’’ लेकिन उस चौराहे पर ‘सतसईया’ वाले बिहारी भी घूमते हुए मिले। वह मुझे ही ढूँढ़ रहे थे। मैंने मिलते ही उनसे उदय जी के घर का एड्रेस पूछ लिया। क्या पता बिहारी उदय जी को जानते हों? कवियों के साथ यह एक बड़ी समस्या है कि जहाँ कोई सहृदय मिल जाए, उसे पकड़कर कविता सुनाने लगते हैं।

मेरे दिमाग़ में बहुत से कवि मौजूद हैं। भीड़ ज़्यादा है; इसलिए अपनी कविता सुनाने के लिए बहुत बार चढ़ा-ऊपरी भी हो जाती है, लेकिन इनका स्वाभिमान देखिए—चाहे कविता सुनाए बिना रह लें, लेकिन सहृदय को ही सुनाएँगे। भारवि इनके पूर्वज ठहरे, इसलिए लगातार वे किसी और सहृदय की तलाश में रहते हैं। बिहारी ढीठ हैं। भक्तिकालीन मर्यादा लेकर क्या करते! सो शुरू हो गए, ‘‘देखि दुपहरी जेठ की, छाहौं चाहति छांह।’’ यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन मैं यह देखकर दंग रह गया कि अपनी नायिकाओं को भरी दुपहरी में लेकर भला इस चौराहे पर क्या कर रहे हैं? हालाँकि मैं जानता था दरबार अब नहीं रहे थे। बेचारी कोमलांग सुकुआर विरह से दग्ध नायिकाएँ; जिनके विरह-ताप से इत्र की शीशी की शीशी पलक झपकते ही उड़ जाती है, थोड़ी-सी हवा से छह-सात हाथ आगे-पीछे खिसक जाती हैं, इतनी पतली कमर कि कमर कंगन में समा जाए... मैंने हाथ जोड़ लिए और शुक्ल जी की तरह नसीहत दे डाली कि मर्यादित रहिए, वरना ऐसे तो आपकी इज़्ज़त का फालूदा हो जाएगा। इन्हीं कारणों से आचार्य शुक्ल ख़फ़ा रहे होंगे, यूँ ही कोई बेवफ़ा नहीं होता!

अचरज की बात ‘सर्जक से उसकी कृति के पात्रों के रिश्ते’ के संदर्भ में अभी सोच ही रहा था कि कोई भारी आलोचक बुदबुदे की तरह मानस-पटल पर व्याख्यान देने प्रकट हो गए। मैंने उन्हें ‘कीन्ह दूर ते दंड प्रणाम...’ वह मुझे देखकर हँसे और बोले, ‘‘ऐसे कैसे, बिना व्याख्यान दिए, संवाद किए टस से मस नहीं होऊँगा।’’ उधर एक और मसला उठ खड़ा हुआ। बिहारी की नायिकाओं के संदर्भ में कुछ सशक्त स्त्री-विमर्शकार मेरा विरोध करने लगे। आप लोग तो साक्षी हैं कि मैंने कुछ भी ऐसा नहीं बोला था, जिससे कोई भी आहत हो या किसी के सम्मान को चोट पहुँचे। मैं तो ‘पाठ के भीतर’ झाँकने वाला आदमी ठहरा, लेकिन कुछ ‘भारी-भरकम’ स्त्री-विमर्शकारों के बुलबुले लगातार मेरे ऊपर फूटने लगे। लीगल-नोटिस भेजने की नौबत आ गई। उन्होंने इस ‘भारी भरकम’ शब्द पर भी आपत्ति जताई और बॉडी शेमिंग करने की तोहमत बख़्शी।

‘मोहि का हंसेसि कि कोहरहि’—मुझ पर हँस रहे हो या मेरे कुम्हार पर—जायसी की इस पंक्ति को आत्मसात् किए हुए मैं स्त्री-विमर्शकारों की ज़द में था। मैंने सफ़ाई देनी चाही; लेकिन बात न बढ़ जाए, इसलिए चुप ही रहा।

आलोचक जी ने जायसी का जैसे ही नाम सुना, अपनी कमान सँभाल ली। मेरी तरफ़ देखते हुए हँसकर बोले, ‘‘यही सब आत्मसात् करो। जायसी को करो, मंझन को करो, क़ुतुबन को करो, उस्मान को करो। मैंने बोला था न कि जो काम इस्लाम का कट्टर रूप नहीं कर पाया, सूफ़ियों ने कर दिखाया।’’ मैंने आलोचक महोदय को जवाब देना चाहा। जवाब की शक्ल प्रश्नात्मक थी, ‘‘आपने कभी कविताओं को सहृदयता से पढ़ा है? कभी आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर रचनाओं के पास गए हैं?’’

आलोचक महोदय फिर हँसे—यह सोचते हुए कि मछली फँस गई है। मछली मैं था, मछुआरा आलोचक महोदय। आलोचक महोदय ने शास्त्रार्थ शुरू किया, ‘‘मेरी आपत्ति आपके इस ‘सहृदयता’ और ‘पूर्वाग्रह’ शब्दों से है। सहृदय आप सबके साथ नहीं हो सकते। यह देश इसी उदारता के कारण ठगा आता रहा है। मर्सिया तो जानते ही होंगे। नायक की उदारता उसके पतन—मृत्यु—का कारण बनती है। महावीर, बुद्ध और आपके गांधी ने अहिंसा-अहिंसा खेलकर इस देश को कापुरुषों से भर दिया, बेड़ा ग़र्क़ कर दिया, ग़ुलाम बना दिया। कौन कहता है कि लोगों की ग़ुलाम-मानसिकता चली गई है? वह तो भीतर घर कर गई है। अंदर बैठी है चुपके से! जैसे आपके भीतर सूफ़ी-वूफ़ी। वह समय देखकर आपके मस्तिष्क पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारेगी और आपका मुँह नोच लेगी।’’ उन्हें कुछ याद आया, ‘‘हाँ तो मैं क्या बोल रहा था कि सहृदय होने का भी एक विवेक होता है, जो किसी-किसी में होता है। शेष सारे भेड़ हैं—जहाँ हाँक दो चले जाएँगे और इसके शिकार आप जैसे संवेदनशील युवा ही सबसे ज़्यादा हैं। दूसरी आपत्ति आपके ‘पूर्वाग्रह’ शब्द से है; जिसे आप पूर्वाग्रह मानते हैं, उसे मैं परंपरा मानता हूँ। जो पुरखों की विरासत मिली है उससे कटकर, उस कटु अनुभव को छोड़, जड़ों और पूर्वजों को ताख पर भला मैं क्यों रख दूँ?’’

मैं चकित था। आलोचना के नाम पर इतना कुपाठ! क्या आलोचक सच में अब नहीं रहे। दुनिया के बहुत से प्राणियों पर अस्तित्व का संकट गहरा रहा है। इधर बीच ये बातें बहुत जगह सुनी थीं; लेकिन सबसे पहले आलोचकीय विवेकसंपन्न व्यक्ति ही लुप्त हो जाएगा, यह मैं नहीं जानता था। हाय विधाता! ‘कस विधि रची सृष्टि!’ माया नहीं समझ में आती! माया से याद आया कि इसी देश में शंकराचार्य भी बड़ी कम उम्र में स्वर्गारोही, नहीं-नहीं ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ को प्राप्त हो गए। क्या अद्भुत दर्शन रहा उनका! आलोचक महाशय के इस शास्त्रार्थ को देख वह क्या कहते? लेकिन उनके अनुसार ब्रह्म तो यह आलोचक भी ठहरा। माया का पर्दा हटे तो हम जान पाएँ कि वास्तविकता साँप है या रस्सी! समझना कठिन है। कौन समझ सका है यह माया? कितने लोग हटा सके यह पर्दा अपनी आँखों से। ‘माया महाठगनी हम जानी’ और तिस पर उसके पास त्रिगुनिया फाँस भी है। मैं क्या ही हटा पाऊँगा इस आलोचक की आँख से माया का पर्दा!

यह भी हो सकता है कि माया की फाँस मोतियाबिंद की तरह मेरी आँख पर ज़्यादा छाई हो। अब तो किसी भी उम्र में मोतियाबिंद होने लगा है। ‘पर्दा’ से यशपाल की कहानी याद हो आई, जिसे पढ़कर किसी ज़माने में मैं रो पड़ा था। सुनने में आया था यशपाल भी चंद्रशेखर आज़ाद की टीम में थे। लोग कहते हैं कि शायद बाद में माफ़ी-वाफी माँग लिए थे। फिर अद्भुत रच गए। नोबेल मिल सकता था अज्ञेय को, लेकिन नोबेल समिति ने उन्हें टोने के लिए जो चावल उठाया था उसकी पीठ पर टी.एस. एलियट का बैताल बैठा था।

मैं यह सोच ही रहा था कि तब तक आलोचक महोदय किलके, ‘‘अरे-अरे कहाँ खो गए हो महोदय? दिमाग़ सुन्न हो रहा है और पसीना भी इतना आ रहा है आपको। आपके पास मेरे अकाट्य जवाब का कोई प्रत्युत्तर नहीं होगा—आपकी घबराहट और यह पसीना स्वयंसिद्ध प्रमाण है। यही सात्विक अनुभाव होता है। लेकिन ख़ुशीमिश्रित मलाल रह गया मुझे। ख़ुशी इस बात की है कि मेरे तर्क की धार के सामने आप तुरंत लेट गए और मलाल इस बात का कि मेरी खोज, मेरा काम, मेरी किताब होते-होते रह गई। पूरी हुई नहीं, बहस देर तक चली नहीं और आपको देखने से लगता नहीं कि आप शास्त्रार्थ करने की स्थिति में है। नामवर होने के लिए आलोचकों को नगेंद्र या रामविलास शर्मा की ज़रूरत होती है कि काटा-कटौउल में एक किताब आलोचना की बन पड़े—‘कविता के नए प्रतिमान’ ही देख लीजिए।’’

आलोचकों की यही रचना-प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया पर लोग सवाल उठाते हैं? मैं कहता हूँ कि आपके पास दम है तो लिख दीजिए भैया इससे बेहतर किताब। हो जाइए नामवर! साहित्य अकादेमी झट से ले लीजिए, वह भी आलोचना की किताब पर। यह फिर भी छोटी बात है—किताब लिख देना या साहित्य अकादमी पा लेना। किसी अपने को साहित्य अकादेमी दिलाने का सामर्थ्य और तर्क पा लेना आलोचक होने की सच्ची सिद्धि है। लोग बताते हैं कि नामवर सच्चे सिद्ध आलोचक थे। हर वक़्त सिद्ध पैदा नहीं होते, इसीलिए देखिए फिर दूसरे नामवर नहीं हुए। मेरे सपने में बहुत बार वह पान माँगने आते हैं।

हद है! मेरा प्रिय लेखक मेरे इंतज़ार में है और मेरा मोबाइल खो गया है। मैं चौराहे पर खड़ा हूँ और मेरे दिमाग़ में ये सब चल रहा है। तनाव के क्षण में दिमाग़ को चैनलाइज़्ड करना कठिन होता है। आलोचक जी की बात सुनकर मैं हतप्रभ था कि आलोचना तो ग़ज़ा-सीरिया-यूक्रेन हुई जा रही है! माया का आलम यह है कि समसामयिक आलोचक ख़ुद को ट्रंप और पुतिन मान बैठे हैं और जो नहीं मान बैठे हैं, दूसरी पंक्ति में खड़े शी जिनपिंग की तरह मुस्कुरा रहे हैं।

आलोचक महोदय बहुत देर मेरा हाथ पकड़े रहे थे। मेरा हाथ गर्म लग रहा था। केदार जी दुनिया को इसी गरमाहट से वाक़िफ़ कराना चाहते थे कि मनुष्यता और उनके बीच उष्णता बनी रहनी चाहिए। मेरा पसीजा हुआ हाथ और जेठ की दुपहरी देखते हुए केदार जी ने मेरी हथेलियों से हाथ खींच लिया। माफ़ करिएगा भावुकता में मैं थोड़ा दाएँ-बाएँ बोल गया। मैं खोए हुए मोबाइल को पाना चाहता हूँ। थोड़ा होश आया तो मैं चौराहे से किनारे पर खड़ा हो गया, बीच रास्ते में एक्सीडेंट होने का डर था। किनारा दाएँ था या बाएँ—यह प्रश्न पूछ रहे हैं आप? इस बात पर इतनी उदासी से मैं भी हँस सकता हूँ, लेकिन त्रासदी में हँसने पर चेहरा विकृत हो जाता है।

साहित्यिक अभिव्यक्ति न तो पतंग उड़ाना है और न हम सभी बच्चे हैं और न वह हवा के रुख़ से निर्धारित होती है। इसके संवेदनशील कंधों पर दुनिया भर की ज़िम्मेदारी है। हालाँकि ‘कला कला के लिए’ मानने वाले अपने पंख फैलाकर आसमान में स्वच्छंद विचरण कर सकते हैं और दाएँ-बाएँ वाली पक्षधरता से बच सकते हैं और बचते भी हैं। उनके लिए यह सुहूलत भी है कि ऊँट किस करवट बैठ रहा है—उड़ते हुए आसमान से देख सकते हैं और इच्छा हुई तो उसी दिशा में जाकर बैठ सकते हैं। होने को यह भी हो सकता है कि ऊँट जिधर बैठा हो उस दिशा में कोई भी ठीक-ठिकाने का साहित्यकार ही न हो।

बहरहाल, मैं सड़क के किनारे हूँ और बग़ल में नाला है। मैं सड़क और नाले के बीच में धरती और आसमान के दो पाटों के बीच में खड़ा हूँ और बग़ल में एक मदारी वाला आ गया है। वह इतनी धूप में ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है कि साँप-नेवले की लड़ाई दिखाएगा। अभी मेरे सिवा वहाँ कोई नहीं है! मुझे देख वह मेरे अंदर बैठे दर्शक या तमाशाबीन की संभावना तलाश रहा है और मैं आचार्य शुक्ल की सीख गठियाए हुए हूँ—मदारी संभावना से इनकार करता हुआ। अपनी सौंदर्याभिरुचि को कविता के उच्च धरातल से उतरने नहीं देता। हालाँकि वह उतरने के लिए ज़ोर मार रहा है और बाहर आए नेवले को देखना चाह रहा है और कनखियों से देख भी रहा है। नेवले को देख उदय प्रकाश की कहानी ‘तिरिछ’ याद आई। उसे कहानी में शहर को (साहित्य की राजनीति) न समझ पाने वाले पिता याद आते हैं और शहर के रहवासियों (मठाधीश) द्वारा उनकी निर्मम हत्या को याद कर दिल काँप जाता है। सारे बुलबुले फूट जाते हैं। ‘कहाँ जाऊँ दिल्ली या उज्जैन?’ का मामला भी फ़ोन खोने से स्टे पर रख दिया गया है। सोच रहा हूँ घर लौटते हुए एक FIR कर दूँ—मोबाइल गुमशुदगी की, लेकिन लोग बता रहे हैं कि वह तो परमधाम को जा चुका है। ‘पद्मावत’ का हीरामन तोता हो चला है। इस आस में FIR मत कराइए कि वह मिलेगा। इसलिए कराइए कि राघव चेतन उस तोता का मिसइंटरप्रिटेशन कर जान साँसत में न डाल दे। तोता गया तो गया; लेकिन आपकी जान की सलामती बड़ी चीज़ है, इसी सलामती के लिए सभी मूक हैं।

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