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मुग़लसराय से दिल्ली : मित्रता के तीस साल

मेरे एक मित्र हैं सुखलाल जी। उनसे मेरी मित्रता के लगभग तीस साल होने को हैं। वैसे तो वह मेरे साथ दिल्ली महानगर में एक प्रकाशन में काम कर चुके हैं, लेकिन उनसे और नज़दीकियाँ इसलिए हैं कि वह मेरे गाँव क्षेत्र उत्तर प्रदेश के ज़िला ग़ाज़ीपुर से हैं। सन् 1994 में हम दोनों ने साथ ही मुग़लसराय (वाराणसी) के स्नातकोत्तर महाविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। हम लोग साथ ही अपने क़स्बे से ट्रेन से कॉलेज जाते थे। 

अच्छे विचारों वाला एक युवक पढ़-लिखकर जब बेरोज़गार हो जाता है, तो वह दिल्ली आकर कम वेतन की नौकरी करने को मजबूर हो जाता है। मेरे और सुखलाल दोनों के साथ ऐसी ही परिस्थिति बनी। दोनों ही अपने परिवार के साथ दिल्ली में किराए के मकान में रहने लगे। किराए पर रहने का यह सिलसिला हम दोनों के लिए तीस साल से ऐसे ही चल रहा है। 

कम वेतन पर प्रकाशन की नौकरी करके अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर नौकरी के लिए तैयार करना, उनकी शादियाँ करना, यही बहुत है। वैसे मैं— अट्ठावन साल की उम्र में—इस मामले में थोड़ा अधिक व्यवस्थित हो गया क्योंकि बेटा और बेटी दोनों ही अब एक अच्छी प्राइवेट कंपनियों में नौकरी करते हैं। उनकी शादियाँ भी दिल्ली में ही हो गई। 

अब क्योंकि मेरी शादी 21 साल में ही हो गई थी, इसलिए बच्चे जल्दी पैदा हुए और हम आगे ख़ुशहाल जीवन जीने की श्रेणी में आ गए। वहीं सुखलाल की शादी देर से हुई और उसके दोनों बच्चों का जन्म भी देर से हुआ, इसलिए उसके बच्चे अभी पढ़ ही रहे हैं। परिवार के ख़र्च का पूरा बोझ भी उस पर ही है, ऊपर से कमरतोड़ महँगाई। 

कोरोना के बाद प्रकाशन में नौकरी करना और चुनौती भरा हो गया। वेतन भी नहीं बढ़ाया। कर्मचारियों की छटनी भी ख़ूब हुई, हम दोनों ही इसके शिकार हुए; क्योंकि मैं पहले से ही साहित्यिक अभिरुचि का हूँ—कहानियों, कविताओं के सृजन में कुशल हूँ, इसलिए एक सरकारी प्रकाशन में 40 हज़ार वेतनमान पर हुए अनुबंध पर नौकरी करने लगा। गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर रही। 

सुखलाल को दुबारा नौकरी नहीं मिली तो वह शैक्षणिक प्रकाशनों में फ़्री लांस काम करने लगे। इस तरह के काम में मेहनत भी ज़्यादा करनी होती है और पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती है। कोरोना के ठीक बाद की बात है, मेरी अनुबंध वाली नौकरी लगे बीस दिन हो रहे थे। सुखलाल को जैसे ही यह बताया, वह जैसे तिलमिला कर रह गया। वह बोला, यार तुम तो सरकारी विभाग में लग गए। उसके मन में न जाने क्या आया, मैं समझा नहीं क्योंकि मैं भोला-भाला और सरल स्वभाव का हूँ। 

उसने एक रोज़ फोन पर कहा—“मेरी पत्नी के गॉलब्लैडर में पथरी है, ऑपरेशन में तीस हज़ार का ख़र्चा है। मैंने अपने छह मित्रों का चयन किया है, जिनसे पाँच-पाँच हज़ार उधार लेने हैं। आप भी उनमें एक हैं। यह उधार पैसे मैं दो महीने में चुका दूँगा, कई जगहों के काम के पैसे मिलने वाले हैं।”

लेकिन मुझे अभी नई संस्थान में पहला वेतन भी नहीं मिला था। मैं बहुत दुविधा में पड़ा। आज तक न तो किसी से कभी उधार लिया था, न ही दिया था। कई लोगों को देखा था कि उधार देकर अपने पैसे वापस पाने के लिए उधार लेने वाले के आगे गिड़गिड़ाते हुए। 

मन में विचार आया कि सुखलाल मुझसे उधार लेकर कहीं मुझे रक़म वापस न करके, मुझसे मेरी ख़ुशहाली छीनना तो नहीं चाहता! ज़ाहिर-सी बात थी—अपनी मेहनत के धन के प्रति मोह तो होता है और वापस न मिलने पर व्यक्ति के दिन-रात का चैन भी चला जाता है। मुझे लगा ऐसा हुआ तो मैं बीमार भी हो सकता हूँ, जिसके बाद न तो मैं नौकरी कर पाऊँगा न ही कहानी-कविता लिख पाऊँगा। ऐसा सोचते हुए मेरा मन आक्रोश से भर उठा। 

सुखलाल मुझे दुनिया का सबसे ख़राब व्यक्ति लग रहा था, लेकिन मन में एक ख़याल ऐसा भी आया कि मैं तो सरल हूँ, ऐसा क्यों सोच रहा हूँ! मित्र के पत्नी के जीवन का सवाल है। क्या मैं ज़िंदगी में पहली बार किसी ज़रूरतमंद दोस्त को इतनी कम रक़म भी नहीं दे सकता? 

कुछ देर और विचार करने के बाद मैंने यह तय किया कि उसे रूपए दे दूँगा और अगर वह रूपए वापस नहीं भी करता है, तो भी दुखी नहीं होऊँगा। भले ही वह इस जन्म में रूपए न वापस करे। फिर भी, जैसा कहते हैं कि अगले जन्म में वह किसी न किसी रूप में वापस करता ही है।

मैंने अपनी समर्थ के अनुसार सुखलाल को पाँच हज़ार न देकर सिर्फ़ चार हज़ार ही दिए। मुझे लगा कि वह एक हज़ार की कमी तो कहीं से पूरा कर ही लेगा। 

जब मैंने सुखलाल से चार हज़ार रुपए देने को कहा, तो वह फ़ौरन रूपए लेने को तैयार हो गया। मैंने उससे कहा कि यार अभी वेतन तो मिला नहीं है, और मेरे बैंक-खाते में से सिर्फ़ चार हज़ार ही निकल सकते हैं। जबकि मेरे खाते में अस्सी हज़ार रुपए थे। 

वायदे के अनुसार सुखलाल शाम को मेरे घर आ गया रुपए लेने। मैंने उसकी ख़ूब आवभगत की। समोसा, गुलाब जामुन खिलाया; फिर चार हज़ार का चेक साइन करके उसे दे दिया। चेक जेब के हवाले कर के वह हाथ जोड़कर कर आसमान की तरफ़ चेहरा करके बोला—जय माता रानी। जैसे उसे बहुत बड़ी उपलब्धि मिल गई हो। वह बस में सवार हो कर फुर्र हो गया।

इस घटना के बाद छह महीने बीत गए, न तो सुखलाल ने रक़म वापस की, न ही कभी फोन किया। मैंने जब फोन किया तो उसने अन्य विषयों की बातें तो ख़ूब की, लेकिन रक़म वापस करने से जुड़ी कोई बात नहीं की। पत्नी के ऑपरेशन की भी चर्चा नहीं की। तब मुझे यह लगा कि पत्नी के ऑपरेशन का कोई मामला ही नहीं था।

उस बातचीत में सुखलाल ने अलबत्ता मुझसे यह पूछा कि—पांडे जी! मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि आप तो मुझे ज़्यादा रक़म भी दे सकते थे, क्योंकि आप को पुरानी नौकरी से हटते ही नई नौकरी में चले गए थे। फिर जब मैंने उधार में पाँच हज़ार माँगे तो आपने चार हज़ार ही क्यों देना स्वीकार किया?
 
मैंने भी बिना कोई भूमिका बाँधे जो सच बात थी, वह उसे बता दी—“ सच बात तो ये थी मेरे दोस्त कि मेरा मन बोल उठा था; उधार लेकर कोई जल्दी रक़म वापस नहीं करता। सुखलाल भी ऐसा कर सकता है। इसलिए तुम रक़म वापस पाने की इच्छा से उधार न दो। रक़म जो भी दो, उसे भूल जाना।” 

मुझे तब यही विचार आया था कि मैंने नई नौकरी शुक्रवार को शुरू की थी। वहाँ शनिवार, रविवार छुट्टी होती थी और सोमवार को किसी त्योहार की छुट्टी थी। इसलिए मन को ऐसे मनाया कि वह यह मान ले कि मेरे कार्य करने का पहला दिन मंगलवार से है। बीच के तीन दिन जो छुट्टी के पैसे हैं, उसे सुखलाल को देकर भूल जाऊँ। 

इस सबको तीन साल होने को है, सुखलाल रक़म वापस नहीं कर पाया है। फोन करता हूँ, तो रक़म वापस देने की कोई बात नहीं करता, बाक़ी सब बातें देर तक कर जाता है। मैं भी अपनी रक़म नहीं माँगता, क्योंकि मेरे मन के हिसाब में उन तीन दिनों के धनोपार्जन की रक़म तो शून्य है। हाँ, मेरे मन में कहीं न कहीं इस बात की ख़ुशी है कि मैंने कभी अपने एक घनिष्ठ मित्र की संकटकाल में मदद की है। ईश्वर मुझे मदद के योग्य बनाए।

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