Font by Mehr Nastaliq Web

जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-5

जेएनयू क्लासरूम के क़िस्सों की यह पाँचवीं कड़ी है। पहली, तीसरी और चौथी कड़ी में हमने प्रोफ़ेसर्स के नामों को यथावत् रखा था और छात्रों के नाम बदल दिए थे। दूसरी कड़ी में प्रोफ़ेसर्स और छात्र दोनों पक्षों के नाम बदले हुए थे। अब पाँचवीं कड़ी में फिर से प्रोफ़ेसर के नाम को यथावत् रखा है और छात्रों के नाम बदल दिए हैं। मैं पुनः याद दिला दूँ कि इसका उद्देश्य न तो किसी का स्तुतिगान करना है और न ही किसी के चरित्र को गिराना है, बल्कि क़िस्सों की यह शृंखला विश्वविद्यालय-जीवन के सुंदर दिनों को स्मृत करने का एक प्रयास भर है।

एक

हम विद्यार्थियों की ओर से भारतीय भाषा केंद्र के हर अध्यापक का एक उपनाम दिया हुआ था। प्रो. रमण सिन्हा नाटक और काव्यशास्त्र पढ़ाते थे। वह संस्कृत और अँग्रेज़ी के विद्वानों के सिद्धांतों को सरल भाषा में इस तरह प्रस्तुत करते थे कि मूल सिद्धांत समझ में आ जाए। उन्होंने किसी भी सिद्धांत में अपनी तरफ़ से कुछ भी जोड़ा-घटाया नहीं। हालाँकि उनका उपनाम ‘आचार्यजी’ रखा गया था। परंतु वह आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा में केशवदास टाइप आचार्य थे। भारतीय काव्यशास्त्र के अतिरिक्त वह पाश्चात्य काव्यशास्त्र और आधुनिक कविता पढ़ाने में भी निष्णात थे। वह नियमित कक्षाएँ लेते थे और निर्धारित समय पर क्लासरूम में होते थे। वह बिना किसी औपचारिकता के निर्धारित पाठ पर बोलना शुरू करते थे।

भारतेंदु के नाटक ‘अंधेर नगरी’ का पहला दृश्य पहली क्लास में पढ़ाया जा चुका था। उनकी दूसरी ही क्लास थी, वह क्लास में आए और बिना किसी पूर्व भूमिका के दूसरे दृश्य का पाठ शुरू किया—

“कबाब गरमागरम, मसालेदार-चौरासी मसाला बहत्तर आँच का। कबाब गरमागरम मसालेदार। खाय सो होंठ चाटे, न खाय सो जीभ काटे। कबाब लो, कबाब का ढेर—बेचा टके सेर।”...

उनकी आवाज़ का बेस बहुत था, बाज़ार का दृश्य पढ़ा जा रहा था। वह अभिनय करते हुए पढ़ रहे थे। पूरी क्लास ‘ले धनिया मेथी सोआ पालक आलू गाजर नेनुआं मिरचा’ से गूँज उठी। सबको हँसी आ रही थी, लेकिन सर की गंभीरता का ऐसा आतंक था कि कोई खुलकर हँस नहीं रहा था। सब गर्दन नीची करके हँसी से फूटे जा रहे थे। क्लास ख़त्म हुई। हमारे एक दोस्त की क्लास छूट गई थी। उसने जगरूप से पूछा कि आज सर ने क्या पढ़ाया!

जगरूप—“भाई, पढ़ा क्या, यह तो समझ में नहीं आया; लेकिन मज़ा बहुत आया। ऐसा लगा जैसे किसी सब्ज़ी मंडी में खड़ा हूँ और दुकानदारों में शानदार कंपटीशन चल रहा है...

दो

प्रो. रमण सिन्हा को आधुनिक कविता की भी अच्छी समझ थी। हालाँकि उन्हें विभाग की ओर से कभी कविताएँ पढ़ाने का अवसर नहीं दिया गया, लेकिन अगर वह कविता पढ़ाते तो वर्तमान में पढ़ा रहे अध्यापकों से निश्चित ही बेहतर पढ़ाते। शमशेर बहादुर सिंह पर उनका काम था, अज्ञेय उन्हें प्रिय थे। प्रसंगवश क्लास में अज्ञेय की चर्चा चली। एक छात्रा ने सर को जानकारी दी कि ‘अज्ञेय उतने प्रोग्रेसिव कवि नहीं थे, जितने नागार्जुन। अज्ञेय एलीट क्लास के कवि थे।’ सर ने झुँझलाते हुए कहा कि ‘अगर मैला-कुचैला रहना ही प्रोग्रेसिव होना है तो पूरी हिंदी पट्टी में एकमात्र नागार्जुन ही प्रोग्रेसिव थे! समय से नहाने और साफ़-सुथरे कपड़े पहनने से अज्ञेय कैसे प्रतिक्रियावादी हो जाएँगे, आप मुझे समझाइए। शोषितों और वंचितों का पक्ष लेने के लिए शोषित होना ही क्यों ज़रूरी है? भारतीय इतिहास में कितने ही अमीरों ने ग़रीबों और सवर्णों ने दलितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। आप पहले साहित्य का बेसिक अध्ययन कीजिए उसके बाद जजमेंट दीजिए।”

तीन

प्रो. रमण सिन्हा आदर्श अध्यापक थे। मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में उन जैसा अनुशासित अध्यापक नहीं देखा। समय पर आना और बिना समय जाया किए क्लास लेना, यह उनके पढ़ाने का तरीक़ा था। मैंने उन्हें कभी विषयांतर होते हुए नहीं देखा। वह लगातार बोलते थे। वे उस धावक के समान थे, जो समतल में दौड़ने का आदी हो। उन्हें बीच में सवाल पूछना अच्छा नहीं लगता था। क्लास के अंत में वह सवाल पूछने के लिए अतिरिक्त दस मिनट देते थे, यदि कोई उन्हें बीच में टोक देता तो वह झुँझला उठते थे।

एक दिन क्लास में भरत के रस सिद्धांत पर बात हो रही थी। एक छात्र नोट्स ले रहा था। उसने सर से आग्रह किया कि पिछला वाक्य दुबारा बोलें। सर ग़ुस्सा होते हुए बोले—“मैं कोई टेप रिकॉर्डर हूँ, जो जहाँ से चाहोगे; वहाँ से बजने लगूँगा? अपने कान खुले रखो। जब बात ही समझ में नहीं आएगी तो लिखकर क्या हो जाएगा!”

चार

सर को थिएटर की अच्छी समझ थी, इसलिए नाटकों पर शोध करने वाले विद्यार्थी उन्हीं के निर्देशन में शोध करते थे। एक क्लास में वह पारसी थिएटर के भाषाई योगदान पर बात कर रहे थे। चूँकि उन नाटकों की भाषा सरल हिंदी थी, जो आम बोलचाल की भाषा थी; इसलिए वह हिंदी-उर्दू के विवाद का प्रसंग भी ले आए। एक छात्र ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के ‘लल्लूलाल’ की भाषाई नीति की प्रशंसा करते हुए कहा कि हालाँकि लल्लूलाल जी ने उर्दू-फ़ारसी का विरोध किया था, लेकिन हम उनके भाषाई योगदान को अनदेखा नहीं कर सकते। सर ने प्रत्युत्तर में कहा—“कमाल ही है। ‘लल्लू’ और ‘लाल’ दोनों हिंदी के शब्द नहीं हैं। जो अपने नाम को फ़ारसी से नहीं बचा सका, वह हिंदी भाषा को फ़ारसी से बचाने का दावा कर रहा है। उस पर कमाल यह है कि जिसके नाम में ही ‘लल्लू’ है, उसे आप जैसे शोधार्थी गंभीरता से ले रहे।”

~~~

अगली बेला में जारी...

पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी कड़ी यहाँ पढ़िए : जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से | जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-2 | जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-3 | जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-4

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

06 अक्तूबर 2024

'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'

06 अक्तूबर 2024

'बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला...'

यह दो अक्टूबर की एक ठीक-ठाक गर्मी वाली दोपहर है। दफ़्तर का अवकाश है। नायकों का होना अभी इतना बचा हुआ है कि पूँजी के चंगुल में फँसा यह महादेश छुट्टी घोषित करता रहता है, इसलिए आज मेरी भी छुट्टी है। मेर

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

24 अक्तूबर 2024

एक स्त्री बनने और हर संकट से पार पाने के बारे में...

हान कांग (जन्म : 1970) दक्षिण कोरियाई लेखिका हैं। वर्ष 2024 में, वह साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली पहली दक्षिण कोरियाई लेखक और पहली एशियाई लेखिका बनीं। नोबेल से पूर्व उन्हें उनके उपन

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ :  हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

21 अक्तूबर 2024

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ : हमरेउ करम क कबहूँ कौनौ हिसाब होई

आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ अवधी में बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की नई लीक पर चलने वाले कवि हैं। वह वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश, लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’, माता प्रसाद ‘मितई’, विकल गोंडवी, बेकल उत्साही, ज

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

02 जुलाई 2024

काम को खेल में बदलने का रहस्य

...मैं इससे सहमत नहीं। यह संभव है कि काम का ख़ात्मा किया जा सकता है। काम की जगह ढेर सारी नई तरह की गतिविधियाँ ले सकती हैं, अगर वे उपयोगी हों तो।  काम के ख़ात्मे के लिए हमें दो तरफ़ से क़दम बढ़ाने

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

13 अक्तूबर 2024

‘कई चाँद थे सरे-आसमाँ’ को फिर से पढ़ते हुए

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के उपन्यास 'कई चाँद थे सरे-आसमाँ' को पहली बार 2019 में पढ़ा। इसके हिंदी तथा अँग्रेज़ी, क्रमशः रूपांतरित तथा अनूदित संस्करणों के पाठ 2024 की तीसरी तिमाही में समाप्त किए। तब से अब

बेला लेटेस्ट

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए