जीवन की कविता और कविता का जीवन
हरे प्रकाश उपाध्याय 25 सितम्बर 2024
सबसे पहले तो यही स्पष्ट कर देना यहाँ ज़रूरी है कि यह उद्भ्रांत की प्रतिनिधि कविताओं का संचयन नहीं है। उनकी प्रतिनिधि व चर्चित कविताओं के कई संकलन इससे पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं, उनकी काव्य संचयिता भी प्रकाशित हुई है। अनेक महत्त्वपूर्ण लोगों ने अपनी-अपनी तरह से उनकी अलग-अलग कविताओं को रेखांकित करते हुए उन्हें उनकी प्रतिनिधि कविता माना है और अनेक महत्त्वपूर्ण संपादकों-आलोचकों ने उनकी कई कविताओं पर विशिष्ट तरीके से फ़ोकस कर उनकी चर्चा की है।
दरअसल, उद्भ्रांत की काव्य-संपदा इतनी विराट है कि उनमें से उनकी प्रतिनिधि कविताएँ छाँट पाना बड़ा ही श्रमसाध्य और दुष्कर कार्य है। उद्भ्रांत ने कविता की तमाम प्रविधियों में अपना हाथ आजमाया है, चाहे वह महाकाव्य हो, खंड काव्य हो, प्रबंध काव्य हो, गीत हो, ग़ज़ल हो, काव्य नाटक हो या मुक्त छंद की समकालीन कविता हो। केवल शिल्प के स्तर पर ही नहीं बल्कि विषय व वैचारिक मति-गति के स्तर पर भी उनके यहाँ इतनी विविधता है कि उसमें किसे उनका प्रतिनिधि स्वर समझा जाए और किसे नहीं, यह एक बड़ी समस्या है। सृष्टि के प्रारंभ से लेकर विज्ञान की नवीनतम खोजों तक के विषय व विचार उनके काव्य सरोकार के हिस्से हैं। मिथकीय और पौराणिक चरित्रों-अवतारों से लेकर छोटे-छोटे जानवरों-पक्षियों तक उनकी कविता का आयतन फैला हुआ है। उन्होंने अकेले जितनी तरह की और जितनी कविता लिखी है, उतनी कविता अकेले किसी आदमी के लिए पढ़ पाना भी बड़ा भारी काम है। इतने के बावजूद जब वह अपनी कुछ कविताओं में इस बात के लिए अपने को कोसते और धिक्कारते मिलते हैं कि जीवन यूँ ही व्यर्थ जा रहा है और वह कविता लिख नहीं पा रहे हैं या रचना-कर्म में अपनी भरपूर क्षमता का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं तो उनकी ऊर्जा व आकांक्षा को देखते हुए कलेजा मुँह को आ जाता है।
दरअसल, उद्भ्रांत आपादमस्तक कवि हैं। कविता से जुड़ा हुआ उनका पैशन अद्भुत और लगभग अभूतपूर्व भी है। वह दिन-दहाड़े से लेकर रात-बिरात तक कविता को संभव करते रहते हैं। उनको पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उनके सोते-जागते, तमाम तरह के क्रिया-कलापों को करते हुए शायद ही कोई ऐसा पल गुज़रता होगा कि जिसमें वह कविता के पल्लू को छोड़ पाते होंगे। कविता को साधे रखते हैं और कविता को साथ भी रखते हैं। कविता उनके स्वप्न में है, नींद में है और जागरण में तो है ही। कविता उनके पूजा-पाठ से लेकर प्रणय-संबंध बनाने तक सहचर है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मैं उनकी एक कविता के सहारे ही यह बात कह रहा हूँ। कविता का शीर्षक है—‘नई सृष्टि’।
महाशिवरात्रि की छुट्टी के दिन की कविता है। उसमें जो कवि है, महाशिवरात्रि की छुट्टी के दिन व्रत-उपवास भी कर रहा है और रात के दो बजकर चालीस मिनट तक पढ़ने-लिखने का काम भी कर रहा है। बात यहीं ख़त्म हो जाती तो ग़नीमत थी, पर कविता की असली बात तो आगे है। कविता में अब जाकर कविता का दबे पाँव प्रवेश होता है और कविता कवि को अपनी बाँहों में उठाकर अंत:कक्ष में ले जाती है और उसके बाद जो होता है, उसके बारे में कवि लिखता है :
उसने जो किया
उसे कहने में भी मुझको
लज्जा आती बड़ी
तो इतनी रसवंती है उद्भ्रांत के यहाँ कविता, तो भला वह क्यों न उसके लिए तड़पें और भला क्यों कहीं उसे अकेले छोड़ दें। तो वह कविता को लिए-दिए ही फिरते हैं। और कभी जब उन्हें लगता है कि कोई पल उन्होंने ब़गैर कविता या रचना-कर्म के गुज़ार दिया तो उनको अपराधबोध होने लगता है। उन्हें लगता है कि काल की अदालत में इस अपराध के लिए सफ़ाई भी नहीं माँगी जाएगी, कोई अपील भी नहीं होगी, क्षमादान भी नहीं मिलेगा, सीधे सज़ा सुनाई जाएगी।
यह दलील नहीं सुनी जाएगी कि जीवन की विपरीत परिस्थितियों के कारण उनका रचना-कर्म नहीं हो सका। एक-एक पल का उनसे हिसाब माँगा जाएगा। इस जीवन के कुछ पल बग़ैर रचना किये गँवा देने की चिंता उन्हें अपराधबोध की अग्नि में जलाती रहती है। ‘अपराधी’ कविता की ये पंक्तियाँ देखें :
मैंने अब तक के सत्तावनवें वर्षवाले
इस अमूल्य जीवन के
अरबों पलों को
निरर्थक जाने दिया
इस गहरे अपराधबोध की अग्नि में
जलता हर समय
अब शायद आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उद्भ्रांत ने इतना ज्यादा क्यों और कैसे लिखा है। कविता से सघन संबंध और कविता के प्रति गहरी ज़िम्मेदारी दोनों ही उद्भ्रांत से निरंतर कविता लिखवाती हैं। हालांकि कविता के अलावा उद्भ्रांत ने गद्य भी लिखा है और मुझे लगता है कि शायद ही गद्य-पद्य की ऐसी कोई विधा हो जिसमें उद्भ्रांत ने न लिखा हो। उन्होंने तो चिट्ठियाँ भी इतनी लिखी-लिखवाई हैं कि इस तरह उपलब्ध उनके द्वारा संपादित पत्र-साहित्य की तीन विशाल किताबें छप गई हैं। दो किताबें फ़ेसबुक डायरी की भी हैं। दर्जन भर से अधिक बाल साहित्य की किताबें हैं। डायरी है। उपन्यास हैं। उद्भ्रांत की इतनी किताबें हैं कि मुझे लगता है कि अगर उनसे ही उनकी सूची माँग ली जाए तो उन्हें बहुत मेहनत से उसे तैयार करनी पड़ेगी। लेखन के अलावा उन्होंने संपादन भी पर्याप्त किया है। लघु पत्रिका भी निकाली है। प्रकाशन का काम भी किया है। मुझे नहीं लगता कि लिखने-पढ़ने की दुनिया का कोई भी ऐसा काम हो, जो उनसे छूटा हो। बताइए, व्यस्त नौकरी, शहर-दर-शहर स्थानांतरण, रोजी-रोटी, घर-बार, तीन बेटियों का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, शादी-ब्याह, पुस्तकों का प्रकाशन और प्रकाशकों से लेकर केंद्र सरकार तक केस-मु़क़दमे तक सारा कुछ निपटाते हुए इतना लेखन और इसके बावजूद मन भर लेखन न कर पाने का गहरा अपराधबोध... सोचकर ही अच्छे-अच्छों की हालत ख़राब हो जाए। इतना ही नहीं, उद्भ्रांत ने सिर्फ़ विपुल लिखा ही नहीं है, उनके ऊपर भी विपुल लिखा गया है। उन सबको भी समेटने-सहेजने का काम उद्भ्रांत ने किया है। ऐसे ही नामवर आलोचक नामवर सिंह ने उन्हें ‘प्रतिभा का विस्फोट’ नहीं कह दिया था। जो उनको जानते हैं, उनके विपुल काम को जिसने देखा है, उनके बारे में लिखी गई आलोचना को जिसने देखा है, उन सबके लिए उनके संबंध में ‘प्रतिभा का विस्फोट’ से अधिक सटीक कोई संज्ञा शायद ही सूझे।
दरअसल, उद्भ्रांत के भीतर एक क़िस्म की विकट रचनात्मक छटपटाहट है। सब कुछ कह देने की बेचैनी है। वह कुछ भी अनकहा या अन-नोटिस्ड नहीं छोड़ना चाहते। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे वह यह सोचकर लिख रहे हों कि दुनिया में कोई ऐसा विषय न बच जाए, जिस पर उनकी कविता बात न कर पाई हो। लिखना उनके लिए महास्वप्न भी है और विराट परियोजना भी है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बस वह अंधाधुंध लिखे चले जा रहे हैं। बीच-बीच में वह कविता के दाँत भी जाँचते रहते हैं कि वह कितने नुकीले रह गए हैं, रह भी गए हैं या नहीं। शायद इसी प्रक्रिया में वह एक कविता में खुद पर भी सवाल उठाते हैं और कविता के पाठक पर भी सवाल उठाते हैं :
मेरी समझ में नहीं आता कि यह कविता मैं क्यों लिख रहा हूँ
और मेरी समझ में नहीं आता कि इसे आप क्यों पढ़ रहे हैं
इससे यह लगता है कि कवि बस कविता लिखकर संतुष्ट नहीं हो जाता। वह कविता से आगे की कार्रवाई भी चाहता है। उद्भ्रांत की कविता पर विचार करते हुए, इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है। उन्होंने कुछ कविताएँ कवियों पर भी लिखी हैं। यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि कवि ने अपनी कविताओं में किन कवियों को शिद्दत और प्यार से याद किया है। उन कवियों की धारा, गति, सरोकार व चिंता को अगर ध्यान में रखेंगे तो आप उद्भ्रांत के कवि-कर्म के सरोकार व चिंतन को भी बेहतर पकड़ पाएँगे। क्या कारण है कि वह अपनी कविता में शील, कुमार विकल, हरिहर द्विवेदी, मानबहादुर सिंह, राजेश शर्मा जैसे कवियों को ही ख़ूब मन से याद करते हैं? उद्भ्रांत के कवि-कर्म पर विचार करते हुए इस बात को भी याद रखना चाहिए। जो लोग इन कवियों को जानते होंगे, उनकी काव्य-प्रवृत्ति से वाक़िफ़ होंगे, वे मेरी इस बात का महत्त्व इस संदर्भ में समझ सकेंगे।
अब जो बात मुझे शुरू में ही कह देनी चाहिए थी, यहाँ कहनी पड़ रही है। ऐसा ही है उद्भ्रांत का रचना-कर्म, उसमें घुसने का मतलब कि चलेंगे वेद से तो लोक में पहुँच जाएँगे और चलेंगे लोक से तो वेद में पहुँच जाएँगे। अगर सजग-चौकस नहीं रहे तो पूरी तरह ‘उद्भ्रांत’ हो जाएँगे। उनकी रचना पाठक से भी वही लगाव, वही प्रतिबद्धता, वही श्रमसाध्यता माँगती है, जो उसके रचनाकार ने उसको दिया है। तो कहना यह था कि इस कविता-चयन (संकलन) को तैयार करने के पीछे मंशा यह रही कि उद्भ्रांत कविता के माध्यम से इस जीवन-जगत को तो समझते-समझाते ही रहे हैं, उनकी कविता के माध्यम से उद्भ्रांत को भी समझा जाए। उनके जीवन प्रसंगों को, जीवन के संघर्षों को, सरोकार को, कुल मिलाकर उनके आत्मवृत्त को उनकी कविता के माध्यम से जाना-समझा जाए। यूँ तो उनकी आत्मकथा के भी दो वृहद् खंड आ चुके हैं और तीसरे-चौथे भी शायद जल्दी ही आ जाएँ, पर उद्भ्रांत मूलत: कवि हैं और अपनी लंबी काव्य-यात्रा में अपने जीवन को भी उन्होंने विस्तार से दर्ज किया है। अपने जीवन के तमाम प्रसंग व घटनाएँ उनकी कविता में दर्ज होते रहे हैं। जिन शहरों में वह रहे या किसी न किसी वास्ते वह गए, तो उसे कविता में ज़रूर लिखा। जैसे कि आगरा गए तो पेठा ख़रीदने गए तो उस पर भी दो लंबी कविताएँ उन्होंने लिख लीं। कानपुर तो उनका शहर रहा है तो कानपुर तो बहुत विस्तार से उनकी कविता में आया है। उनके परबाबा मूलत: राजस्थान की जड़ों से निकलकर आगरा में अपने नाम का गाँव बसाते हैं। पिता की नवलगढ़ की नौकरी में कवि के जन्म के बाद वह कानपुर आ जाते हैं, जहाँ कवि की कविता भी जन्म लेती है और कवि की शिक्षा-दीक्षा पूरी होती है। उसके बाद कवि नौकरी के सिलसिले में कई शहरों से होता हुआ दिल्ली पहुँचता है और नोएडा में जाकर बस जाता है।
इस यात्रा व विस्थापन को उन्होंने अपनी कई कविताओं के माध्यम से विस्तार से रेखांकित किया है। केवल बसने-रहने वाली जगहों पर ही नहीं, जिन शहरों से भी किसी क़िस्म की उनकी स्मृतियाँ जुड़ती हैं, तो उन सभी शहरों पर कविताएँ लिखते हुए उस शहर के वैभव व उनसे जुड़ी अपनी तमाम स्मृतियों को वह बेहद आत्मीय तरीके से अपनी कविता में रख देते हैं। एक तो उद्भ्रांत की कविता का शिल्प इतिवृत्तात्मक है तो उनकी कविताएँ पढ़ते हुए गद्य का मज़ा भी मिलता रहता है। उनकी आत्मपरक कविताओं को एकत्र पढ़ें तो उनके जीवन की पूरी डायरी सामने आ जाती है। अधिकांश कविताओं में तो उन्होंने उनके लिखे जाने की तिथि और समय भी नीचे डाल दिया है, तो उससे कविता में व्यक्त यथार्थ का कालबोध भी उजागर हो जाता है।
कोशिश की गई है कि इस संकलन में उद्भ्रांत की ऐसी कविताओं को रखा जाए, जिससे उनके निजी जीवन के संघर्ष व चिंताएँ, पारिवारिक-सामाजिक संबंध, यात्राएँ और विस्थापन, कवि-कर्म की जटिलताएँ और अपने परिवेश के साथ-साथ साहित्य समाज से उनकी पारस्पारिकता का पता चल सके। और आप इस संकलन से गुज़रते हुए पाएँगे कि वह सब कुछ आत्मकथात्मक रूप में बहुत खूबसूरती से इन कविताओं के माध्यम से उभर कर आता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ कवि का आत्म या कि निजी या गोपन संसार ही इसमें व्यक्त हुआ है, बल्कि आप इसे समग्रता से देखें तो इस संकलन की सारी कविताएँ मिलकर एक ऐसे उपन्यास का कथ्य रचती हैं, जिसमें एक ऐसे लेखक का जीवन संग्राम सामने आता है जिसका जन्म मध्यवर्गीय या कि निम्न मध्यवर्गीय परिवार में आजादी के बाद हुआ है, आजादी से उसका मोहभंग, उसकी बेरोज़गारी है, विस्थापन है, भटकाव है, आर्थिक दुश्चिंताएँ हैं, पारिवारिक स्मृतियाँ व तनाव हैं, तीन-तीन बेटियों का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और फिर उनकी शादी की चिंता। हमारे समाज में बेटियों का पिता होना इस इक्कीसवीं सदी में भी कम दारुण प्रसंग नहीं है। उसे पग-पग पर इस बात का एहसास कराया जाता है और उसे निम्नतर साबित करने की कोशिश होती रहती है। उसके सपनों में भी दहेज का दानव अट्टहास करता रहता है। बेटियों की शादी के लिए हमारे समाज में योग्य घर-वर खोजना तो वैसे ही एक ऐसा यातनाबिद्ध विषय है जिस पर ट्रैजिक नॉवेल लिखा जा सकता है। तो यह सब कुछ उद्भ्रांत की इन कविताओं में है। इसके साथ उनका अपने परिवेश से गहरा लगाव, वह चाहे घर के सामने पत्नी द्वारा लगाये नीम, शहतूत या केले के पौधे हों या किराये का मकान हो या बाथरूम में लगी खूंटी-हैंगर हो, ऐसी तमाम चीज़ें उनके काव्य जगत में प्रमुखता से जगह पाती हैं। कवि के लिए इस संसार की वह कोई भी चीज़ कविता से बाहर नहीं है, जो कवि के दृष्टि-पथ में आती हो। ऐसी विराट संवेदना विरल चीज़ है, जो अन्य उनके समकालीनों के यहाँ शायद ही समग्रत: पायी जाती हो।
छह दशकों में फैले कवि के विराट काव्य-महासागर से कुछ चुने हुए मोती ही इस संग्रह के लिए निकाले जा सके हैं, बहुत कुछ मूल्यवान अनजाने छूट गया है या जानबूझकर ही छोड़ दिया गया है। जैसे कि उनकी कई चर्चित और महत्त्वपूर्ण कविताएँ इस संग्रह में नहीं हैं, पर उनकी अन्यत्र चर्चा बहुत होती है और हो रही है। उद्भ्रांत के काव्य-जगत के मूल्यांकन के लिए इस चयन को नहीं तैयार किया गया है, कवि के ‘निज’ को बेहतर समझने के लिए इसे तैयार किया गया है। वैसे भी उनकी विराट काव्य संपदा को किसी एक चयन से समझा भी नहीं जा सकता।
उद्भ्रांत की कविता पर विचार करते हुए यहाँ उनके समकालीनों या कि उनकी पीढ़ी की जानबूझकर चर्चा नहीं की जा रही है, क्योंकि एक तो किसी कवि को किसी पीढ़ी की बाड़बंदी में क़ैद कर देना बहुत अन्यायपूर्ण है, वह भी तब जबकि कवि का काव्य-कर्म छह दशकों तक फैला हुआ है और वह अभी भी जारी है। दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि उद्भ्रांत अपनी काव्यगत प्रवृत्तियों में अपनी पीढ़ी से सर्वथा भिन्न हैं भी। उनकी कविता जितने विविध काव्यरूपों में व्यक्त हो रही है, उनकी पीढ़ी में उनकी तुलना किसी अन्य से हो भी नहीं सकती। और मैं कोई आलोचक हूँ नहीं, उद्भ्रांत के एक विनम्र पाठक के तौर पर ही यह संचयन मैंने तैयार किया है। इसे इसी रूप में लिया जाए।
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