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मीरा : ‘प्रेम-प्रेम सब कोई कहे प्रेम न बूझे कोई’

अनंत ऊर्जा-शक्ति से पैदा हुआ जीव अंततः उसी में समा जाता है। सात महत्त्वपूर्ण चक्रों से युक्त मानव देह में जब ऊर्जा का प्रवाह ऊर्ध्व दिशा में होने लगता है, तब व्यावहारिक, सांसारिक और व्यक्तिगत भार जैसे अहम्, राग, द्वेष, मोह, मद, लोभ और मात्सर्य इत्यादि स्वाभाविक रूप से अलग होने लगते हैं; जिसके फलस्वरूप ही व्यक्तिगत ऊर्जा का विलय ब्रह्मांड ऊर्जा से होना संभव हो पाता है। इस अलौकिक ऊर्जा से समागम में लगने वाली समय सीमा को कम किया जा सकता है, स्व को जानने और पाने की कोशिश द्वारा। ऊर्जा का प्रवाह ऊर्ध्व दिशा में निश्चित करने के कई संभावित रास्तों में से एक को सार्वभौमिक रूप से अतुलनीय और विश्वसनीय बतलाया गया है और वह है—‘प्रेम का मार्ग’। प्रेम जो लौकिक से अलौकिक तक के सफ़र को संभव बना सकता है।

“प्रेम किसी के प्रति नहीं होता अकारण उपजने वाला यह भाव स्वयं में एक गुण है।”

व्यक्ति विशेष के लिए उपजने वाला प्रेम किन मरहलों को पार करता है? पड़ाव-दर-पड़ाव क्या बदलाव आते हैं? आख़िरकार ऐसा क्या होता है कि सृष्टि ही पूर्णरूपेण प्रेममयी हो जाती है? आइए इस मार्ग की एक झलक पाने के लिए कोशिश करते हैं—मीरा की चुनिंदा रचनाओं के ज़रिए :

अनंत ऊर्जा से एक होने के नव-विध भाव श्रीमद्भगवद्गीता में बतलाए गए हैं, इन नौ भावों में से सर्वश्रेष्ठ ‘आत्मनिवेदन’—यानी संपूर्ण समर्पण भाव, उपजा भक्तिकाल की प्रमुख हस्ताक्षर संत मीरा बाई के हृदय में गिरधारी अर्थात् श्री कृष्ण के प्रति।

गिरधर की मुहब्बत में सरापा डूबी मीरा जब कहती हैं—

“म्हारौ जन्म मरण का साथी,
थाणे नहिं बिसरूं दिन राति।
बिन देख्यां नहिं चैन परत है,
जानत मोरी छाती,
ऊँची चढ़-चढ़ पंथ निहारूँ,
रोवें अखियाँ राती।
यो संसार सकल जग झूठो,
झूठो कुलरा न्याति,
दोऊ कर जोड़या अरज करत हूँ,
सुन लीजौ मेरी बाती।”

ऊँची चढ़ पंथ निहारूँ—शायद तुम दिख जाओ, संभवत नीचे से तुम्हें देख न पाऊँ, किस ऊँचाई की बात करती हैं मीरा? क्या और कैसा है यह प्रेम?

“प्रेम-प्रेम सब कोई कहे प्रेम न बूझे कोई”

कैसे मीरा प्रेम के ज़रिए शून्य से शिखर तक के सफ़र को तय करने की बात करती हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर योग दर्शन में निहित है।

प्रेम के इस सफ़र को सात पायदानों वाली सीढ़ी के ज़रिए समझते हैं जो व्यक्ति को आध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक ले जाती है। “मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताप-तपन बहुतेरा”—प्रेम एक तपस्या है, कड़ी तपस्या। यह सफ़र क़तई आसान नहीं है।

प्रेम का आग़ाज़ होता है मूलाधार चक्र से, जो है प्रेम की सीढ़ी का पहला पायदान, यहाँ एक व्यक्ति के लिए उपजा प्रेम आपके संसार का केंद्र होता है। यानी मूलाधार पर अंकुरित प्रेम महज़ व्यक्तिपरक होता है, स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री ही केंद्र होती है।

मीरा बाई के ये दोहे इसी अवस्था का बयान मालूम होते हैं, जब वह कहती हैं—

“अन्न न भावे नींद न आवे, विरह सतावे मोहे
घायल ज्यों घूमूँ खड़ी, रे म्हारो दर्द न जाने कोय”

“जो मैं जानती प्रीत करे दुख होय
नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय”

मूलाधार पर कामवासना प्रेम का मूल स्वभाव और देह मुख्य आधार होता है। यहाँ प्रेम प्रगाढ़ होता है। भाव, स्नेह, परवाह और संवाद के ज़रिए और सफ़र शुरू होता है—दूसरे पायदान की जानिब जो है स्वाधिष्ठान चक्र। भाव, वात्सल्य स्नेह, परवाह और संवाद की निरंतर आपूर्ति प्रेम को दूसरे पायदान पर प्रतिष्ठित करती है, जहाँ से दृश्य बनिस्बत पहले से बेहतर होता है और वह यूँ कि अब प्रेमी की देह के साथ उसका मन भी बीनाई की ज़द में आ जाता है, दिखाई देने लगता है। यानी अब आप अपने प्रेमी को पहले से बेहतर देखने, जानने, समझने लगते हैं। मंज़र में मन के शामिल होने से कुछ बदलाव क़ुदरतन होने लगते हैं, यहाँ प्रेम में देने या न्यौछावर करने की प्रवृत्ति को बल मिलता है। पाने की लालसा मंद होने लगती है। कर्म और भाव में निर्मलता का प्रादुर्भाव प्राकृतिक रूप से होने लगता है, इस पड़ाव की मनःस्थिति को मीरा यूँ बयान करती हैं—

“मीरा व्याकुल अति उकलानी पिया कि उमंग अति लागी रे”

या मीरा का यह बयान जब वो कहती हैं—

“श्याम म्हाने चाकर राखो जी,
चाकर रहस्यूँ बाग़ लगा स्यूँ
नित-नित दरसन पा स्यूँ,
वृंदावन की कुंज गलिन में
तेरी महिमा गा स्यूँ
श्याम म्हाने चाकर राखो जी”

प्रेम निरंतर प्रयत्न माँगता है, निरंतर सामीप्य माँगता है। गाहे-ब-गाहे महसूस होते ठहराव के बावजूद प्रेम में एक निरंतरता बनी रहती है जो की तीसरे पायदान यानी मणिपुर चक्र तक पहुँचने की अव्वल शर्त है।

तीसरे सोपान पर प्रेम में देह और मन के साथ अब शामिल होती है—आत्मा; जिसके साथ ही भाव प्रगाढ़, मन निर्मल, नयन आरसी हो जाते हैं। यहाँ मंज़र मनोरम होने के साथ ही साफ़ होता जाता है और मीरा की भाषा में कहूँ तो एक ही अरज रह जाती है—

“भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थारी मरजी, तुम सुनो जी म्हारी अरजी”

यह वह पड़ाव है जहाँ प्रेमी से अपेक्षाओं में गिरावट और प्रेम में आशा की वृद्धि होती है। सफ़र का अगला और चौथा पड़ाव है अनाहत या हृदय चक्र; यहाँ देह, मन, आत्मा के बाद शामिल होता है—हृदय, जहाँ मुहब्बत में होना ही ख़ुशी का बायस मालूम होता है, यहाँ से नज़ारा किसी व्यक्ति पर केंद्रित नहीं रह जाता, वह बदलने लगता है प्रकाश पुंज में। देह को लाँघने की पूरी तैयारी के साथ यहाँ काम वासना पूरी तरह से तिरोहित हो जाती है और नेत्र प्रेममय हो जाते हैं और यह प्रेममयी नज़र जहाँ पड़ती है—वहाँ बस प्रेम ही दिखाई देता है। और अब मीरा कहती हैं—“बसे मोरे नैनन में नंदलाल”

जो प्रेम अब तक मेरा था, वह सब में परिलक्षित होने लगता है, चैतन्य का विस्तार स्व से बढ़कर जगत चैतन्य में होने लगता है। अब मंज़र में देह नहीं, प्रेम रह जाता है। परम प्रकाश की आँख मिचौली खेलती झलक इस पड़ाव का मुख्य आधार होता है।

ये मिलती-खोती झलक जिह्वा पर अमृत तुल्य स्वाद की भाँति होती है—जो पूर्ण, निरंतर, स्थायी और निर्बाध प्रकाश की खोज हेतु अगले पायदान की तरफ़ इंगित करती है; जो है पाँचवा चक्र—विशुद्धि चक्र। अनाहत को पार कर प्रेम, प्रकृष्ट प्रेम में बदल अब हर ओर प्रेम ही देखता, बाँटता और पाता है। यहाँ मंज़र में ठहराव है, रोशनी की झलक साफ़ और देर तक दिखाई पड़ती है, अँधेरे के पल कम और छोटे होते जाते हैं।

यहाँ से और ऊपर का सफ़र यानी आज्ञा चक्र का पड़ाव और दुरूह है, जिसे कबीर यूँ समझाते हैं—“आगे सीढी साँकरी, पीछे चकनाचूर”। प्रेम का यह मार्ग अब और सूक्ष्म और मुश्किल होता जाता है। माया आपकी ताक़ में है, एक चूक और आप कई पायदान नीचे आ जाते हैं।

कबीर इस मुक़ाम के लिए यह कहते हैं—

“कबीरा माया पापीनी, हरि सूँ करे हराम
मुखी कड़ियाली कुमति की, कहन न देही राम”

वहीं मीरा इस अवस्था के लिए कहती हैं—

“ऊँची नीची राह रपटली पाँव नहीं ठहराय
सोच-सोच पग धरूँ जतन से, बार-बार डिग जाय”

या

“यो मन मेरो बड़ो हरामी, ज्यों मदमातो हाथी
सद्गुरू हाथ धरयो सर ऊपर अंकुश दे समझाती”

यानी मन की चंचलता पर मीरा को भी कोई शक नहीं है, लेकिन यहीं पर मीरा मिथ्या जगत की माया और प्रलोभनों से मुक्त होने का मार्ग भी सुझाती हैं और कहती हैं—

“शील, संतोष धरूँ घट भीतर समता पकड़ रहूँगी
जाको नाम निरंतर कहिए ताको ध्यान धरूँगी”

इस धोखेबाज़ मन को सजगता के अंकुश से नियंत्रित कर के ही आख़िरी मंज़िल पर पहुँचना होगा। आज्ञा चक्र पर मिलने वाली सजगता, रोशनी, देर तक ठहरने वाली होगी और यही प्रेरित करेगी इस सीढ़ी के आख़िरी पायदान पर पहुँचने हेतु।

छह पड़ाव पार कर अंततः सातवाँ और आख़िरी मुक़ाम आता है—सहस्रार चक्र; जो नुकीले पहाड़ पर उस पठार के समान है, जहाँ स्थायित्व है, स्थिरता है, सजगता है, सहजता है, संपूर्णता है।

सहस्त्रार के पायदान से मीरा को जो दृश्य दिखाई देता है, वह है—

“जित देखूँ तित श्याम” 

या कबीर की ज़ुबानी कहें तो

“तू-तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ
वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तूँ”

जिन नज़रों में ख़ालिस रोशनी बस जाए उसे सिवाय उस रोशनी के क्या दिखेगा। बिल्कुल यूँ ज्यों राधा को कृष्ण की अनुपस्तिथि में भी उनकी अनुपस्तिथि महसूस नहीं होती, “कुंजन कुंजन फिरत राधिका सबद सुनत मुरली को”।

प्रेम के इस मक़ाम पर देह, मन, आत्मा, हृदय सब खो जाते हैं। प्रेमी खो जाते हैं, प्रेम रह जाता है। इस मक़ाम पर दो का गुज़ारा ही नहीं।

“प्रेम गली अति साँकरी जा में दो ना समाय”

ख़ुद को खोकर ख़ुद को पा लिया जाता है। इस पड़ाव को मीरा यूँ कहती हैं— 

“वस्तु अमोलक दी मेरे सदगुरु किरपा कर अपनायो
जनम-जनम की पूँजी पायी जग में सभी खोबायो
सत् की नाव खेवटिया सतगुरूभाव सागर तरवायो”

प्रेम आपके भीतर शुरू होने वाली प्रक्रिया है, निज स्वभाव है, स्व को खोजने और पाने का सफ़र है। स्वचैतन्य का विस्तार प्रेम है। यही वह ऊँचाई है जहाँ से प्रेम और प्रेमी के बीच की हर दूरी ख़त्म हो जाती है, दो मिल कर एक हो जाते हैं।

अंत में कबीर का एक दोहा जो जीवन का सार मालूम होता है, हर प्रश्न का उत्तर मालूम होता है—

“पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय”

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